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कैसे रुके रुपये का अवमूल्यन

जागरण मेहमान कोना
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डॉलर के मुकाबले रुपये का लगातार अवमूल्यन यूपीए सरकार की नाकामयाबियों को ही उजागर करता है। हालांकि वह इसके लिए वैश्विक मंदी को जिम्मेदार बता रही है। महंगाई और बढ़ती ब्याज दरों के बीच रुपये की कमजोरी घरेलू अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़े संकट के तौर पर उभरा है। रुपये में गिरावट से निर्यातकों को फायदा हुआ है, लेकिन आयात पर नकारात्मक असर पड़ने से वित्तीय बोझ बढ़ा है। सकल निर्यात के मुकाबले हमारा आयात लगभग दोगुना है इसलिए रुपये में गिरावट से विदेश व्यापार का कुल घाटा भी और अधिक बढ़ जाएगा। वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी के अनुसार वैश्विक वजहों से रुपये में गिरावट आ रही है और रिजर्व बैंक के हस्तक्षेप से कोई मदद मिलने की फिलहाल कोई उम्मीद नहीं है। रिजर्व बैंक के गवर्नर डी. सुब्बाराव के अनुसार पिछले कुछ दिनों में विनिमय दर में जो उतार-चढ़ाव आया है वह वैश्विक घटनाक्रम की वजह से हुआ है और नीति यही है कि यदि विनिमय दर में उतार-चढ़ाव से आर्थिक हालात प्रभावित होते हैं तो हस्तक्षेप किया जाए, लेकिन अभी तक इस बारे में कोई भी निर्णय नहीं किया गया है। रुपया किस हद तक गिरेगा और किस दिशा में जाएगा यह सब विशेष तौर पर यूरोपीय कर्ज संकट के समाधान पर निर्भर करेगा।


फिलहाल आरबीआइ ने रुपये को थामने के लिए हस्तक्षेप की कोई समयसीमा नहीं तय की है। आरबीआइ बाजार पर नजर रख रहा है और जरूरत पड़ने पर इस दिशा में आगे बढ़ सकता है। अमेरिका में कर्ज समाधान पर सहमति नहीं बन पाने के कारण भी बाजार में उथल-पुथल देखी जा रही है और शेयर बाजार को भारी झटका लगा है। रुपये की कीमत में रिकॉर्ड गिरावट अर्थव्यवस्था की पहले से ही सुस्त पड़ती रफ्तार को और मंद कर सकती है। रुपया डॉलर के मुकाबले पिछले 33 महीनों के न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया है। रिजर्व बैंक की तरफ से हस्तक्षेप के बावजूद रुपये की गिरावट को रोका नहीं जा सका है। कह सकते हैं कि सरकार ने भी एक तरह से स्वीकार कर लिया है कि इस पर पूरी तरह काबू पाना उसके वश में नहीं है। रुपये में और गिरावट की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। ऐसा होने पर न सिर्फ आर्थिक विकास दर की रफ्तार और मंद पड़ेगी, बल्कि महंगाई रोकने की सरकार की तमाम कोशिशों पर भी पानी फिरेगा। वित्तीय मामलों के सचिव आर. गोपालन ने रुपये की गिरती कीमत को रोकने में सरकार की असमर्थता जताते हुए कहा कि रिजर्व बैंक एक सीमा तक ही रुपये की कीमत थाम सकता है।


दरअसल, रुपया पिछले एक महीने से डॉलर के मुकाबले लगातार गिर रहा है। मगर सरकार अभी तक हस्तक्षेप नहीं कर रही थी। रिजर्व बैंक की तरफ से बहुत कम हस्तक्षेप हुआ, मगर बाजार का मूड देखकर केंद्रीय बैंक ने भी अपने कदम खींच लिए। ऐसे समय में जब वैश्विक अर्थव्यवस्था में सुधार के लक्षण नहीं दिख रहे और भारतीय शेयर बाजार से विदेशी संस्थागत निवेशकों के भागने का सिलसिला जारी है तो रिजर्व बैंक विदेशी मुद्रा भंडार का इस्तेमाल खुलकर करने की स्थिति में नहीं है। एसोचैम के महासचिव डीएस रावत बताते हैं कि भारत का विदेशी मुद्रा भंडार इतना विशाल नहीं है कि रिजर्व बैंक रुपये के अवमूल्यन को रोकने के लिए बाजार में अधिक सक्रिय हो। निर्यात के जरिये मोटी कमाई करने वाली घरेलू दवा कंपनियों को रुपये में आई मौजूदा गिरावट के कारण तगड़ा नुकसान पहुंच रहा है। दरअसल, आयातित माल का लागत बढ़ने से यह स्थिति बनी है।


इंडियन ड्रग मैन्यूफैक्चरर्स एसोसिएशन (आइडीएमए) के अनुसार आयात लागत में बढ़ोतरी से निर्यात पर मिलने वाला लाभ खत्म हो जाएगा। जहां तक निर्यात का सवाल है तो जोखिम से बचने के लिए पूर्व में किए गए सौदों की वजह से ज्यादातर कंपनियां लाभ नहीं उठा पाएंगी जिसका पूरे दवा उद्योग पर नकारात्मक असर होगा और उपभोक्ताओं को भी इससे नुकसान पहुंचेगा। रुपये की घटती कीमत ने उद्योग जगत की भी नींद उड़ा दी हैं। महंगे कर्ज से बचने के लिए विदेशी कर्ज जुटाना अब कंपनियों के गले की फांस बन गया है। घरेलू के मुकाबले अंतरराष्ट्रीय बाजार से सस्ता कर्ज उठाने वाली कंपनियों पर रुपये की कमजोरी भारी पड़ रही है। इस साल डॉलर के मुकाबले रुपये में हुई तेज गिरावट ने कंपनियों की देनदारी में भारी भरकम वृद्धि कर दी है।


घरेलू बाजार में कर्ज की दरें 14-15 प्रतिशत तक पहुंचने के कारण इस साल जनवरी से अब तक कंपनियों ने विदेशी बाजारों से विदेशी वाणिज्यिक कर्ज (ईसीबी) के जरिये तककरीबन 1,50,000 करोड़ रुपये का कर्ज जुटाया है। विदेशी वाणिज्यिक कर्ज (ईसीबी) के जरिये कर्ज जुटाना कंपनियों को इसलिए भी आकर्षक लगा, क्योंकि उधारी की ब्याज दर जो पांच से सात प्रतिशत थी को चुकाना अपेक्षाकृत आसान था। कम ब्याज दरों पर कर्ज उठाने वाली कंपनियों का यह दांव रुपये के कमजोर होने से उलटा पड़ गया है। ब्रोकिंग फर्म एसएसएसी ग्लोबल सिक्योरिटी की एक रिपोर्ट को मानें तो जनवरी से अब तक रुपये की कीमत में डॉलर के मुकाबले करीब 18 प्रतिशत तक की गिरावट आ चुकी है। जनवरी में एक डॉलर की कीमत 44 रुपये के आसपास थी जो अब 52.70 रुपये से ऊपर पहंुच गई है। दरअसल, विदेशी वाणिज्यिक कर्ज (ईसीबी) से कर्ज जुटाकर कंपनियां ब्याज दरों के बड़े अंतर का लाभ उठाना चाहती थीं। रुपये की कमजोरी से ऐसी कंपनियों पर करीब 27 हजार करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ पड़ा है। एसएमपी के विश्लेषक व रिसर्च प्रमुख जगन्नाधम थूनुंगटूला के अनुसार जिन कंपनियों ने डॉलर में उतार चढ़ाव से होने वाले जोखिम का बचाव कर लिया है उनका नुकसान कम होगा, लेकिन ऐसी कंपनियां जिन्होंने यह काम नहीं किया है अथवा जो ऐसा कर पाने में असमर्थ हैं उन्हें बड़ी हानि उठानी पड़ सकती है।


अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत में तेज गिरावट, अर्थव्यवस्था के लिए बुरी खबर हो सकती है, लेकिन कुछ क्षेत्र इस गिरावट से फायदा भी उठा रहे हैं। प्रवासी भारतीयों और भारत में अपने परिवारों को धन भेजने वाले विदेश में रह रहे भारतीयों के लिए रुपये की गिरावट बेहद अच्छी खबर होती है। इसके अलावा विदेशी म्यूचुअल फंडों में निवेश करने वाले लोग और भारत में डॉलर जैसी विदेशी मुद्रा में आय अर्जित करने वाले प्रवासी भी फायदे में हंै। विशेषज्ञों के अनुसार डॉलर का भाव 55 रुपये का स्तर भी छू सकता है, क्योंकि यूरो क्षेत्र के कर्ज संकट के कारण निवेशक डॉलर में निवेश को अधिक सुरक्षित मानकर ऊंचा दांव लगा रहे हैं। भारत में घूमने की योजना बना रहे लोगों के लिए भी रुपये में गिरावट फायदे का सौदा है। रुपये का इतना अधिक अवमूल्यन देश की अर्थव्यवस्था के लिए घातक सिद्ध हो सकता है और इससे आने वाले समय में महंगाई और अधिक बढ़ेगी।


लेखक निरंकार सिंह स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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