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देश की सफलता के मायने

जागरण मेहमान कोना
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भारत की सफलता को प्रभावित करने वाले विभिन्न पहलुओं का विश्लेषण कर रहे है गुरचरण दास


केवल भारतीयों के बीच ही नहीं, पूरे विश्व में इस बात के खूब हल्ले है कि भारत एक महाशक्ति बन रहा है। हर दिन पाश्चात्य मीडिया में कोई न कोई खबर दिखाई पड़ती है, जिसमें भारत को भविष्य की महाशक्ति के रूप में दर्शाया जाता है। जाहिर है, ये बातें एक ऐसे देश को मीठी ही लगेंगी जिसे बीसवीं सदी में हताश राष्ट्र बताया जाता था। इस हताशा का मुख्य कारण हमारा खराब आर्थिक प्रदर्शन था, किंतु सुधारों की वजह से अब भारत की अवस्था बदल गई है और आज भारत विश्व की सबसे तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्थाओं में से एक है।


सवाल है कि महाशक्ति है क्या बला? मेरे विचार में महानता के लिए सैन्य ताकत ही काफी नहीं है। 1970 के दशक में अमेरिका एक महाशक्ति था, फिर भी यह एक गरीब राष्ट्र वियेतनाम से मात खा बैठा। उस समय की दूसरी महाशक्ति सोवियत संघ एक और भी गरीब राष्ट्र अफगानिस्तान में पिट गया। न ही राष्ट्रीय महानता के लिए परमाणु हथियारों की अनिवार्यता है। अगर ऐसा होता तो पाकिस्तान महाशक्ति बन गया होता। न ही संयुक्त राष्ट्र परिषद में स्थायी सदस्यता किसी देश को महान बना सकती है।


दरअसल, एक सफल राष्ट्र में तीन खूबियां होनी चाहिए- राजनीतिक रूप से स्थिर और मुक्त हो, मानवाधिकार की दृष्टि से लोकतांत्रिक हो और इसमें कानून का शासन हो। आर्थिक रूप से समृद्ध हो और समाज में अधिकाधिक समानता हो तथा सामाजिक रूप से यह शांतिपूर्ण सहअस्तित्व में यकीन रखने वाला और सर्वसमावेशी हो। ऐसा देश मिलना मुश्किल है। पाश्चात्य लोकतंत्र मुक्त और संपन्न है किंतु वहां का समाज विखंडित हो रहा है। पूरब में देश संपन्न है और वहां सामाजिक सद्भाव भी है, किंतु उनमें से अधिकांश देशों में जनता अधिसत्तात्मक राजनीतिक शासन में रह रही है। इसमें भारत कहां टिकता है?


दशकों से भारत राजनीतिक लोकतंत्र के क्षेत्र में ऊंचे दर्जे पर है, सामाजिक रूप से दोयम और आर्थिक रूप से निम्न पायदान पर है। 1990 के बाद भारत की अर्थव्यवस्था उदारीकरण की राह पर चल पड़ी और इसकी विकास दर ऊपर उठने लगी। 21वीं सदी के पहले दशक में भारत सबसे तेजी से बढ़ती हुई दूसरी अर्थव्यवस्था बन गया और इसी के साथ विश्व भारत उदय के बारे में बातें करने लगा।


सामाजिक रूप से भी पिछले दो दशकों में उल्लेखनीय सुधार हुआ है। दलित और अन्य पिछड़ी जातियां उभरती अर्थव्यवस्था और मतपेटियों के माध्यम से बराबर उन्नति कर रही है। इसका गौरवान्वित प्रतीक मायावती का उन्नयन है, जो देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं। आंशिक रूप से मंडल आयोग की मेहरबानी से पिछड़े वर्गो और दलितों में भी मध्य वर्ग विकसित हो गया है। हालांकि आदिवासी इलाकों में माओवादी हिंसा ने 21वीं सदी के पहले दशक की शांति भंग किए रखी। हालांकि अब तमाम प्रमुख संस्थानों में राजनीतिक दरारे नजर आने लगी है और एक राष्ट्र के रूप में भारत में क्षय स्पष्ट दिखाई दे रहा है। शासन और भ्रष्टाचार एक गंभीर समस्या है। यद्यपि चुनाव आयोग के प्रयासों से चुनाव अधिक निष्पक्ष और स्वतंत्र हुए है और लोकतंत्र ने धीमे-धीमे कदमों से गांवों की ओर बढ़ना शुरू किया है किंतु इसी के साथ नकारात्मक पक्ष यह भी है कि भ्रष्टाचार का चौतरफा प्रसार हुआ है। सरकार जनता को बुनियादी सुविधाएं भी नहीं दे पा रही है, इसीलिए ही लैंट प्रिचैट ने भारत को विफल राष्ट्र कहा था। झूमती निजी अर्थव्यवस्था में यह एक नंगा सच है कि भारतीय छोटी से छोटी सुविधाओं की भी उम्मीद छोड़ चुके है। समस्या लोकतंत्र में नहीं है, बल्कि शासन के प्रमुख संस्थानों- पुलिस, न्यायपालिका और नौकरशाही में सुधार लागू न होने में है।


यह मानना गलत होगा कि उदारीकरण कमजोर राष्ट्र की ओर ले जाता है। इसके विपरीत, आर्थिक सुधारों के लिए एक मजबूत राष्ट्र चाहिए। इसका मतलब दमनकारी राष्ट्र से नहीं है। इसका आशय प्रभावी राष्ट्र से है। दूसरी गलत सोच यह है कि पिछले दो दशकों में गठबंधन की राजनीति और कमजोर प्रधानमंत्रियों के कारण भारत कमजोर हुआ है। सच्चाई यह है कि भारत हमेशा से ही कमजोर राष्ट्र और मजबूत समाज रहा है। भारत का इतिहास सल्तनतों के बीच सतत संघर्ष का राजनीतिक विभेद है। चीन में हमेशा से मजबूत सत्ता रही है जबकि वहां का समाज कमजोर रहा है। इसीलिए वहां का इतिहास मजबूत साम्राज्य के रूप में सामने आता है। हैरानी की बात नहीं कि 1947 में स्वतंत्रता के बाद भारत एक ढुलमुल लोकतंत्र के रूप में विकसित हुआ। नोबल पुरस्कार विजेता स्वीडन के गुन्नार मिरडल ने भारत को नरम राष्ट्र बताया है। 21वीं सदी में अतीत के साथ कदमताल करते हुए, भारत नीचे से ऊपर उठते हुए एक लोकतांत्रिक और बाजार आधारित भविष्य की दिशा में बढ़ रहा है। यह चीन के बिल्कुल विपरीत है जिसकी सफलता की पटकथा ऊपर से लिखी गई है। यह अनोखा देश है जिसमें अतुलनीय बुनियादी ढांचा विकसित किया गया है। भारत के इतिहास का सबक यही है कि एक सफल देश को मजबूत सत्ता और मजबूत समाज की आवश्यकता होती है।


मेरे विचार में अंतत: भारत की महानता इसके आत्मविश्वास और जुझारू लोगों पर निर्भर करती है। हम सरकार की विफलता के बावजूद अपने को उबारने में और सफलता हासिल करने में सक्षम है। जब स्कूल और अस्पताल में शिक्षक व डॉक्टर नजर नहीं आते तो हम इसकी शिकायत नहीं करते और सस्ते निजी स्कूल व क्लीनिक में चले जाते है। हमने प्रतिद्वंद्वियों से भिड़ना और नौकरशाहों के चारो तरफ घूमना सीख लिया है। यह परिवेश हमें सख्त, उद्यमी और स्वतंत्र व्यक्ति बना देता है।


एक देश की महानता उसके लोगों के मानस में होती है। सौभाग्य से हम एक युवा राष्ट्र है और एक युवा भारतीय का मानस साम्राज्यवादी परतंत्रता के एहसास से मुक्त हो चुका है। आपको यह महेद्र सिंह धौनी की निडर आंखों में दिख सकता है। हमारे लोकतंत्र ने युवाओं में ऊर्जा का संचार किया है। हमारी आर्थिक सफलता इसलिए और उल्लेखनीय हो जाती है क्योंकि यह लोकतांत्रिक तरीके से हासिल हुई है। इन सकारात्मक पहलुओं के विपरीत, हमारे शासन की दयनीय अवस्था हमें बताती है कि हम एक महान राष्ट्र होने से कितने दूर है। हम खुद को महान राष्ट्र तभी कह सकते है जब प्रत्येक भारतीय की पहुंच अच्छे स्कूलों और अच्छे स्वास्थ्य केंद्र तक हो। यह तभी संभव है जब सरकार को एहसास हो जाए कि वह इन स्कूलों व स्वास्थ्य केंद्रों को चलाने में सक्षम नहीं है, बल्कि उसे इनके लिए केवल धनराशी उपलब्ध करानी है। यह महानता का भारतीय रूप है कि यहां लोग सब कुछ सरकार के भरोसे नहीं छोड़ देते।


लेखक गुरचरण दास वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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