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इतिहास गवाह है जब-जब शासकों ने मनुष्यों को जानवरों की तरह हांकने की कोशिश की तब-तब क्रांतियां हुई। यह गलतियां तानाशाह दोहराते रहे और उनका पतन होता रहा। निकट भविष्य की क्रांतियों की देखें तो पाएंगे कि सोवियत संघ का टूटना, कम्युनिस्ट शासन का अंत, ईरान में शाह सल्तनत का पतन और हाल में मिश्र में हुई जनक्रांति इसका उदाहरण है। इन सभी क्रांतियों की जड़ में आर्थिक भ्रष्टाचार एक बड़ा कारण था। सोवियत संघ में कम्युनिष्ट शासन काल में एक नागरिक को आजादी के मौलिक अधिकारों से ही सरकार ने वंचित कर रखा था तो ईरान में शाह सल्तनत के शासक सत्तर के दशक तक मध्यकालीन प्रणाली से राज्य कर रहे थे और मिश्र का हाल भी कुछ ऐसा ही था। मिश्र का अधिकांश धन भ्रष्टाचार की बलि चढ़ रहा था तथा यही हाल लीबिया व सीरिया में था जिस कारण वहां भी शासकों के खिलाफ जनक्रांति शुरू हो गई। जब शासक वर्ग जनमानस में फैली बुराइयों के प्रति अपनी आंखें मूंद ले, शासक जनता की कठिनाइयों के बारे में केवल बयान ही दे और जनता का शोषण करे तो जनता में निराशा व हताशा घर कर लेती है। ऐसे हालात में अन्ना हजारे जैसे जननेता जनता की भावनाओं को व्यक्त करने का जरिया बन जाते है।
1975 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में मुकदमा हारने पर देश में इमरजेंसी लगा दी थी। देश के राजनीतिक नेताओं को जेलों में बंद कर दिया गया था। ऐसे में स्वर्गीय जयप्रकाश नरायण ने जनता की आवाज को बुलंद किया और जनता ने 1977 में इंदिरा के शासन को उखाड़ फेंका। अब फिर से क्या अन्ना हजारे के शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर अड़चनें लगाकर सरकार तानाशाही का परिचय नहीं दे रही है। सरकार को जवाब देना चाहिए कि 2जी घोटाले में एक लाख करोड़ रुपये का घोटाला और कॉमनवेल्थ खेल में घोटाले के समय वह क्या कर रही थी? भ्रष्टाचार के खिलाफ जनभावना को कुचलने का काम आखिर क्यों किया जा रहा है। येद्दयुरप्पा से इस्तीफा ले लिया गया, लेकिन दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से क्यों नहीं? क्या इसका कोई जवाब है मनमोहन सिंह के पास। बार-बार संसद और विधायिका का हवाला दिया जा रहा है, लेकिन आज इन सदनों का जो हाल है वह किसी से छिपी नहीं। आज पार्टियों का हित देशहित व जनहित से ज्यादा बड़ा हो गया है। अब वह दिन चले गए जब लालबहादुर शास्त्री रेल दुर्घटना के कारण त्यागपत्र दे देते थे। उस समय छोटे-मोटे आरोपों पर ही मंत्री त्यागपत्र दे दिया करते थे, लेकिन आज की राजनीति सत्ता से चिपके रहने का जरिया बन गई है।
2जी घोटाले में ए. राजा की संलिप्तता जब बहुत पहले उजागर हो गई थी तो उनसे त्यागपत्र लेने में इतनी देरी क्यों हुई? कॉमनवेल्थ खेल में भी घपले की बात सामने आने पर भी कलमाडी को क्यों नहीं हटाया गया? ग्रामीण विकास व गरीबी उन्मूलन योजनाओं में खासकर मनरेगा, ग्रामीण गरीब आवास योजना, पेंशन व स्वस्थ जननी तथा अन्नपूर्णा योजनाओं का अधिकांश धन बिचौलियों के पास जा रहा है। 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून का दुरुपयोग करके किसानों की जमीन बिल्डरों को दे दी जा रही है। क्या यह भ्रष्टाचार की चरम सीमा नहीं है। यदि इस अनैतिकता के खिलाफ लोग आवाज उठाते हैं तो उन्हें गलत बताया जाता है और उनके अधिकारों की सीमा दिखाई जाती है।
देश में भ्रष्टाचार रोकने वाली एजेंसियां किसी भी भ्रष्टाचार का स्वत: संज्ञान नहीं लेतीं। जब किसी बड़े घोटाले पर देश में बहुत शोर मचता है तब ये बाध्य होकर आधे-अधूरे मन से जांच में लगती हैं ताकि लोगों का मुंह बंद किया जा सके। इसका बड़ा उदाहरण है अली हसन का देश से 70 हजार करोड़ रुपये बाहर ले जाना। भ्रष्टाचार का मूल कारण है कानून राज का अभाव। यदि देश में कानून समान रूप से लागू हो जाए तो अन्ना हजारे के आंदोलन की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। यदि देश में चुनाव सुधार व पुलिस सुधार लागू हो जाएं तो तकरीबन 60 फीसदी भ्रष्टाचार खत्म हो सकता है। जब पानी सिर से ऊपर चला गया है तब अन्नाजी ने आंदोलन का रास्ता चुना। यदि सरकार न्यायपालिका व लोकसभा और प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे से बाहर रखती है तो वह सशक्त होने की बजाय पंगु ही होगा तथा उसका हाल राज्यों में कार्यरत लोकायुक्तों जैसा ही होगा। यदि सरकार सच्चे लोकतंत्र में विश्वास रखती है तो वह इस पर जनमत संग्रह का रास्ता भी अपना सकती है, लेकिन यह महज खानापूर्ति वाला न हो। सरकार जनता को इस बारे में भरोसा ही नहीं दिलाए, बल्कि ईमानदारी से भ्रष्टाचार को खत्म करने हेतु काम भी करे।
इस आलेख के लेखक कर्नल शिवदान सिंह हैं
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