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नरम राष्ट्र की नियति

जागरण मेहमान कोना
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पिछले माह दिल्ली उच्च न्यायालय के बाहर हुए बम धमाके में 15 लोग मारे गए और 85 से अधिक घायल हुए। 1996 के बाद से राजधानी में यह 20वां आतंकी हमला था। देश भर में अनेक शहरों में हुए बम हमले अलग हैं। साफ है कि भारत एक नरम राष्ट्र बन गया है। इसका मूल कारण वोट बैंक की राजनीति है, जिसने आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई को उलझा दिया है। नतीजा यह हुआ है कि देश में आतंकवादी खुले घूम रहे हैं। आतंकवादी हमले रोकने के लिए पहले से कदम उठाने के बजाए सरकार हमला हो जाने के बाद कार्रवाई करना पसंद करती है। आतंकवाद के प्रति हम लोग कितने नरम हैं और आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के बारे में हमारे नेतागण कितने गंभीर हैं, इसकी बानगी देखिए। हाल ही में मद्रास हाईकोर्ट ने राजीव गांधी हत्या मामले में तीन लोगों की फांसी पर रोक लगा दी। इससे पहले, सुप्रीम कोर्ट उनकी दया याचिका ठुकरा चुका था और राष्ट्रपति ने भी उनकी याचिका रद कर दी थी। फिर भी तमिलनाडु विधानसभा ने उनकी मौत की सजा को माफ करने का एक प्रस्ताव पारित कर दिया। इसके बाद जम्मू-कश्मीर से भी मांग उठी कि संसद पर हमला करने वाले मास्टरमाइंड अफजल गुरु की सजा कम कर दी जाए। इसी तरह की मांग एक खालिस्तानी आतंकवादी के लिए भी उठ रही है। सच तो यह है कि भारत में मौत की सजा दुर्लभ से दुर्लभतम मामले में ही दी जाती है।


1995 में सीरियल किलर आटो शंकर को फांसी देने के बाद से 2004 में बलात्कारी-हत्यारे धनंजय चटर्जी को फांसी देने तक किसी को भी फांसी पर नहीं चढ़ाया गया। भारत में मौत की सजा देने की प्रक्रिया बहुत धीमी है। एमनेस्टी इंटरनेशनल के आंकड़ों के अनुसार 2007 में कम से कम 100 लोगों को, 2006 में 40, 2005 में 77, 2002 में 23 और 2001 में 33 लोगों को मौत की सजा सुनाई गई किंतु इन पर अमल नहीं हुआ। इसी प्रकार 2010 में 105 से भी अधिक लोगों को मौत की सजा सुनाई गई, लेकिन उस साल किसी को भी फांसी पर नहीं चढ़ाया गया। बच्चों से बलात्कार, बच्चों के शोषण से होने वाली मौतों, परिवार के सम्मान के नाम पर या बलात्कार का विरोध करने पर लड़कियों की हत्याएं, सुपारी देकर कराई गई हत्याएं, आतंकवादी घटनाएं आदि अपराध जघन्यतम अपराधों की श्रेणी में आते हैं। किसी भी हिंसक अपराध का पीडि़त यह समझता है कि अपराध उसके खिलाफ हुआ है, लेकिन हमारी व्यवस्था कहती है कि किसी व्यक्ति के खिलाफ अपराध राज्य के खिलाफ अपराध होता है और राज्य पूरी तरह से व्यक्ति से परे होता है। परिणाम यह होता है कि अपराधियों के लिए ढेरों संवैधानिक अधिकार होते हैं, जबकि हमारी न्याय प्रणाली पीडि़त को राम-भरोसे छोड़ देती है।


सॉलीसिटर जनरल आफ इंडिया के अनुसार फौजदारी अदालतों में विलंब के लिए अगर उत्तर प्रदेश को उदाहरण के रूप में लिया जाए तो अगस्त 2011 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 10,541 फौजदारी मामलों की सुनवाई को स्थगित कर दिया था, जिनमें से 9 प्रतिशत 20 साल से अधिक से पेंडिंग थे और 21 प्रतिशत को एक दशक से भी अधिक हो गया था। मतलब यह कि 30 प्रतिशत जघन्य अपराधों की सुनवाई दस साल से भी अधिक टली रही। लचर अदालती कार्यवाहियों पर उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी उल्लेखनीय है-दुख की बात है कि न्याय व्यवस्था इस हालत में पहंुच गई है। हाईकोर्ट मामलों को स्थगित कर देता है और फिर उन्हें भूल जाता है। मतलब यह कि हम न्याय व्यवस्था का गला घोंट रहे हैं। किसी को भी ईमानदार और त्वरित सुनवाई से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन पीडि़तों का क्या होता है? उस समाज का क्या, जो अपराधी को जल्द से जल्द सजा दिलाना चाहता है। इन स्थगनादेशों से हम इन सब बातों को रोक रहे हैं। आतंकवाद हो या साधारण अपराध, जब तक अपराधियों और आतंकवादियों को यह संदेश नहीं मिलता कि जवाबी कार्रवाई तुरंत और त्वरित होगी, वे इसी प्रकार अपराध करते रहेंगे।


लेखक जोगिंदर सिंह स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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