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उलझे रिश्तों की हकीकत

जागरण मेहमान कोना
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Harsh Pantसरकार, समाज व सेना के बीच बेहतर संवाद कायम करने की आवश्यकता पर जोर दे रहे हैं हर्ष वी. पंत


यह इतिहासकारों के लिए शोध का विषय हो सकता है कि क्या जिस दिन सैन्य प्रमुख जनरल वीके सिंह जन्मतिथि विवाद में केंद्र सरकार को सुप्रीम कोर्ट खींच ले गए थे उस दिन सेना की दो टुकडि़यों के अप्रत्याशित दिल्ली कूच पर सरकार इतनी घबरा गई थी कि उसने इसे तख्तापलट की साजिश मान लिया था, किंतु इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि सरकार और सैन्य प्रतिष्ठान के बीच अविश्वास की खाई चौड़ी होती जा रही है और इनके संबंध इतने खराब हो चुके हैं जितने पहले कभी नहीं रहे। इस घटना पर गंभीर विमर्श करने के बजाय सरकार की घिसी-पिटी प्रतिक्रिया ही सामने आई। प्रधानमंत्री ने कहा कि सैन्य प्रमुख के पद की गरिमा कम करने का प्रयास नहीं होना चाहिए और रक्षामंत्री ने सशस्त्र बलों की देशभक्ति पर पूरा भरोसा जताया। जब भारत में सरकार-सैन्य संतुलन का दुर्ग ढहता नजर आ रहा है तब इस तरह की बयानबाजी का क्या मतलब है? जैसाकि अन्य क्षेत्रों में भी चल रहा है, सरकार अपनी जिम्मेदारी से बच रही है, जिसका खामियाजा देश को लंबे समय तक भुगतना पड़ेगा। यद्यपि वर्तमान बखेड़े को व्यक्तित्व के टकराव के रूप में देखा जा रहा है, लेकिन मामला इतना ही नहीं है। इस पर काफी कुछ दांव पर लगा है।


हथियार लॉबी को ध्वस्त करना होगा


भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान, समाज और सैन्य संस्थानों के बीच की अनबन खुलकर सतह पर आ गई है। यदि यह साम्य जल्द बहाल नहीं किया गया तो इसके गंभीर निहितार्थ होंगे, क्योंकि केवल वही देश खुद को सुरक्षित रख सकते हैं, जिनमें सरकार-सेना के बीच संतुलन रहता है। जो देश इस कसौटी पर खरे नहीं उतरते उनकी राष्ट्रीय सुरक्षा खतरे में पड़ जाती है। एक राष्ट्र का अपने सैनिकों के साथ सम्मानजनक व्यवहार होता है। इसीलिए जरूरत पड़ने पर सैनिक देश के लिए अपनी जान भी कुर्बान करने से नहीं हिचकते। देश का फर्ज बनता है कि वह सैनिकों और उनके परिजनों की जरूरतों को अपने संसाधनों की हद तक जाकर पूर्ति करे। इस बंधन पर ही देश का अस्तित्व निर्भर करता है, क्योंकि जब क्षेत्र की अखंडता और राजनीतिक स्वतंत्रता पर खतरा मंडराता है तो देश अपनी सुरक्षा के एकमात्र औजार-सशस्त्र बलों पर निर्भर करता है। एक जिम्मेदार सरकार रक्षा पर अपर्याप्त राशि खर्च करने के गंभीर निहितार्थो को लेकर हमेशा सचेत रहती है। यह सच्चाई है कि जब तक रक्षा मद में पर्याप्त प्रावधान न हो, कोई सरकार सुरक्षा को लेकर सुनिश्चित नहीं हो सकती। यह खासतौर पर भारत जैसे देश के लिए तो और भी अहमियत रखता है, जिसकी दो सीमाओं पर विरोधी शक्तियां सक्रिय हैं। यही नहीं इसकी चारों ओर से घेराबंदी की जा रही है और यह आंतरिक मोर्चे पर मुसीबतों में फंसा हुआ है।


जैसाकि अंतरराष्ट्रीय संबंधों के विशेषज्ञों का मानना है, राष्ट्रों के बीच राजनीति हिंसा की छाया में निर्धारित होती है। या तो कोई देश अपने हितों की रक्षा के लिए सैन्य शक्ति का इस्तेमाल करने का इच्छुक हो या फिर यह अपने विरोधी की सैन्य ताकत के आगे झुक कर रहना सीख ले। भारतीय समाज रक्षा मामलों को लेकर उदासीन रहा है। इसने कारगिल का नजारा टीवी पर जरूर चाव से देखा था, जहां पत्रकार अपनी क्षणिक बहादुरी दिखाने के लिए कुछ घंटे मोर्चे पर रहकर इसका सीधा प्रसारण कर रहे थे। और जब युद्ध खत्म हो जाता है और हजारों सैनिक शहीद हो जाते हैं तो समाज सैनिकों और उनके परिजनों को उनके हाल पर छोड़कर और अधिक दिलचस्प डांस रियलटी शो और सास-बहू धारावाहिकों की ओर मुड़ जाता है। वृहत्तर समाज द्वारा किनारा कर लिए जाने और सरकार की उपेक्षा से त्रस्त भारतीय सशस्त्र बल आज अभूतपूर्व उथल-पुथल व असंतोष से जूझ रहा है। किसी भी देश की सशस्त्र सेवाओं में यह असंतोष बेहद चिंता का विषय होना चाहिए किंतु जहां तक भारत का सवाल है, ये हालात विनाश की पृष्ठभूमि के समान हैं। भारतीय सेना में अपने असैन्य आकाओं की रक्षा मामलों की समझ पर बढ़ती अरुचि एक बड़ा मुद्दा है। राष्ट्रीय हितों की पूर्ति में सेना की भूमिका को लेकर भारतीय राजनीतिक तबके की नासमझी स्पष्ट है।


भारत में रक्षा पर कोई स्वतंत्र नागरिक विशेषज्ञता नहीं है। भारतीय विश्वविद्यालयों में मंगोलिया की विदेश नीति या फिर बेल्जियम की घरेलू राजनीति पर तो शोध करने वाले आसानी से मिल जाएंगे, किंतु रक्षा मामलों पर शोधरत छात्र मुश्किल से ही मिलते हैं। परिणामस्वरूप, राष्ट्रीय सुरक्षा और रक्षा मामलों पर पूर्व सैन्य अधिकारियों का एकाधिकार हो गया है। ठीक है कि रक्षा मसले पर सैन्य अधिकारियों की राय सबसे अहम है, किंतु केवल उन्हीं की राय होना सही नहीं है। सरकार-सैन्य संबंधों को सामान्य बनाने की दिशा में सशस्त्र बलों का शीर्ष नेतृत्व भी कुछ खास नहीं कर रहा है। वर्तमान सैन्य प्रमुख का अपनी जन्मतिथि विवाद को लेकर सुप्रीम कोर्ट का रुख करना और उन्हें कथित घूस देने के मामले से एक बार फिर साफ हो जाता है कि किस प्रकार हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र पर व्यक्तित्व का अहं भारी पड़ता है। एक तरफ भारतीय सशस्त्र बलों की यह आम शिकायत रहती है कि राजनीति-नौकरशाही गठजोड़ रक्षा सेवाओं के अधिकारों को काट रहा है वहीं दूसरी तरफ सैन्य बल के शीर्ष नेतृत्व का व्यवहार खुद ही ब्यूरोक्रेटिक होता जा रहा है। रक्षा क्षेत्र में व्याप्त तमाम बुराइयों के लिए सरकार पर दोष मढ़ना सेना के शीर्ष नेतृत्व की आदत बन गई है। यदि यह आदत दूर नहीं हुई तो राष्ट्र के उदार लोकतांत्रिक लोकाचार के लिए खतरनाक सिद्ध हो सकती है। भारतीय सशस्त्र बलों में बुनियादी सुधार की आवश्यकता है।


घरेलू और वैश्विक स्तर पर तेजी से बदलते परिदृश्य में सेना के कुशल संचालन के लिए इसकी पुनर्सरचना जरूरी है। रक्षा क्षेत्र में भ्रष्टाचार को लेकर मचे बवाल के बीच यह स्मरण रखना जरूरी है कि लंबे समय से चली आ रही रक्षा नीतियों को न बदलने से भारत के हाथों से कीमती समय निकला जा रहा है। भारतीय रक्षा नीति को नई दिशा देने की जिम्मेदारी सशस्त्र बलों के नेतृत्व की है। यह वैश्विक क्रम में अपना कद बढ़ाने की भारत की लालसा की पूर्ति में मील का पत्थर सिद्ध हो सकता है। सेना का अस्तित्व ही राष्ट्र की सेवा के लिए है, किंतु सामाजिक प्रतिष्ठा से वंचित और राष्ट्र का ध्यान खींचने में असमर्थ सेना न केवल देश की सुरक्षा को खतरे में डाल सकती है, बल्कि उदार सामाजिक मूल्यों के सामने चुनौती भी पेश कर सकती है। अगर भारत वर्तमान अव्यवस्था को दूर करना चाहता है तो राष्ट्र, समाज और इसके सैन्य संस्थानों के बीच संतुलन बनाना होगा। अब असल संवाद की सख्त जरूरत है।


लेखक हर्ष वी. पंत किंग्स कॉलेज, लंदन में प्रोफेसर हैं


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