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जनता के हित का बहाना हमने शासन की वेस्टमिंस्टर पद्धति अपनाई है। इसका अर्थ है शासन की लोकतांत्रिक संसदीय प्रणाली। इस प्रणाली के तहत जननीति या ऐसी कोई भी नीति जिसका जनकल्याण से सीधा संबंध हो, बनाने लिए तीन बातों का ध्यान रखना अनिवार्य होता है-(अ) क्या ऐसी नीति बनाने के लिए विश्वसनीय एवं स्वतंत्र संस्थाएं व पद्धतियां विकसित कर ली गई हैं, (ब) क्या ये संस्थाएं ऐसी हैं जिनके कार्यो, फैसलों या असफलताओं पर मतदाता कभी भी प्रश्नचिन्ह लगा सकता हो? और (स) क्या यह सारी प्रक्रिया इस तरह से विकसित की गई है जिसमें समाज के समझदार तबके की राय को उभारने की अंतर्निष्ठ व्यवस्था है? सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रपति के संदर्भ-पत्र (प्रेसिडेंशियल रिफरेंस) के जवाब में यह बात सरकार के विवेक पर छोड़ दी है कि प्राकृतिक संसाधनों को लेकर वह जननीति बनाए।
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इस बात का भी अनुमोदन किया गया है कि यह सरकार पर निर्भर करता है कि वह इन संसाधनों के दोहन (बेचने) के लिए जो प्रक्रिया चाहे अपना सकती है बशर्ते वह पारदर्शी एवं जनहित में हो। भारत सरकार ने जब 2-जी स्पेक्ट्रम का आवंटन किया तो उसे लेकर एक लंबा विवाद न केवल कैग की रिपोर्ट को लेकर हुआ, बल्कि अदालत ने भी इसका संज्ञान लिया। उस समय से लेकर आज तक प्रधानमंत्री से लेकर अन्य मंत्री कपिल सिब्बल एवं चिदंबरम ने एक ही बात कहनी शुरू की कि सस्ती दरों पर स्पेक्ट्रम इसलिए दिया गया कि देश के लोगों को सस्ती टेलीफोन सुविधा प्राप्त हो सके। उनका दावा है कि आज टेली-डेंसिटी 77 फीसदी है और अगर बिहार के गांव में गरीब की पत्नी भी 1500 मील दूर केरल में बैठे अपने मजदूर पति से बिगड़ती खेती के बारे में बात कर पाती है तो उसका कारण सस्ती काल दरों पर उपलब्ध मोबाइल फोन की सुविधा ही है।
प्रश्न यह है कि क्या जब ये आवंटन सस्ती दरों पर पहले आओ, पहले पाओ के आधार पर किए गए तो जन-चर्चा में यह मुद्दा लाया गया? क्या इस नीति को तमाम विशेषज्ञ संस्थाओं से पारित कराया गया और क्या इस मुद्दे पर संसद में सरकार की तरफ से कोई एलान किया गया? क्या इन आवंटियों से यह हलफनामा लिया गया कि आवंटन के बाद अमुक दर से अधिक दर लेंगे तो आवंटन निरस्त हो जाएगा? क्या इन सारे तथ्यों से संसद और जनता को अवगत कराया गया? नहीं, ऐसा कुछ नहीं हुआ। हकीकत यह है कि आवंटन के कुछ महीने में ही इन आवंटियों ने स्पेक्ट्रम पांच से दस गुने दाम पर अन्य कंपनियों को बेच दिया। जो सस्ती दरें हम देख रहे हैं वह तकनीक का कमाल है, न कि 2-जी स्पेक्ट्रम के आवंटन के कारण। दूसरा उदाहरण लें। कोलगेट यानी कोयला घोटाले में नीलामी का रास्ता छोड़ कर प्रशासनिक आवंटन का रास्ता अपनाया गया। तर्क फिर वही। कोल इंडिया लिमिटेड की मांग पूरी करने में असफलता के कारण यह फैसला लेना पड़ा कि बिजली, इस्पात और सीमेंट उत्पादन में लगे उद्योगों के लिए अपनी जरूरत की बिजली पैदा करने के लिए प्रशासनिक आवंटन का रास्ता अपनाया गया, क्योंकि समय कम था और यह उद्योग बर्बाद हो जाते।
दूसरा तर्कथा कि अगर नीलामी के रास्ते यह आवंटन किए जाते तो सरकार को राजस्व तो मिल जाता, परंतु बिजली, सीमेंट और इस्पात के दामों में जबरदस्त वृद्धि होती, जो जनता पर असहनीय बोझ के रूप में पड़ती। क्या इस्पात, बिजली और सीमेंट सस्ता हुआ? क्या सरकार ने राजस्व की इतनी बड़ी कुर्बानी करने के बाद इन उद्योगों से यह वायदा कराया कि कीमतें नहीं बढ़ेगी? हकीकत तो यह है कि इस्पात, बिजली और सीमेंट के कारण महंगाई में वृद्धि ज्यादा हुई। कैसी नीति थी कि सरकार को राजस्व का नुकसान रहा और जनता को महंगाई झेलनी पड़ी। तीसरा उदाहरण लें। हर साल भारत के बजट में रेवेन्यू फोरगान के कालम में लगभग साढ़े पांच लाख करोड़ रुपये की छूट उद्योगों को एवं धनाढ्यों को दी जाती है और इसका तर्क सरकार यह कहकर देती है कि अगर यह नहीं दिया गया तो उद्योग बैठ जाएंगे या कतिपय उत्पाद बेहद महंगे हो जाएंगे।
तर्क दिखने में एकदम सही और निर्दोष लगता है, पर सत्य यह है कि महंगाई आसमान पर है और कहीं किसी औद्योगिक घराने ने यह नहीं कहा कि चूंकि सरकार तमाम तरह की करों में छूट देती है लिहाजा हम उत्पाद की दर नहीं बढ़ाएंगे। प्रजातंत्र में इतने सारे जननीति के फैसले कैसे कोई सरकार बिना जनधरातल पर या संसद में चर्चा कराए ले सकती है? क्या यह जननीति बनाने की स्थापित प्रक्रिया के मूल सिद्धांतों की अनदेखी नहीं है? यह बात बिल्कुल दुरुस्त है कि प्रजातांत्रिक रूप से चुनी सरकारों को जननीति बनाने का पूरा अधिकार होता है, लेकिन इन नीतियों को बनाने की कुछ सर्वमान्य प्रक्रिया है। दूसरे, अगर जनादेश खंडित है और कई दलों ने मिलकर सरकार बनाई है तो ऐसे में यह और जरूरी होता है कि ऐसी नीतियां बनाने में ज्यादा से ज्यादा पारदर्शिता और जनभागीदारी सुनिश्चित किया जाए। सर्वोच्च न्यायालय ने यह छूट तो दे दी है कि प्राकृतिक संसाधनों के बेचे जाने के बारे में नीति सरकार बनाए, परंतु अगर इसका यह तात्पर्य निकाला गया कि अब कोई संचेती, कोई जायसवाल सरकार में बैठे मंत्रियों के जरिये जब चाहे राष्ट्रीय संपत्तियों का गैरकानूनी दोहन कर लेगा तो शायद न्यायालय की राय का अपमान होगा।
अगर जननीति यह है कि सस्ती दरों पर कोयला देकर सीमेंट, इस्पात और बिजली की दरों को न बढ़ने दिया जाए तो इस नीति को व्यापक जनविमर्श की प्रक्रिया से गुजारा जाए और मान्य संस्थाओं से इस नीति की सार्थकता का अनुमोदन कराने के बाद संसद के सामने लाया जाए। अगर ऐसा नहीं किया गया तो राजा पैदा होते रहेंगे, जनाक्रोश उभरता रहेगा और संभव है कि अगली बार सर्वोच्च न्यायालय इतना उदार न हो।
लेखक एनके सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं
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