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गिरावट का निम्नतम बिंदु

जागरण मेहमान कोना
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Jasvir Singhनोट के बदले वोट मामले में लीपापोती की कोशिश को राजनीति में नैतिकता के पतन का प्रमाण मान रहे हैं जसवीर सिंह


नोट के बदले वोट कांड उस निम्न स्तर का संकेतक है जहां तक एक बड़ी संख्या में हमारे राजनीतिज्ञ और राजनीतिक दल पहुंच चुके हैं। इस मामले ने न केवल यह उजागर किया है कि राजनीति में नैतिकता का स्तर कितना गिर चुका है और सत्ताधारी दल तथा उसके अन्य सहयोगियों की ओर से कैसा राजनीतिक अवसरवाद प्रदर्शित किया जाता है, बल्कि इसने हमारे देश के संसदीय लोकतंत्र की गरिमा और पवित्रता को भी अपमानित किया है। 22 जुलाई 2008 को लोकसभा में विश्वासमत प्रस्ताव के दौरान जिस तरह नोटों की गड्डियां लहराई गईं उससे पूरा देश स्तब्ध रह गया। यह कोई रची गई सनसनीखेज कहानी नहीं थी और न ही यह संसद के कुछ सदस्यों का प्रचार पाने का हथकंडा था, बल्कि विश्वास प्रस्ताव पर मतदान के कुछ दिन पहले ही भाकपा नेता एबी ब‌र्द्धन ने यह दावा कर घटनाक्रम का संकेत दे दिया था कि सांसदों को सरकार के पक्ष में मतदान करने के लिए 25 करोड़ रुपये दिए जा रहे हैं। सपा प्रमुख और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने भी यह दावा किया कि बिल्डरों के एक समूह की ओर से उनके एक सांसद को बसपा में शामिल होने के लिए 30 करोड़ रुपये की रिश्वत की पेशकश की गई है। हरियाणा से कांग्रेस के बागी सांसदों में से एक ने दावा किया कि उन्हें सौ करोड़ रुपये की पेशकश की गई है।


वोट के बदले नोट मामले में सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि सच को दफन करने की हरसंभव कोशिश की जा रही है। इस मामले में जिस तरह जल्दबाजी में और एक प्रकार से पक्षपातपूर्ण आरोपपत्र पेश किया गया है वह न केवल शर्मनाक है, बल्कि इससे एक बार फिर यह स्पष्ट होता है कि देश में ऐसी कोई जांच एजेंसी नहीं है जिस पर सच को सामने लाने का भरोसा किया जा सके-विशेषकर तब जब मामले में रसूखदार लोग शामिल हों। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि प्रथम दृष्ट्या यह रिश्वतखोरी का मामला है, जिसमें एफआइआर दर्ज किए जाने का पर्याप्त आधार है। कोई भी जांच एजेंसी इस मामले में सही तरह की जांच-पड़ताल के बाद ऐसा ही करती। सच तो यह है कि इस मामले में जांच के लिए किसी संसदीय समिति की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि ऐसी कोई समिति जांच एजेंसी के रूप में काम नहीं कर सकती। किसी भी आपराधिक मामले में सबूतों को एकत्र करना सबसे अधिक महत्वपूर्ण होता है, लेकिन विडंबना यह है कि इस मामले में बहुत अधिक देरी के बाद 27 जनवरी 2009 को एफआइआर दर्ज की जा सकी। पूरे देश को यह कहकर एक प्रकार से धोखा दिया गया कि किसी भी दोषी को बख्शा नहीं जाएगा, जबकि हकीकत यह है कि मामले को दबाने और सबूतों को नष्ट करने के लिए व्यापक अभियान चलाया जा रहा था। यह सिलसिला तब तक खामोशी से चलता रहा जब तक एक गैर-राजनीतिक फोरम इंडिया रिजुवेनेशन इनिशिएटिव यह मामला उच्चतम न्यायालय तक नहीं ले गया। उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली पुलिस को जमकर फटकार लगाई। हैरत की बात है कि कानून ने इस शर्मनाक घटना के तीन साल बाद तक अपना काम नहीं किया।


इससे भी अधिक आघातकारी यह है कि संसदीय समिति ने अपनी जो रपट सौंपी उससे यह संकेत मिला कि कुछ ऊंचे राजनीतिक लोगों को बचाने की कोशिश की गई। इनमें से कुछ को समिति के सामने पेश होने के लिए नहीं बुलाया गया। रिपोर्ट के साथ नत्थी असहमति वाले नोट में साफ तौर पर अमर सिंह और कुछ अन्य लोगों के नामों का उल्लेख है जिन्हें समिति के कुछ सदस्यों ने बचाने की कोशिश की। इससे साफ हो जाता है कि समिति कुल मिलाकर मामले को रफा-दफा करने के लिए बनाई गई थी। वीके मल्होत्रा ने जो असहमति का नोट दिया उससे साफ है कि कुछ सदस्य अमर सिंह और अहमद पटेल जैसे बड़े नामों से पूछताछ के अनिच्छुक थे।


किसी भी आपराधिक मामले में जांच के प्रारंभिक चरण पूरी पड़ताल के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण होते हैं। इसके तहत फोन काल की डिटेल एकत्रित करने, बैंकों से लेन-देन के विवरण जुटाने जैसे काम किए जाते हैं, लेकिन इस मामले में ये महत्वपूर्ण चरण जानबूझकर गंवाए गए। ऐसे मामलों में जांच बिना एक क्षण की देरी लगाए शुरू हो जानी चाहिए, क्योंकि ऐसा न करने से सबूत नष्ट कर दिए जाने का खतरा रहता है। इस मामले को जिस तरह बिना किसी विशेषज्ञता वाली संसदीय समिति के हवाले किया गया उस पर सवाल उठना स्वाभाविक है।


नोट के बदले वोट मामले में तीन साल की देरी के बावजूद दिल्ली पुलिस इस बारे में सुनिश्चित नहीं है कि यह पूरा मामला रिश्वतखोरी का है या नहीं? उच्चतम न्यायालय में बार-बार सवाल उठने के बावजूद पुलिस धन के स्नोत और उसके रास्ते को लेकर संतोषजनक जवाब नहीं दे सकी है। दिल्ली पुलिस का आरोपपत्र कुल मिलाकर भ्रामक और कुछ लोगों को बचाने वाला नजर आता है। दिल्ली पुलिस के आरोपपत्र के अनुसार अमर सिंह ने रिश्वत का धन संजीव सक्सेना के माध्यम से भाजपा सांसदों को उपलब्ध कराया। रिश्वतखोरी का खुलासा करने वालों और पैसा उपलब्ध कराने वाले व्यक्ति को एक साथ कैसे आरोपित किया जा सकता है? इसी प्रकार आरोपपत्र इस बारे में भी मौन है कि इस रिश्वतखोरी से अंतत: किसे लाभ हुआ? आश्चर्यजनक है कि कुछ अभियुक्तों के बयानों के आधार पर अन्य लोगों पर दोष डाला गया है। ऐसा तब तक नहीं किया जा सकता जब तक पुलिस उन्हें सरकारी गवाह न बनाए और इसकी एक निश्चित कानूनी प्रक्रिया है। पूरी संभावना है कि दिल्ली पुलिस द्वारा तैयार किया गया यह आरोपपत्र ट्रायल के दौरान टिक नहीं सकेगा। साफ है कि आरोपपत्र किसी को सजा दिलाने के बजाय अभियुक्तों को बचाने के मकसद से तैयार किया गया है।


यह भी विचित्र है कि तीन साल से अधिक समय तक खामोश रहने के बाद विपक्ष के एक बड़े नेता अचानक उठकर यह कहते हैं कि उन्होंने रिश्वतखोरी को उजागर करने के लिए स्टिंग आपरेशन को मंजूरी दी थी। उनका यह कथन साबित करता है कि उन्हें विधि के शासन पर भरोसा नहीं है। ऐसा लगता है कि उनका यह बयान राजनीति से प्रेरित है और इसके जरिए वह न केवल करीबी लोगों को बचाना चाहते हैं, बल्कि राजनीतिक लाभ भी लेना चाहते हैं। इससे यही पता चलता है कि ज्यादातर मामलों में किस तरह राष्ट्रीय हितों का बलिदान कर दिया जाता है।?


लेखक जसवीर सिंह आइपीएस अधिकारी हैं और ये उनके निजी विचार हैं


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