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Indian Politics: आप की राजनीति

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
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2011 में अन्ना आंदोलन के उफान के वक्त हमसे अक्सर सवाल पूछा जाता था कि आप इस भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के इतना खिलाफ क्यों हैं, जो चोर नेताओं को जेल में डाल देगा? ट्विटर सरीखी जगहों पर सीधे शब्दों में कहा जाता था-इस आंदोलन पर सवाल उठाने वाले भ्रष्टाचार समर्थक हैं। अन्ना आंदोलन के खिलाफ अपनी दलीलों पर फिर से निगाह डालने का यह सही समय है। पहली, यह सही है कि भ्रष्टाचार एक भयावह समस्या है, पर इसका समाधान सर्वशक्तिशाली लोकपाल और पुलिस राज के गठन में नहीं है, जो किसी के प्रति जवाबदेह न हो। जनलोकपाल बिल अपने मूल स्वरूप में असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक था और इस तरह कभी पारित नहीं हो सकता था। भ्रष्टाचार का सही हल शासन में सुधार लागू करना और आम लोगों व सरकार के बीच दूरी कम करना है। दूसरा कारण यह है कि अन्ना आंदोलन अराजनीतिक था यानी उसमें राजनीतिक ऊर्जा नहीं थी। उसका उतार होना ही था, क्योंकि लोकतंत्र में लोकप्रिय आंदोलनों का ईंधन विचारधारा है, आदर्शवाद नहीं। तीसरा, इसमें भारत की समस्याओं के लिए ‘मेरा नेता चोर है’ कहने और इस प्रकार भारतीय राजनीति को खारिज करने की गलत प्रवृत्ति थी। व्यवस्था में बहुत सी गंदगी है, लेकिन आप उसे बाहर रहकर साफ नहीं कर सकते। आपको बड़े लोकतांत्रिक और राजनीतिक तंबू में आना होगा और परंपरागत राजनेताओं को विचारधारा और विचारों के आधार पर मुकाबले के लिए बाध्य करना होगा।


चौथा कारण यह था कि राजनीति कभी सीधे-सीधे काली या सफेद नहीं होती। यह तो सलेटी रंग के विभिन्न शेडों से भी अधिक जटिल है। यह समावेशी, समायोजन करने वाली, समझौतापरक, निर्मम और निर्दयी है। इसलिए अपनी राजनीति का खंडन न करें। मेले में शामिल हो जाएं और गलत लोगों को बाहर करें। दो साल बाद हम अपने पत्रकारीय संतोष के साथ यह कह सकते हैं कि ऐसे हर तर्क सही साबित हुए। जन लोकपाल बिल अब इतिहास बन चुका है। अन्ना का आंदोलन खत्म हो चुका है और जो लोग उनके विराट व्यक्तित्व से जुड़कर चमके थे वे आज उनसे स्कूली बच्चों की तरह झगड़ रहे हैं। अन्ना के बच्चों, जिनमें उनके सबसे चहेते और प्रभावशाली अरविंद केजरीवाल अग्रणी हैं, ने टोपी, नारों और एक चुनाव चिन्ह के साथ राजनीतिक दल का रूप ग्रहण कर लिया है। सबसे खास बात यह है कि उन्हें हमारी राजनीति और शासन की जटिलताओं की अनुभूति भी होने लगी है।

नए मोड़ पर लोकतंत्र


आम आदमी पार्टी के नेता और एक सम्मानित राजनीति विज्ञानी-बुद्धिजीवी योगेंद्र यादव अपने सहयोगियों से घिरे हैं और उनके सामने संवाददाताओं और माइक्रोफोन्स की भीड़ लगी है। आखिर इसमें अस्वाभाविक क्या है? क्या हमारे राजनेता मीडिया से मुखातिब नहीं होते? अंतर यह है कि पहली बार योगेंद्र यादव और उनके साथियों के समक्ष असहज करने वाले सवाल उठ रहे हैं। अपने एक्टिविस्ट वाले दौर में टीवी स्टूडियो के ये सितारे पत्रकारों के सामने जब भी आए तो उन्होंने बाकी देश, खासकर राजनीतिक वर्ग से कड़े सवाल ही पूछे थे। अब खुद उन्हें सफाई देनी पड़ रही है। भारतीय राजनीति में आपका स्वागत है। अन्ना की विरासत के दावेदारों ने यह भी दर्शा दिया है कि उन्हें तेजी से राजनीति की कला सीखनी होगी। वे आरोपों का जवाब आरोपों से दे रहे हैं और खुलासे करने वालों को ही धमका रहे हैं। 1अभी भी उन्हें अच्छा-खासा रास्ता पार करना है। आप उन्हें चाहे जिस नजर से देखेंं, लेकिन उन्होंने पुरानी शैली के राजनेताओं से ही लोकलुभावन राजनीति सीखी है। इसीलिए उनकी ओर से मुफ्त पानी, आधी कीमत पर बिजली जैसी घोषणाएं सुनने को मिलीं। मोहल्ला सभा (मौजूदा आरडब्लूए का एक विस्तारित रूप ही) और नागरिक सुरक्षा बल बनाने की बातें हुईं। उन्होंने रामलीला मैदान में किसी रविवार को उमड़ी कुछ हजार लोगों की भीड़ को स्पष्ट जनादेश मान लिया। अगर हर फैसला सड़क पर ही लिया जाना है तो निर्वाचित विधानसभाओं और संसद की जरूरत ही क्या है? बस एक भीड़ इकट्ठा कीजिए, तुरंत ही कोई फैसला सुना दीजिए और हो गया न्याय।


आप का घोषणापत्र हमें यह नहीं बताता कि मोहल्ला सभा क्या होंगी और इसमें कौन लोग होंगे, लेकिन यदि ये किसी बड़े रूप वाली आरडब्लूए की तरह होंगी तो हम समझ सकते हैं कि इनका स्वरूप क्या होगा? आरडब्लूए भारतीय शहरों में उच्च वर्गीय, अलोकतांत्रिक, असमानता वाली गैर राजनीतिक संस्थाएं होती हैं। परिभाषा के रूप में आरडब्लूए कालोनी के निवासियों (केवल मकान मालिकों) की एक संस्था होती है, जिसमें किराएदार से लेकर गार्ड, घरेलू नौकर से लेकर ड्राइवर, दुकानदारों से लेकर साफ-सफाई करने वाले तक शामिल नहीं किए जाते। ये वे लोग हैं जिनके बिना हमारा काम नहीं चल सकता। मूल अन्ना आंदोलन की अपील उन विशिष्ट लोगों से ही थी जो इस तथ्य की अनदेखी कर रहे हैं कि आपके और आपके घरेलू नौकर के हाथ में जो एक चीज बराबरी वाली है वह है वोट।

देश से क्या कहेंगे मनमोहन


अन्ना का जोर था कि जो लोग सरकारें चुनते हैं उनकी संख्या कहीं अधिक हैं, लेकिन उनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं होती। इसलिए सिस्टम को बदलने की आवश्यकता है। गैर-राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को सत्ता में लाइए और इसके बाद फैसले लेने वाली प्रक्रिया जनता के हाथों में सौंप दीजिए। 1लोकतांत्रिक शासन का तानाबाना इस नजरिये से ठीक उल्टा है। मतदाताओं का बहुमत एक सरकार चुनता है, जो अपने सामने आने वाले हर मुद्दे पर फैसला लेती है-यह सोचकर कि उसके फैसलों का हर पांच वर्ष में हिसाब होगा। एक निर्वाचित सरकार में व्यापक जनहित को देखते हुए फैसले लेने का साहस होना चाहिए-भले ही वे तत्कालीन जनभावना से अलग ही क्यों न हो। अगर आपने संसद अथवा मुंबई पर हुए आतंकी हमलों के बाद पाक के साथ युद्ध छेड़ने के संदर्भ में जनता की राय ली होती तो एक तेज आवाज वाला हां सुनाई देता, लेकिन अटल बिहारी और मनमोहन सिंह ने इससे अलग फैसले लिए। 1फिर भी हमें आम आदमी पार्टी के राजनीति में पदार्पण के कुछ खास बिंदुओं पर गौर करना चाहिए। उन्होंने एक र्ढे वाली राजनीति में कुछ नए चेहरे दिए हैं। उसने दिल्ली के गरीब तबके के बीच अपनी प्रभावशाली पहुंच भी बना ली है। आम आदमी पार्टी की संरचना एक रोचक विचार के रूप में सामने आती है, लेकिन वह जैसे ही राजनीति के संदर्भ में अपने एक खास दृष्टिकोण को अपनाती प्रतीत होती है वैसे ही वह गलत दिशा में मुड़ जाती है। राजनीति को दशकों की नहीं तो वर्षो की कड़ी मेहनत की जरूरत होती है। आप दूसरों के लिए हर समय डेडलाइन ही तय करते नहीं रह सकते। अगर आप पहली बार अपने सामने भीड़ देखकर बहक जाते हैं और किसी को भी अपने मंच पर बोलने की अनुमति दे देते हैं तो आपका परेशानी में पड़ना तय है। केजरीवाल एंड कंपनी को यह सबक तभी सीख जाना चाहिए था जब उन्होंने रामलीला मैदान में ओम पुरी को यह मौका दिया था। आप सेमी-सेलिब्रिटीज के सहारे नई राजनीति को जन्म नहीं दे सकते। शायद इसीलिए एक एमटीवी रोडी के कारण आप की एक प्रमुख उम्मीदवार को शर्मिदगी का सामना करना पड़ा। उसने सुशील कुमार शिंदे के लिए इतनी खराब भाषा का इस्तेमाल किया कि अगर मैं उसे यहां दोहरा दूं तो मुङो जेल की हवा खानी पड़ सकती है। लेकिन शिंदे की प्रतिक्रिया क्या रही? उन्होंने कहा कि मैंने उसकी अनदेखी कर दी है। अब आपके पास भले ही शिंदे के गृहमंत्री के प्रदर्शन के संदर्भ में लाख टके के सवाल हों, लेकिन एक चीज आप इस पुराने-धुरंधर राजनेता से सीख सकते हैं और वह है राजनीति

इस आलेख के लेखक शेखर गुप्ता हैं


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