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विदेश नीति में सार्थक बदलाव

जागरण मेहमान कोना
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S.D Muniप्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की इस बार की अमेरिका यात्रा पहले की यात्राओं से इस मायने में भिन्न है कि न केवल अमेरिका और विश्व में हालात बदले हुए हैं, बल्कि भारत में भी सरकार कई मुश्किलों में घिरी दिखती है। इसलिए मनमोहन सिंह के सामने सिर्फ अमेरिकी मित्रता को ज्यादा तवज्जो देने की बजाय विश्व के वास्तविक हालात से सामंजस्य बिठाने और भारत के लिए एक ठोस जमीन तैयार करने की चुनौती है। इसी का परिणाम है कि भारत ने अपनी पिछली गलतियों से सबक सीखते हुए ईरान से मित्रता प्रगाढ़ करने की दिशा में कदम बढ़ाए हैं। इस सिलसिले में मनमोहन सिंह और ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद की मुलाकात को महत्वपूर्ण माना जा सकता है। भारत गैस पाइपलाइन परियोजना को लेकर पहले ईरान के मामले में उलझ गया था और वह अमेरिका व ईरान के बीच संतुलन स्थापित करने के प्रयास में अपने इस करीबी मित्र से दूर हो रहा था, लेकिन अब बदले हालात में भारत ने अपनी विदेश नीति को सुधारा है।


एक ऐसे समय में जबकि अमेरिका ने अफगानिस्तान से अपनी सेनाओं को हटाने का फैसला कर लिया है और इसकी समयबद्ध वापसी की घोषणा भी कर दी है तो भारत को अफगानिस्तान में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए ईरान का साथ जरूरी है। इसके अलावा भारत को अफगानिस्तान में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए तालिबान विरोधी नॉर्दर्न एलायंस के साथ भी संबंधों को अधिक मजबूत करना होगा ताकि वर्ष 2014 के बाद जब अमेरिकी सेनाएं पूरी तरह से अफगानिस्तान से वापसी कर चुकी होंगी तो पाकिस्तान की किसी भी चाल का उत्तर दिया जा सके। पाकिस्तान की कोशिश यही है कि वह अमेरिका की गैर मौजूदगी में अफगानिस्तान पर एकछत्र राज्य कर सके। इसके लिए उसे चीन से भी मदद मिल रही है, लेकिन भारत की तैयारी अभी तक कमजोर पड़ रही थी। इसी तरह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधारों का मुद्दा भी काफी महत्वपूर्ण है। मनमोहन सिंह की इस यात्रा के दौरान एक अच्छी बात यह हुई है कि चीन ने इन सुधारों के पक्ष में अपनी चुप्पी तोड़ी है और पहली बार इसे जरूरी बताते हुए अपना समर्थन दिया है। हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि चीन ने भारत का समर्थन किया है, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से इसका लाभ भारत को मिलेगा और इस तरह उसकी दावेदारी अधिक सशक्त हुई है। दरअसल, चीन नहीं चाहता कि जापान संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य के रूप में शामिल हो। वहीं भारत के प्रति चीन फिलहाल जापान के मुकाबले उदार रुख अपना रहा है। कुछ ऐसा ही हाल जर्मनी का भी है, क्योंकि यूरोपीय देश उसके पक्ष में लामबंद होने को फिलहाल तैयार नहीं दिख रहे। ब्राजील को लेकर भी अफ्रीकी देशों में विरोध है। इस तरह देखें तो भारत का प्रत्यक्ष रूप से कोई विरोध नहीं कर रहा है और दुनिया के बाकी देशों में भी हमारी स्वीकार्यता एक शांतिप्रिय देश के रूप में अपेक्षाकृत अधिक है। मौजदा समीकरण और संभावनाएं भारत के पक्ष में हैं, लेकिन इन्हें अपने पक्ष में भुनाने के लिए हमें अधिक सतर्क रहना होगा और उसी के अनुरूप एक संतुलित रणनीति बनाकर काम करने की आवश्यकता है।


भारत को अपनी खिड़की खुली रखने की आवश्यकता है और आसपास के देशों से संबंध भी मधुर बनाकर चलना होगा। किसी एक देश से संबंध बेहतर बनाने की खातिर अपने आसपास के देशों से हम दूर नहीं हो सकते, क्योंकि इनसे हमारा एक लंबा एतिहासिक-सांस्कृतिक संबंध रहा है। यही व्यावहारिक विदेश नीति है जिसे इस समय भारत अपना रहा है और अपनाना भी चाहिए। इस संदर्भ में भारत ने फलस्तीन के मामले में भी अपनी नीति अधिक स्पष्ट की है। गाजापट्टी को लेकर इजरायल और फलस्तीन के बीच अभी तक कोई आम सहमति नहीं बन सकी है। बावजूद इसके भारत ने फलस्तीन को एक स्वतंत्र देश के तौर पर न केवल अपने समर्थन को दोहराया, बल्कि उसे संयुक्त राष्ट्र में सदस्यता दिए जाने की मांग भी की। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1988 में भारत पहला गैर अरबी देश था जिसने फलस्तीन को स्वतंत्र देश के रूप मान्यता दी थी, लेकिन बाद में भारत और अमेरिका के बीच बढ़ी नजदीकियों की वजह से कुछ आशंकाएं पैदा हो गई थीं। इसलिए यह आवश्यक था कि भारत ईरान और फलस्तीन के मामले में अमेरिकी साया से बाहर निकलता।


जहां तक अमेरिका की बात है तो अभी तक उसने फलस्तीन को एक स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता नहीं दी है और वह इजरायल के पक्ष में झुका हुआ है। यहां यह मानना भी ठीक नहीं होगा कि फलस्तीन की वकालत करने से भारत और इजरायल के बीच संबंधों में दूरी पैदा होगी। इजरायल और फलस्तीन के बीच चाहे जो विवाद रहे हों, लेकिन भारत ने सदैव ही तटस्थ दृष्टिकोण अपनाया और दोनों देशों से अपने स्वतंत्र रिश्ते विकसित किए। यह आवश्यक भी था, क्योंकि भारत अमेरिका या इजरायल की तरह नहीं हो सकता। भारत को यदि वैश्विक भू-राजनीति में अपनी अलग भूमिका तलाश करनी है तो उसे न केवल स्वतंत्र निर्णय लेने होंगे, बल्कि ऐसा करते हुए दिखना भी होगा। निश्चित ही 21वीं सदी एशिया की है और भारत व चीन एशिया की बड़ी शक्तियां हैं। इसलिए भारत को इसके लिए खुद को अभी से तैयार करना होगा ताकि आने वाले समय में वह अपनी अधिक व्यापक जिम्मेदारियों के प्रति वैश्विक साख बना सके। इस संदर्भ चीन ने भारत से कहीं ज्यादा तेजी से तरक्की की है। कुल मिलाकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की इस बार की अमेरिका यात्रा को भी इसी संदर्भ में देखा जा सकता है। यह एक उचित और माकूल अवसर भी था जिसे भारत दीर्घकालिक रूप से अपने पक्ष में मोड़ने में सफल रहा है।


लेखक एसडी मुनि विदेश मामलों के विशेषज्ञ हैं


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