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संरक्षण के सहारे पर सवाल

जागरण मेहमान कोना
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भारत जैसे देशों के लिए वैश्वीकरण और संरक्षणवादी नीतियों का विश्लेषण कर रहे हैं डॉ. भरत झुनझुनवाला


वणिज्य मत्री आनंद शर्मा का कहना है कि वर्तमान वैश्विक आर्थिक सकट से निपटने के लिए विश्व के किसी भी देश को संरक्षण का सहारा नहीं लेना चाहिए। एक सीमा तक बात सही है। वैश्वीकरण का अर्थ है कि पूंजी तथा माल बेरोकटोक एक देश से दूसरे देश को जा सके। इससे संपूर्ण विश्व के उपभोक्ताओं को सस्ता माल उपलब्ध हो रहा है। चीन में बने खिलौने और जूते, बांग्लादेश में बने कपड़े, भारत में उत्पादित चाय एव फिलीपींस में उत्पादित चावल संपूर्ण विश्व में उपलब्ध हो गए हैं। वैश्वीकरण से उपभोक्ता के जीवनस्तर में सुधार हुआ है। इसके अभाव में उपभोक्ताओं को महंगा घरेलू माल खरीदना पड़ता। प्रश्न है कि इस उपलब्धि के बावजूद वैश्वीकरण का विरोध क्यों हो रहा है? कारण है कि श्रमिक के वेतन में भी गिरावट आ रही है। मान लीजिए बांग्लादेश में श्रमिक का वेतन 100 रुपये है और एक शर्ट के उत्पादन की लागत 200 रुपये आती है और शर्ट में लगने वाला कपड़ा, बटन तथा सिलाई मशीन आदि का बांग्लादेश तथा भारत समेत सभी देशों में दाम समान है। इस परिस्थिति में भारत में श्रमिक की दिहाड़ी अगर 150 रुपये हो तो भारत में बनी शर्ट की लागत ज्यादा आएगी। विश्व बाजार में भारत में बनी शर्ट पिट जाएगी और बांग्लादेश में बनी शर्ट बिकेगी। ऐसे में भारतीय उद्यमी के लिए एकमात्र रास्ता है कि वह श्रमिक को वेतन कम दे। वह भी केवल 100 रुपये की दिहाड़ी दे तो 200 रुपये में शर्ट बना सकता है। वैश्वीकरण का तार्किक नतीजा हुआ कि भारत के श्रमिक के वेतन में कटौती होगी।


वेतन में गिरावट गरीबतम देशों में नहीं होती, क्योंकि उनके वेतन पहले ही न्यूनतम हैं। जैसे समुद्र का पानी नीचे नहीं बहता है वैसे ही गरीब देशों के वेतन नीचे नहीं गिरते हैं। शेष संपूर्ण विश्व इस समस्या का सामना करता है। विकसित देशों में यह दबाव बहुत गहरा है। बांग्लादेश में 100 रुपये की दिहाड़ी के सामने अमेरिका तथा यूरोप में दिहाड़ी लगभग 4,000 रुपये प्रतिदिन है। विकसित देशों के श्रमिक के वेतन पर दबाव पड़ने के कारण वह विशेषकर उद्वेलित है और वैश्वीकरण का विरोध बढ़ रहा है।


वैश्वीकरण के विकसित देशों के आम आदमी पर दो परस्पर विरोधी प्रभाव पड़ते है। एक तरफ उसे सस्ता माल उपलब्ध हो जाता है, जिससे उसका जीवनस्तर सुधरता है, वहीं दूसरी ओर उसका वेतन गिरता है, जिससे जीवनस्तर गिरता है। वैश्वीकरण का अंतिम प्रभाव इन दोनों प्रभावों के जोड़ पर निर्भर करता है। मैं समझता हूं कि वेतन में गिरावट ज्यादा प्रभावी है। वेतन में गिरावट होने पर व्यक्ति का जीवन ही सकट में पड़ जाता है। माल महंगा हो तो व्यक्ति येन-केन-प्रकारेण जीवनयापन कर सकता है, क्योंकि जीवनयापन के लिए आवश्यक वस्तुओं जैसे पानी, अनाज और मकान का आयात कम ही होता है। अत: वैश्वीकरण विकसित देशों के लिए विशेषकर जनविरोधी है।


भारत जैसे देशों की परिस्थिति बीच की है। एक तरफ हमारे श्रमिकों को बांग्लादेश के सस्ते श्रम से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही है। दूसरी तरफ अमीर देशों से रोजगार छीनने से हमारे श्रमिक के वेतन में वृद्धि हो रही है। अमेरिकी श्रमिकों के रोजगार छिन जाने के कारण बेंगलूर में तमाम सॉफ्टवेयर इंजीनियरों को रोजगार उपलब्ध हो गया है। भारत के लिए यह विषय गरीब बनाम मध्यम वर्ग का बनता है। गरीब आदमी के लिए बांग्लादेश द्वारा छीने जा रहे रोजगार हानिप्रद है, जबकि मध्यम वर्ग के लिए अमेरिका से छीनकर लाए जा रहे रोजगार लाभप्रद हैं। देश की जनसख्या में गरीब ज्यादा हैं इसलिए बांग्लादेश से प्रतिस्पर्धा को ही ज्यादा महत्व देना चाहिए, परंतु भारत के गरीब पर बांग्लादेश से प्रतिस्पर्धा का नकारात्मक प्रभाव थोड़ा ही पड़ेगा, क्योंकि बांग्लादेश तथा भारत के श्रमिकों के वेतन में अंतर कम है। इसके विपरीत भारत के मध्यम वर्ग पर सकारात्मक प्रभाव गहरा पड़ेगा, क्योंकि भारत तथा अमेरिका के श्रमिकों के वेतन में अंतर अधिक है। भारत तथा अमेरिका के श्रमिकों के वेतन के समानीकरण के लिए अमेरिका के श्रमिकों के वेतन में भारी गिरावट आना अनिवार्य है। वहां वेतन मात्र 400 रुपये रह जाए तो श्रमिक उद्वेलित क्यों नहीं होगा? अत: गरीब देशों सहित भारत के लिए वैश्वीकरण लाभप्रद रहेगा। विकसित देशों ने सोचा था कि नई तकनीकों के आविष्कार एव इन हाईटेक उत्पादों को बेचकर वे भारी लाभ कमाएंगे और वेतन में आ रही इस गिरावट की भरपाई कर लेंगे, परंतु नई तकनीकों का आविष्कार न होने के कारण वैश्वीकरण उनके लिए घाटे का सौदा हो गया है। विकसित देशों के श्रमिकों को भारी नुकसान होने के कारण वहा गहरा विरोध होगा। वैश्विक राजनीति में इन देशों का वर्चस्व अधिक होने के कारण संपूर्ण विश्व में वैश्वीकरण का विरोध होता दिखेगा। इस समस्या का समाधान है कि हर देश अपनी अर्थव्यवस्था को सस्ते माल से सरक्षण दे। अमेरिका द्वारा चीन से खिलौनों का आयात नहीं किया जाएगा तो अमेरिकी उपभोक्ता को अमेरिका में बने महंगे खिलौने खरीदने पड़ेंगे, परंतु अमेरिकी श्रमिक को ऊंचे वेतन भी मिल सकेंगे। भारत द्वारा बांग्लादेश में बने सस्ते कपड़ों के आयात पर टैक्स लगाने से भारत के कपड़ा उद्योग में कार्यरत श्रमिकों के वेतन ऊंचे बने रह सकते हैं। आने वाले समय में हम अधिकतर देशों को वैश्वीकरण त्यागते देखेंगे। यह सिलसिला अमेरिका, यूरोप तथा जापान से शुरू होगा और धीरे-धीरे दूसरे देशों में फैलेगा।


प्रश्न उठता है कि संरक्षण की नीति ही सही थी तो हमने उसे त्याग कर वैश्वीकरण क्यों अपनाया? कारण यह था कि संरक्षण के सही सिद्धात का पूर्व में दुरुपयोग किया जा रहा था। संरक्षण का उपयोग श्रमिक के वेतन बढ़ाने के स्थान पर घूस लेने और अकुशल उत्पादन को पोसने के लिए किया जा रहा था। उदाहरण के रूप में भारत ने दूसरे देशों में बनी सस्ती कार के आयात पर प्रतिबध लगा रखा था। भारत में घटिया क्वालिटी की कार बनती थीं। सरकारी अधिकारी इन कंपनियों से बड़ी मात्रा में घूस ले सकते थे। अकुशल उत्पादन एव घूस के भार को ये कंपनियां उपभोक्ता से ऊंचा मूल्य वसूल कर कम कर रही थीं। ऐसे संरक्षण को त्यागना ही उचित था। यानी समस्या संरक्षण के सिद्धात में नहीं, अपितु संरक्षण जनित लाभ के कुवितरण की थी। वाणिज्य मत्री आनद शर्मा ने संरक्षण का विरोध किया है। राजनयिक दृष्टि से यह सही है। भारत को बांग्लादेश एव चीन के रास्ते श्रम से जितना नुकसान है, उससे ज्यादा लाभ अमेरिका और यूरोप से रोजगार छीनने में है। अत: फिलहाल सामरिक दृष्टि से संरक्षण का विरोध करना ठीक है यद्यपि वैश्वीकरण का सिद्धात मूल रूप से टिकाऊ नहीं है।


लेखक डॉ. भरत झुनझुनवाला आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं


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