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रेल बजट में परियोजनाओं के वित्त पोषण की जिम्मेदारी वित्त मंत्रालय पर डालने को अनुचित बता रहे हैं वीके अग्रवाल
देश की तरक्की का आधार कहा जाने वाला रेलवे नाजुक दौर से गुजर रहा है। आज रेलवे की सबसे बड़ी चुनौती सुरक्षा, संरक्षा और यात्री सुविधाओं को बढ़ाने के साथ-साथ विश्वस्तरीय रेल सेवा देने के लिए आधुनिकीकरण की दिशा में कदम बढ़ाने की है, लेकिन इसके लिए जरूरी धन व मदद कहां से मिलेगी, इस बारे में उम्मीद बहुत सकारात्मक नहीं है। जहां तमाम क्षेत्रों में हमने विकास के नए आयाम छुए हैं वहीं रेलवे के विकास के मामले में वह हासिल नहीं किया जा सका है जिसकी अपेक्षा थी। देश के कई हिस्से अभी तक रेल नेटवर्क के दायरे से बाहर हैं तो दूसरी ओर कुछ खास रूटों पर ट्रेनों की आवाजाही का दबाव अधिक होने से दुर्घटनाएं बढ़ी हैं। रेल बजट में इसके लिए जरूरी उपायों की ओर शायद ही ध्यान दिया गया, लेकिन एक अच्छी बात यह है कि रेलमंत्री ने नई रेल लाइनों के विस्तार हेतु अब वित्तीय खर्च सीमा बढ़ाए जाने की बात कही है। अब 400-500 किमी प्रतिवर्ष की बजाय 900 किमी से ज्यादा नई रेललाइनें बिछाई जाएंगी। यह एक अच्छा कदम है, क्योंकि इससे राजस्व का नया स्रोत पैदा होगा और रेलवे की वित्तीय हालत को सुधारने में मदद मिलेगी। यदि मालढुलाई में रेलवे की हिस्सेदारी को देखें तो 1950-51 में जहां यह 30 प्रतिशत थी वहीं आज बढ़कर 89 प्रतिशत पहुंच गई है। इसी तरह रेलयात्रियों का प्रतिशत 9 से बढ़कर 15 हो गया है, लेकिन प्रश्न है कि क्या यह पर्याप्त है? यदि नहीं तो इसके पीछे प्रमुख वजहें क्या हैं और क्या रेल बजट इस पैमाने पर खरा उतरता है। ऐसे बहुत से प्रश्न हैं जिनका उत्तर बजट से नहीं मिलता।
बजट में लंबे-चौड़े वादे और लोकलुभावन दीर्घकालिक नीतियों की घोषणा तो की गई है, लेकिन इन नीतियों पर अमल कैसे होगा और इनके लिए पैसा कहां से आएगा, इसकी कोई सुस्पष्ट और व्यावहारिक रूपरेखा पेश नहीं की गई। फिलहाल इसे सरकारी मदद पर यानी वित्त मंत्रालय पर छोड़ दिया गया है। यहां यदि हम यात्री रेल किरायों की ही बात करें तो इससे रेलवे को लगभग 36 हजार करोड़ रुपये की आय दिखाई गई है, लेकिन पिछले 8-9 वर्षो से रेल किरायों में कोई वृद्धि नहीं की गई जिससे रेलवे की आमदनी घटी है। अब रेलमंत्री ने यात्री किरायों में वृद्धि की घोषणा की है, लेकिन जिस तरह महंगाई बढ़ी है उसे देखते हुए यह नाकाफी है। पूर्व के वर्षो में किराया न बढ़ाने से रेलवे को जो नुकसान हुआ है उसकी क्षतिपूर्ति इससे नहीं होने वाली, क्योंकि नुकसान 40-50 प्रतिशत का है और क्षतिपूर्ति तकरीबन 10 प्रतिशत की। इस दृष्टि से लगभग 15 हजार करोड़ रुपये प्रतिवर्ष रेलवे को नुकसान हो रहा है।
रेल बजट पर आम लोगों की प्रतिक्रिया यही है कि किराया बढ़ने के साथ यात्री सुविधाओं में भी सुधार होना चाहिए। रेलमंत्री ने बजट में रेलवे को कुछ मामलों में विश्वस्तरीय बनाने की बात कही है और एयरपोर्ट की तर्ज पर करीब सौ स्टेशन विकसित किए जाने की घोषणा की है। यह एक अच्छा कदम है। हमें रेलवे के आंतरिक स्रोतों को भी मजबूत बनाना होगा, क्योंकि इन कामों में सरकार से बहुत मदद की अपेक्षा नहीं की जा सकती। इसके अलावा रेलवे निजी क्षेत्रों से भी कोई खास मदद की अपेक्षा नहीं कर सकता, क्योंकि ऐसी परियोजनाओं में काफी वक्त और धन की आवश्यकता होती है। इसका एक कारण राजनीतिक अस्थिरता के कारण सुस्पष्ट नीतियों का अभाव भी है। एक अच्छी बात यह हुई कि अब अलग इंडियन रेल अथॉरिटी का गठन होगा जो रेलवे की परियोजनाओं को जांचेगा। इससे रेलवे की परियोजनाओं को समय पर अमलीजामा पहनाने में मदद मिलेगी। अभी तक होता यही रहा है कि हर वर्ष नई-नई योजनाओं-परियोजनाओं की घोषणा कर दी जाती है और उन के क्रियान्वयन पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता।
नई संस्था के गठन से ऐसा नहीं होगा और जनता में विश्वास जगेगा। जहां तक रेलवे के आधुनिकीकरण की बात है तो रेलमंत्री ने सैम पित्रोदा और अनिल काकोदकर द्वारा दी गई रिपोर्ट को गंभीरता से लिया है और इसके लिए अगले पांच वर्षो में पांच लाख करोड़ रुपये खर्च करने की बात कही है। साथ ही एक लाख बीस हजार करोड़ रुपये सुरक्षा मानकों को बेहतर बनाने पर खर्च किए जाने हैं। मेरा मानना है कि यह एक महत्वाकांक्षी योजना है जिसके लिए सरकार को रेलवे की मदद करनी चाहिए। यदि इस पर अमल होता है तो रेलवे में दुर्घटनाएं घटेंगी और लोगों का विश्वास बढ़ेगा। इससे रेलयात्रा करने वाले लोगों की संख्या भी बढ़ेगी जिससे अंतत: रेलवे के राजस्व में बढ़ोतरी होगी। रेलवे की एक मुख्य समस्या रेल नेटवर्क के विस्तार की है। रेल और सड़क नेटवर्क को मिला दें तो इससे 95 प्रतिशत यात्री और माल की ढुलाई होती है।
सड़क की बनिस्बत रेल के लिए कम जमीन की आवश्यकता होती है और यह पर्यावरण की दृष्टि से भी बेहतर है। रोड हाईवे में जहां 600 प्रतिशत की वृद्धि हुई है वहीं रेल के मामले में यह 175 प्रतिशत ही है। 1960-61 के बाद नई रेल लाइन का विकास 19 प्रतिशत रहा है। जाहिर है कि रेल नेटवर्क बढ़ाने पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया है। हमारी रेललाइनों पर अधिक स्पीड से ट्रेन चलाने का मतलब दुर्घटना को आमंत्रण देना है, लेकिन इन्हें ठीक करने की बजाय हमारा ध्यान बुलेट ट्रेनें चलाने पर है। इसी तरह दिसंबर, 2009 में विजन 2020 बनाया गया था। इसके लिए अगले दस वर्षो में 14 लाख करोड़ रुपये खर्च किए जाने की बात कही गई थी यानी इस पर प्रतिवर्ष 1.4 लाख करोड़ रुपये खर्च होने थे। यह योजना सिद्धांत में तो अच्छी है, लेकिन व्यावहारिक स्थिति यह है कि रेलवे की प्रतिवर्ष केवल एक लाख करोड़ रुपये की आय है, जिस कारण इस पर अमल संभव नहीं लगता। कुछ ऐसा ही हाल इस बार के बजट का है जिसमें बातें तो बड़ी अच्छी-अच्छी की गई हैं, लेकिन इसके लिए धन जुटाने की जिम्मेदारी वित्त मंत्रालय पर डाल दी गई है। इस कारण इन योजनाओं का हश्र क्या होगा कोई नहीं जानता। यदि इन पर अमल होता है तो रेलवे का कायापलट संभव है, लेकिन यह सब कुछ भविष्य के गर्भ में है। रेल बजट की एक अच्छी बात यह है कि रेलमंत्री ने वस्तुस्थिति सामने रख दी और सच्चाई को स्वीकार करते हुए सब कुछ वित्त मंत्रालय पर छोड़ दिया, लेकिन निराशाजनक यह है कि पहले की तरह फिर नए-नए वादे और घोषणाएं हैं जिनके अमल की कोई गारंटी नहीं।
लेखक वीके अग्रवाल रेलवे बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष हैं
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