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जिन्होंने डायर पर दागी थीं गोलियां

जागरण मेहमान कोना
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आज भारत भ्रष्टाचार की बेडि़यों में जकड़ा कराह रहा है। बहुत हद तक हमारी इच्छाशक्ति कमजोर हो चली है कि जहां हम भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म करने में नाकाम हो रहे हैं, वहीं इसमें लिप्त अफसर और नेता देश और देश की जनता के साथ ऐसा अपराध करने में कोई गुरेज नहीं करते। ऐसे में देश के लिए अपनी जान गंवा देने वाले शहीद उधम सिंह जैसे महान क्रांतिकारियों को याद करने की आवश्यकता है, जिन्होंने देश के हित के अलावा अपने जीवन में किसी दूसरी चीज को तरजीह नहीं दी। लेकिन आज हम उसी आजादी का संसद से लेकर सड़क तक मजाक बनता हुआ देख रहे हैं। आज यानी 26 दिसंबर को महान क्रांतिकारी शहीद उधम सिंह का जन्मदिन है, लेकिन हैरत की बात है कि इनके बलिदान की बहुत से लोगों को जानकारी तक नहीं है। 26 दिसंबर 1899 में संगरूर जिले के सुनाम गांव में जन्मे शहीद उधम सिंह को जलियांवाला बाग नरसंहार का बदला लेने स्वरूप जनरल डायर को मार देने के लिए याद किया जाता है।


शहीद उधम सिंह जलियांवाला बाग नरसंहार के प्रत्यक्षदर्शी थे। 13 अप्रैल 1919 को रोलट एक्ट के विरोध में अमृतसर में एक जनसभा का आयोजन किया गया था, उसी में उधम सिंह लोगों को पानी पिलाने का कार्य कर रहे थे। अचानक जनरल माइकल ओ डायर डायर ने पूरे बाग को घेरकर लोगों पर अंधाधुंध फायरिंग का हुक्म दे दिया। अपनी आंखों के सामने सैकड़ों की संख्या में बेकसूर लोगों की जान जाते देख उधम सिंह ने जनरल डायर से बदला लेने की ठान ली। अपने मिशन को अंजाम देने के लिए उधम सिंह ने विभिन्न नामों से अफ्रीका, ब्राजील और अमेरिका की यात्रा की। वर्ष 1934 में उधम सिंह लंदन पहुंचे और वहां 9, एल्डर स्ट्रीट कमर्शियल रोड पर रहने लगे। वहां उन्होंने यात्रा के उद्देश्य से एक कार खरीदी और साथ में अपना मिशन पूरा करने के लिए छह गोलियों वाली एक रिवॉल्वर भी खरीद ली। भारत का यह वीर क्रांतिकारी डायर को ठिकाने लगाने के लिए उचित वक्त का इंतजार करने लगा। उधम सिंह को अपने सैकड़ों भाई-बहनों की मौत का बदला लेने का मौका 1940 में मिला।


जलियांवाला बाग हत्याकांड के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लंदन के कॉक्सटन हाल में बैठक थी, जहां डायर भी वक्ताओं में से एक था। उधम सिंह उस दिन समय से ही बैठक स्थल पर पहुंच गए। अपनी रिवॉल्वर उन्होंने एक मोटी किताब में छिपा ली। इसके लिए उन्होंने किताब के पृष्ठों को रिवॉल्वर के आकार में उस तरह से काट लिया था, जिससे डायर की जान लेने वाला हथियार आसानी से छिपाया जा सके। बैठक के बाद दीवार के पीछे से मोर्चा संभालते हुए उधम सिंह ने डायर पर गोलियां दाग दीं। दो गोलियां डायर को लगीं, जिससे उसकी तत्काल मौत हो गई। गौर करने वाली बात यह भी है कि जनरल डायर गोलियां मारने के बाद उधम सिंह भागे नहीं, बल्कि खुद को गिरफ्तार करवाया। गिरफ्तारी के बाद उन्होंने कहा था, मेरी उससे (जनरल डायर से) शत्रुता थी, इसलिए मैंने उसे मारा। वह इसी लायक था। मैंने ऐसा किसी संस्था या किसी अन्य के कहने पर नहीं किया, बल्कि यह मेरा अपना फैसला था। बहरहाल, उधम सिंह पर मुकदमा चला और 31 जुलाई 1940 को उन्हें हत्या का दोषी ठहराकर पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई। शहीद उधम सिंह के जीवन पर अगर हम नजर डालें तो वह भी बहुत कठिनाइयों भरा रहा। उधम सिंह ने सात साल की उम्र के होने से पहले ही अपने माता-पिता दोनों को खो दिया था। उनकी और उनके भाई की परवरिश अमृतसर के एक यतीमखाने में हुई। उधम सिंह के बचपन का नाम शेर सिंह था। अनाथालय में उनका नाम उधम सिंह हो गया।


वर्ष 1917 में उधम सिंह के भाई का भी स्वर्गवास हो गया और 1919 में उधम सिंह क्रांतिकारियों के संपर्क में आए और उन्हीं के साथ हो लिए। वह सरदार भगत सिंह से बहुत प्रभावित थे। जाहिर तौर पर ऐसे वीर क्रांतिकारी पुरुष को जीवन में तो कठिनाइयों और दुखों का सामना करना पड़ा ही, लेकिन हार न मानते हुए उन्होंने अपना जीवन देश के लिए समर्पित कर दिया। अगर आज की स्थिति से इन सभी वीर गाथाओं की तुलना की जाए तो खुद पर ही शर्मिदगी महसूस होने लगती है, क्योंकि जिस भारत का सपना देखकर इन महान वीरों ने अपनी जान दी थी, वह भारत तो दूर-दूर तक नजर नहीं आता। शहीद भगत सिंह ने भी कहा था कि आजादी लाने का हमारा मकसद यह कतई नहीं है कि भारत का शासन अंग्रेजों के हाथ से निकल कर चंद भारतीयों के हाथ में आ जाए, बल्कि देश को अन्याय, गरीबी जैसी तमाम बेडि़यों से मुक्त करवाना ही हमारा अंतिम लक्ष्य है। उधम सिंह ने उसी आजादी का सपना देखा और उसी की खातिर फांसी के फंदे को भी चूम लिया, लेकिन क्या हमने कभी उन सपनों को साकार करने में रत्ती भर भी योगदान दिया? योगदान देना तो दूर, हमने तो कभी उनके इस सपने को समझने की जरूरत भी नहीं समझी। जान देना और शारीरिक ताकत रखना तो दूर की बात है, आज के बहुत से युवाओं के जिम जाने का मकसद भी शारीरिक रूप से मजबूत होना नहीं, बल्कि अच्छा दिखना भर होता है।


कामयाब होने के नाम पर खूब पैसा कमाना होता है। इसी तरह आज की ज्यादातर लड़कियों भी जिम इसलिए नहीं जातीं, बल्कि बल्कि उनका मकसद संदर काया पाना भर होता है। दरअसल, इसमें इनका भी कसूर नहीं है, क्योंकि हमने कभी इनके सामने महापुरुषों के आदर्शो को ठीक ढंग से रखा ही नहीं। बल्कि आगे बढ़ने के लिए कक्षा में पढ़ाए गए सबक को जिंदगी में लागू करना सिखाने के बजाय हमने बच्चों को हमेशा प्रथम आने पर जोर दिया। हमें हमारे अपने बच्चे के अलावा औरों का बच्चा अच्छा ही नहीं लगा। उसे जिंदगी के उतार-चढ़ाव कभी देखने नहीं दिए। बस, सब कुछ वहीं का वहीं लाकर दे दिया। यहां एक उदाहरण शहीद भगत सिंह की मां का लेना होगा, जिन्होंने अपने बेटे को हिम्मत दी और साहस दिया कि वह नेकी के रास्ते पर चले और अपने लिए न सही, औरों के लिए जिए। दुर्भाग्य से आज ऐसा जिगर बहुत ही कम अभिभावकों का रह गया है। यहां बात किसी के बेटे या बेटी की कुर्बानी देने की नहीं, बल्कि उनमें देशप्रेम और अच्छे संस्कार देने की है। शायद इसीलिए आज इन सभी वीर क्रांतिकारियों के मूल्य खत्म होते जा रहे हैं। एक भारतीय होने के नाते हमारा यह फर्ज बनता है कि हम जितना अपनी जिंदगी की जरूरतों से वास्ता रखते हैं, उतना ही इन शहीदों के जीवन से भी रखें। आज अगर हम अपनी मर्जी की जिंदगी जी रहे हैं तो यह इन अमर शहीदों की देन है। वास्तव में इन महापुरुषों के जीवन मूल्यों को समझते हुए हमें एक नए भारत का निर्माण करना होगा। अब यह हमारे हाथ में है कि हम उनकी दी हुई इस आजादी को बनाए रखें और आने वाली पीढ़ी को भी उनका संदेश पहुंचाएं। शहीद उधम सिंह के जन्मदिवस पर उन्हें शत-शत नमन।


लेखिका आशिमा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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