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बुनियादी शिक्षा का समाजवादी सपना

जागरण मेहमान कोना
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शिक्षा व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की प्रगति के लिए जरूरी है। शिक्षा सभ्यता और संस्कृति की जीवंतता का आधार भी है। शिक्षा के माध्यम से ही समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता और सामाजिक गैर-बराबरी को खत्म किया जा सकता है, लेकिन यह तभी संभव होगा, जब समाज में शैक्षिक भेदभाव की जगह समान बुनियादी शिक्षा सुलभ होगी। सुप्रीम कोर्ट ने इस दिशा में क्रांतिकारी पहल की है। उसने शिक्षा का अधिकार कानून 2009 को संविधान सम्मत मानते हुए उस पर अपनी मुहर लगा दी है। अब छह से 14 साल के बच्चों को अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा देने का रास्ता साफ हो गया है। मुख्य न्यायाधीश एसएच कपाडि़या और न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार की पीठ ने राजस्थान की संस्था सोसायटी फॉर अनऐडेड प्राइवेट स्कूल और कई निजी स्कूलों से जुड़े संगठनों द्वारा शिक्षा के कानून अधिकार को चुनौती देने वाली याचिका पर फैसला देते हुए कहा है कि यह कानून सरकारी और सरकार द्वारा नियंत्रित स्कूलों, गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूलों और सरकारी सहायता लेने वाले अल्पसंख्यक संस्थानों पर लागू होगा। न्यायालय ने गैर सहायता प्राप्त निजी अल्पसंख्यक स्कूलों को कानून के दायरे से बाहर रखा है।


शीर्ष अदालत का दूरगामी फैसला शिक्षा का अधिकार कानून-2009 को याचिकाकर्ताओं ने न्यायालय में चुनौती दे रखी थी। उनके मुताबिक शिक्षा का अधिकार कानून निजी शैक्षणिक संस्थानों को अनुच्छेद 19 (1) जी के अंतर्गत दिए गए अधिकारों का उल्लंघन करता है, जिसमें निजी प्रबंधकों को सरकार के दखल के बिना अपने संस्थान चलाने की स्वायतत्ता प्रदान की गई है। किंतु अदालत ने साफ कर दिया है कि शिक्षा अधिकार कानून संविधान सम्मत है और उसका अनुपालन अनिवार्य है। न्यायालय ने यह भी व्यवस्था दी है कि देश भर में सरकारी और गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूलों में 25 फीसदी सीटें गरीब बच्चों के लिए आरक्षित होंगी। न्यायालय का फैसला दूरगामी परिणामों को समेटे हुए है। इस फैसले के बाद अब गरीब बच्चों के लिए सुविधासंपन्न स्कूलों का द्वार खुल गया है। वे भी अब इन स्कूलों में दाखिला ले सकते हैं। बता दें कि शिक्षा का अधिकार विधेयक कैबिनेट द्वारा 2 जुलाई, 2009 को स्वीकृत किया गया। राज्यसभा ने इस विधेयक को 20 जुलाई 2009 और लोकसभा ने 4 अगस्त, 2009 को पारित किया तथा 26 जुलाई, 2009 को राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने के बाद 27 अगस्त, 2009 को भारत सरकार के राजपत्र में प्रकाशित किया गया। फिर 1 अप्रैल, 2010 से इसे लागू कर दिया गया है।


आजादी के बाद ही संविधान निर्माताओं ने शिक्षा के अधिकार को मूल अधिकार के रूप में शामिल करना चाहा था, लेकिन वे ऐसा नहीं कर सके। छह दशक बाद संसद ने इस अधिकार की आवश्यकता को समझते हुए वर्ष 2002 में संविधान के 86वें संविधान संशोधन अधिनियम 2002 द्वारा नया अनुच्छेद 21-क जोड़कर इसे मूल अधिकार के रूप में अध्याय तीन में शामिल कर प्रवर्तनीय बना दिया। अब शिक्षा का अधिकार कानून के प्रावधानों के मुताबिक बच्चे या उसके अभिभावक से किसी भी प्रकार से सीधे या परोक्ष रूप से कोई शुल्क नहीं लिया जाएगा। यानी बच्चे की बुनियादी शिक्षा का जिम्मा सरकार के कंधे पर होगा। शिक्षा अधिकार कानून के मुताबिक केंद्र सरकार, राज्य सरकारें, स्थानीय प्राधिकारी और माता-पिता सबके कर्तव्य सुनिश्चित किए गए हैं। अब देखने वाली बात यह होगी कि सर्वोच्च अदालत के फैसले के बाद यह कानून अपना आकार कैसे लेता है और किस तरह केंद्र और राज्य सरकारें इस कानून को अमलीजामा पहनाती हैं। इस कानून को व्यावहारिक रूप देने में अब भी ढेरों कठिनाइयां हैं। इन कठिनाइयों को दूर करने के लिए राज्य सरकारों को अपनी सक्रियता बढ़ानी होगी। हालांकि निजी स्कूल प्रबंधकों ने शिक्षा अधिकार कानून का विरोध किया था, लेकिन न्यायालय का फैसला आने के बाद उनके लिए आदेश का अनुपालन बाध्यकारी होगा। किंतु वे इस फैसले से बहुत खुश नहीं हैं। यही वजह है कि उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले पर पुनर्विचार के लिए याचिका दाखिल कर दी है।


निजी स्कूल प्रबंधन तर्क दे रहे हैं कि इस फैसले से शिक्षा का स्तर गिरेगा और स्कूलों का वातावरण खराब होगा। 25 फीसदी आरक्षण उन्हें और भी विचलित कर रहा है। उनका कहना है कि दाखिले में आरक्षण अनुचित और अव्यावहारिक है। इससे विद्यालयों की आर्थिक स्थिति बिगड़ेगी। लेकिन सच्चाई यह है कि इन आरक्षित वर्ग के बच्चों की पढ़ाई का खर्चा पूरी तरह से राज्य सरकारों द्वारा उठाया जाना है। ऐसे में इस बात की आशंका बढ़ जाती है कि कानूनी प्रावधानों की डर से भले ही निजी स्कूल गरीब बच्चों को अपने यहां दाखिला दे दें, लेकिन क्या वे उनके साथ समानता का व्यवहार करेंगे? इस पर सहज विश्वास नहीं होता है। इसलिए भी कि उनका तंत्र गरीब बच्चों को लेकर संवेदनशील नहीं है। ऐसे में डर यह भी है कि कहीं भेदभाव की वजह से गरीब बच्चों के मन में हताशा का भाव न पैदा हो या वे कहीं डिप्रेशन के शिकार न हो जाएं। निजी हितों से ऊपर उठें निजी स्कूल आज जरूरत इस बात की है कि निजी स्कूलों का प्रबंध तंत्र राष्ट्रीय हित को ध्यान में रखते हुए अपने संकीर्ण विचारों से ऊपर उठे और खुले मन से गरीब बच्चों को अपनाए। यह उनका सामाजिक और राष्ट्रीय उत्तरदायित्व भी है। शिक्षा से वंचित बच्चों को शिक्षित करना सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं का उत्तरदायित्व है और निजी स्कूल प्रबंध तंत्र अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकता है।


शिक्षा अधिकार कानून-2009 की सफलता के लिए राज्य सरकारों को भी सक्रिय होना पड़ेगा। दुर्भाग्य यह है कि इस कानून को लागू हुए दो साल होने जा रहे हैं, किंतु अभी तक कई राज्य सरकारों ने अधिसूचना तक जारी नहीं की है। वह भी तब जब केंद्र सरकार द्वारा आश्वासन दिया जा चुका है कि कानून के अनुपालन में किसी प्रकार धन की कमी नहीं आने दी जाएगी। शिक्षा अधिकार कानून 2009 के मुताबिक राज्य सरकारों को सुनिश्चित करना होगा कि गरीब वर्ग का कोई भी बच्चा किसी भी कारण से प्राथमिक शिक्षा से वंचित न हो। गुणवत्तायुक्त शिक्षा की उपलब्धता सुनिश्चित करना भी उनका काम है। सच तो यह है कि राज्य सरकारों की निष्कि्रयता की वजह से ही आज शिक्षा बदहाल स्थिति में है। पठन-पाठन की दुर्दशा चरम पर है। ढांचागत सुविधाओं का बेहद अभाव है। बच्चों के अनुपात के लिहाज से शिक्षकों की भारी कमी है। अगर उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों की बात करें तो यहां शिक्षकों के लाखों पद खाली हैं, लेकिन वित्तीय समस्याओं के कारण राज्य सरकारें शिक्षकों की भर्ती नहीं कर रही हैं। कक्षाओं की कमी के कारण विद्यालयों को दो-तीन पारियों में चलाना पड़ रहा है। पुराने विद्यालयों के भवन जर्जर हैं। कभी भी दुर्घटना के बड़े कारण बन सकते हैं। आज भी कई गांव ऐसे हैं, जहां दूर-दूर तक स्कूल नहीं हैं।


विद्यालय और आवासीय क्षेत्रों में दूरी के कारण अधिकांश बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि राज्य सरकारें दूरस्थ क्षेत्रों में विद्यालय खोलें और उचित परिवहन साधनों का इंतजाम करें। यह कम विडंबना नहीं है कि जहां निजी विद्यालयों में वातानुकूलित कक्ष, सुसज्जित पुस्तकालय, व्यायामशाला, प्रयोगशाला, स्वच्छ पानी, शौचालय, खेल के मैदान आदि उपलब्ध हैं, वहीं सरकारी विद्यालयों के पास इन सुविधाओं का अभाव है। सरकार की मिड डे मील योजना से स्कूलों में छात्रों की संख्या तो बढ़ी है, लेकिन पढ़ाई-लिखाई का कार्य प्रभावित हो रहा है। ऐसी स्थिति में बदलाव लाने के लिए शिक्षा अधिकार कानून को ईमानदारी से लागू करना होगा।


लेखक अभिजीत मोहन स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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