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पटरी पर कैसे लौटे भारतीय रेलवे

जागरण मेहमान कोना
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Ashwani Mahajanपिछले दिनों रेल मंत्रालय द्वारा केंद्र सरकार से 2100 करोड़ रुपये की ऋण की मांग देश के लोगों को कुछ अटपटी लगी। दरअसल, पिछले लगभग एक दशक से भी अधिक समय से रेलवे भरपूर आमदनी करता आ रहा है और साथ ही साथ केंद्र सरकार को भी खासी रकम लाभांश के रूप में देता रहा है। माना जा रहा है कि वित्तीय संकट के चलते ही रेलवे अपनी चालू परियोजनाओं को पूरा नहीं कर पा रहा है। वित्त मंत्रालय से 2100 करोड़ रूपये का ऋण मांगने के अतिरिक्त रेलवे वित्त निगम लिमिटेड द्वारा 10 हजार करोड़ रुपये के बांड भी जारी करने की घोषणा 2011-12 के रेल बजट में की गई थी। हालांकि भारतीय रेलवे किसी भी अन्य प्रकार के परिवहन से ज्यादा सस्ता साधन है फिर भी भारतीय रेलवे कभी इस तरह के भारी घाटे में नहीं रही। पिछले लगभग एक दशक से भी अधिक समय से भारतीय रेलवे एक लाभकारी उपक्रम के रूप में उभरा है और इससे सरकारी राजस्व को भारी लाभ हुआ, लेकिन वर्ष 2010-11 में रेलवे की वित्तीय व्यवस्था काफी खराब हो गई और रेलवे का घाटा असहनीय हो गया।


वर्ष 2007-2008 में रेलवे के पास 19,000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त लाभ कोष था, जिसका बहुत बड़ा हिस्सा मई 2010 तक समाप्त हो गया और रेलवे के पास मात्र 5,000 करोड़ रुपये का ही अधिकोष बचा। अप्रैल से दिसंबर 2010 के दौरान रेलवे के वित्तीय परिणाम उत्साहजनक नहीं थे और यह माना जाता है कि वर्ष 2010-11 का राजस्व लक्ष्य भी प्राप्त नहीं हो सका। इससे स्पष्ट है कि रेलवे का वित्तीय स्वास्थ्य फिलहाल बहुत अच्छा नहीं है और सितंबर माह आते-आते नकद अधिकोष मात्र 75 लाख रुपये ही बचा। रेलवे के स्वास्थ्य का एक और संकेत परिचालन अनुपात होता है। परिचालन अनुपात से अभिप्राय है कि रेलवे को 100 रुपये कमाने के लिए कितना व्यय करना पड़ता है। 2008-09 में यह अनुपात 90.5 था जो बढ़कर 2009-10 में 94.7 हो गया। वर्ष 2010-11 की पहली छमाही में यह बढ़कर 125 तक पहुंच गया। परिचालन अनुपात का बढ़ना चिंता की एक बड़ी वजह है। परिचालन अनुपात इसलिए बढ़ रहा है, क्योंकि एक ओर तो लागत बढ़ रही है और दूसरी ओर पिछले तीन वर्षो से भाड़े में कोई वृद्धि नहीं हुई है। वर्ष 2007-08 में रेलवे की परिचालन लागत मात्र 41033 करोड़ रुपये थी, जो 2011-12 में (बजट अनुमान) 73650 करोड़ रुपये पहुंच गई। इस समय अवधि में मात्र पेंशन पर ही खर्च लगभग 8000 करोड़ रुपये से 16 हजार करोड़ रुपये तक पहुंच गया।


हम देखते हैं कि पिछले एक दशक में यह लागत दोगुनी से भी अधिक हो चुकी है। रेल मंत्रियों ने माल भाड़े और यात्री किराए में आनुपातिक रूप से वृद्धि न करने की ठान रखी है और ऐसे करके वह स्वयं की प्रशंसा पाने का प्रयास भी करते हैं। पिछले तीन वर्षो में इस वजह से परिचालन अनुपात 90.5 से 125 तक पहुंच गया है, क्योंकि ईधन लागत और विशेषतौर पर छठा वेतन आयोग लागू होने के बाद वेतन और दूसरे प्रकार के खर्चो में लगातार वृद्धि हुई है। अपनी रोजमर्रा की जरूरतों को भी पूरा न कर सकने की स्थिति के कारण रेल आधुनिकीकरण की तमाम योजनाएं कागजों तक सिमटकर रह गई हैं। मात्र दिल्ली डिवीजन के ही रेलवे स्टेशनों के आधुनिकीकरण के लिए जरूरी 240 करोड़ रुपये की योजना धन की कमी के कारण अमल में आने से वंचित है। देश में लगभग 7000 रेलवे स्टेशनों की हालत में सुधार की तत्काल बड़ी आवश्यकता है। रेलवे भारत सरकार का एक विभागीय वाणिज्यिक उपक्रम है। इसी प्रकार से पेट्रोलियम कंपनियां भी सार्वजनिक क्षेत्र की उपक्रम हैं। पिछले लगभग 15 महीनों से पेट्रोलियम कंपनियों को अपने उत्पादों की कीमत स्वयं निर्धारित करने की छूट दी गई है, ताकि वे अपने घाटे को पाट सकें। इस नीति की घोषणा होने के बाद पेट्रोलियम कंपनियों ने 10 से भी अधिक बार पेट्रोलियम उत्पादो की कीमतों में वृद्धि की है। पेट्रोलियम उत्पादों के कीमतों को बाजार की मांग व आपूर्ति के हिसाब से नियंत्रणमुक्त करने के पक्ष में यह तर्क दिया गया था कि नियंत्रित कीमतों के कारण इन कंपनियों का घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है। रेलवे का विकास देश के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। यही नहीं कि भारतीय रेल प्रतिदिन 180 लाख यात्रियों को रोज ढोती है और हर वर्ष 1739 लाख टन सामान की ढुलाई इसके द्वारा होती है।


भारतीय रेल परिवहन लागत को कम करने के लिए बहुत महत्वपूर्ण साधन है। रेलवे का माल भाड़ा सड़क के माल भाड़े से मात्र एक तिहाई ही पड़ता है। लंबी दूरी की यात्रा में तो रेलवे का कोई विकल्प ही नही है। कम दूरी की यात्रा में भी रेल किराए बस की यात्रा किराए से आधा होते हैं। रेलवे का विकास देश के परिवहन के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है। रेलवे के विकास के लिए उसके वित्तीय स्वास्थ्य को ठीक रखना बहुत जरूरी है। इसके लिए हमें इसके माल भाड़े और यात्री किराए को तर्कसंगत बनाने की आवश्यकता है। इस निर्णय में विलंब रेलवे के विकास को बाधित कर रहा है। आज रेलवे को नई लाइनें बिछाने, नए इंजन और कोच कारखानों को खोलने और अन्य प्रकार के बुनियादी ढ़ांचों के लिए तत्काल प्रयास करने की जरूरत है। लगातार बढ़ती लागतों के बावजूद रेल बजट 2011-12 में रेलमंत्री द्वारा रेल भाड़ों को न बढ़ाने का निर्णय रेल विकास को बाधित कर रहा है। हालांकि वर्ष 2011-12 के रेल बजट में योजना व्यय को 57,630 करोड़ रुपये रखने का प्रस्ताव है। यदि रेल भाड़े एवं यात्री किरायों में तर्कसंगत और क्रमश: बदलाव किया जाता तो यह नीति कहीं ज्यादा कारगर होती। ऐसी स्थिति में आर्थिक संवृद्धि के नौ प्रतिशत के लक्ष्य के मद्देनजर रेलवे की भूमिका पर एक सवालिया निशान लग रहा है।


दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि जहां देश में सड़कों की लंबाई आजादी के बाद 4 लाख किलोमीटर से बढ़कर 44 लाख किलोमीटर पहुंच गई, वहीं रेल लाइनों का विस्तार 54 हजार किलोमीटर से बढ़कर मात्र महज 64 हजार किलोमीटर तक ही पहुंच सका है। रेलवे के विकास में इस तरह की कोताही और संरचनागत कमजोरी हमारे देश की परिवहन लागत को और अधिक बढ़ाने का ही काम करेगी। इसके लिए सरकार को समझना होगा कि देश के विकास एवं आम जनता को सस्ती एवं सुविधाजनक परिवहन व्यवस्था उपलब्ध कराने में रेलवे का सर्वागीण विकास का काम कहीं पीछे न छूट जाए अन्यथा बाकी लक्ष्य भी पिछड़ सकते हैं। वास्तविकता यह है कि सरकार का लोकलुभावन दृष्टिकोण रेलवे के विकास में बाधा बन रही है। आम जनता के लिए रेलवे की सुविधाओं में सुधार और रेलवे के विस्तार के लिए किराए की संरचना का युक्तिकरण नितांत आवश्यक है। आम बजट पर पहले ही काफी दबाव रहता है। इसलिए रेलवे के विकास के लिए भी आम बजट पर निर्भर नहीं रहा जा सकता।


लेखक अश्विनी महाजन स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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