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जवाबदेही की जरूरत

जागरण मेहमान कोना
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Dr.U.D.Choubeyनिजी और सार्वजनिक क्षेत्र के मेलजोल के कारण आज का आर्थिक परिदृश्य अधिकाधिक जटिल होता जा रहा है। अब विशुद्ध निजी या सार्वजनिक क्षेत्र विरले ही देखने को मिलते हैं। निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की सहभागिता यानी पीपीपी मॉडल को आज की आवश्यकता मान लिया गया है। ज्यादातर योजनाएं इसी आधार पर तैयार की जा रही हैं। दोनों क्षेत्र एक-दूसरे के उपक्रमों में निवेश भी कर रहे हैं। कुल मिलाकर स्थिति यह है कि ढांचागत क्षेत्र और सामाजिक रूप से प्रासंगिक क्षेत्र के विकास के लिए पीपीपी यानी पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप मॉडल जरूरी हो गया है। इस रूपांतरण और साथ ही भ्रष्टाचार व सार्वजनिक धन के बढ़ते दुरुपयोग के कारण औद्योगिक क्षेत्र के कायदे-कानून में परिवर्तन करना जरूरी हो गया है। सार्वजनिक क्षेत्र पहले ही सार्वजनिक जांच व जवाबदेही के दायरे में आता है।


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अब इस जांच व जवाबदेही के दायरे में निजी क्षेत्र को भी लाया जाना चाहिए। इससे बेहतर शासन की व्यवस्था बनाने, सार्वजनिक जवाबदेही को प्रोत्साहन देने के साथ-साथ सार्वजनिक धन के न्यायसंगत इस्तेमाल को सुनिश्चित करने का मार्ग भी प्रशस्त होगा। जाहिर है इससे कार्यकुशलता तो बढ़ेगी ही, उच्चतर विकास भी सुनिश्चित होगा। बेहतर कॉरपोरेट प्रबंधन के नीतिशास्त्र में पारदर्शिता, विश्वसनीयता और कर्मठता की आज पहले से कहीं अधिक आवश्यकता है। स्टॉक मार्केट के माध्यम से उद्योग घरानों में भारी मात्रा में सार्वजनिक धन लगा हुआ है। यह स्पष्ट हो चुका है कि निजी औद्योगिक घरानों के स्वामी इस विशाल सार्वजनिक धन को गलत तरीके से बढ़ा-चढ़ाकर खर्च करते हैं। यह भी देखा गया है कि भ्रष्टाचार में केवल निजी उद्यमी ही लिप्त नहीं हैं। भ्रष्टाचार सार्वजनिक और निजी, दोनों क्षेत्रों में व्याप्त है। इन हालात में यह बेहद जरूरी हो जाता है कि सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के लेखा-जोखा पर कड़ी निगरानी रखी जाए।


साथ ही इनकी जवाबदेही भी सुनिश्चित की जाए। जिस प्रकार सार्वजनिक क्षेत्र नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) और सूचना अधिकार के दायरे में है उसी प्रकार निजी क्षेत्र को भी जवाबदेही और जांच-पड़ताल के दायरे में लाया जाना चाहिए। तमाम देशों में सरकारें विकास के लिए जरूरी क्षमताएं और संसाधन विकसित करने के लिए निजी क्षेत्र के साथ व्यापक भागीदारी कर रही हैं। परियोजनाओं के क्रियान्वयन के लिए पीपीपी मॉडल के तहत बड़े पैमाने पर सार्वजनिक धन, संपत्ति और महत्वपूर्ण कार्यो को निजी क्षेत्र में हस्तांतरण किया जा रहा है। सरकार और निजी साझेदारों के बीच इस प्रकार के हस्तांतरण के दौरान लागत और लाभ पर नियंत्रण और संतुलन बनाया जाना जरूरी है, अन्यथा पूरा प्रयोजन विफल हो जाएगा और सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पाएगी। भारत जैसे विकासशील देश में आर्थिक संवृद्धि तथा समावेशी व टिकाऊ विकास के लिए अनियंत्रित निजीकरण और निजी लाभों को भी सार्वजनिक नियमन व जवाबदेही के तहत लाना होगा। पीपीपी परियोजना के सफल संचालन के लिए सरकार की विभिन्न एजेंसियों के बीच परस्पर सहयोग और समन्वय बेहद जरूरी है।


किसी परियोजना के दीर्घकालिक स्थायित्व के लिए अच्छे कॉरपोरेट शासन का होना आवश्यक है। नीतिसंगत व्यवहार पर आधारित पारदर्शी फैसले यह सुनिश्चित करते हैं कि सभी संबंधित पक्षों के हित सुरक्षित रहेंगे, संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल होगा तथा लाभ में वृद्धि होगी। पीपीपी के तहत सार्वजनिक व निजी क्षेत्र की बढ़ती भागीदारी को देखते हुए गैरसरकारी कॉरपोरेट क्षेत्र को भी आरटीआइ और सीएजी जैसे सार्वजनिक आडिट के अधीन लाया जाना समय की मांग है। वर्तमान में, सूचना का अधिकार केवल सरकारी क्षेत्र में लागू होता है, जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र के निगम तथा सार्वजनिक धन का इस्तेमाल करने वाले संस्थान भी शामिल हैं। शुरू में फैसले लेने में बाधक समझा जाने वाला सूचना अधिकार अब सार्वजनिक निगमों की छवि और कार्यप्रणाली सुधारने में कारगर सिद्ध हो रहा है। निष्पक्षता, पारदर्शिता, ईमानदारी और जवाबदेही को प्रोत्साहित कर यह कॉरपोरेट शासन के सुदृढ़ीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए सराहा जा रहा है। कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी (सीएसआर) की अवधारणा टिकाऊ और समावेशी आर्थिक-सामाजिक विकास से बड़ी निकटता से जुड़ी हुई है।


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साथ ही, यह पहल कॉरपोरेट क्षेत्र की छवि को निखारने और उनमें निवेशकों का विश्वास बढ़ाने का भी अहम औजार है। इस कारण से सीएसआर कॉरपोरेट प्रबंधन का मूलभूत अंग बन गया है। सार्वजनिक क्षेत्र के निगमों के अस्तित्व का मूलाधार-समता और सामाजिक न्याय के साथ विकास सीएसआर के लक्ष्यों पर मुहर लगाता है। सार्वजनिक क्षेत्र की पहल मौजूदा नियमों और नियमनों के अनुरूप है और इसलिए सीएसआर के तहत संसाधनों का अपव्यय और धन की हेराफेरी की आशंका कम हो जाती है। हालांकि आजकल सामाजिक कल्याण कार्यक्रम की एजेंसी के तौर पर एनजीओ ही बड़े पैमाने पर इस मद में सार्वजनिक धनराशि को खर्च कर रहे हैं। ये गैरसरकारी संगठन न तो सूचना अधिकार के दायरे में आते हैं और न ही वैधानिक/नियामक मानकों व सामाजिक ऑडिट से नियंत्रित होते हैं। इसी प्रकार सामाजिक सेवा उपलब्ध कराने वाले भी सूचना अधिकार के दायरे में लाए जाने चाहिए, क्योंकि वे बड़ी मात्रा में सार्वजनिक धन को खर्च करते हैं। सूचना के अधिकार का विस्तार जन कल्याण क्षेत्र में अधिक पारदर्शिता तथा जवाबदेही लाएगा।


अगर सार्वजनिक धन का इस्तेमाल करने वाले निजी उद्यमों को सूचना के अधिकार तथा स्वतंत्र जांच के दायरे में लाया जाता है तो यह कोई अजूबा नहीं होगा। विश्व में 19 देश पहले ही सूचना के अधिकार सरीखे कानूनों के दायरे में निजी क्षेत्र को ला चुके हैं। ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल इंडिया के हालिया सर्वे से यह बात पता चलती है कि सार्वजनिक क्षेत्र के निगमों द्वारा अधिक जवाबदेही के गुण को अपनाने के बाद उनकी खरीद प्रक्रिया में पारदर्शिता में भी बढ़ोतरी हुई है। इस रिपोर्ट में इस तथ्य को रेखांकित किया गया है कि निजी क्षेत्र के अधिकारियों में भी घूसखोरी की प्रवृत्ति घर कर चुकी है। इसलिए इस क्षेत्र में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए सरकार को कड़े कदम उठाने चाहिए। निजी और सामाजिक सेवा के क्षेत्र में सार्वजनिक जवाबदेही के विचार के विस्तार से संसाधनों का न्यायसंगत इस्तेमाल होगा और तंत्र की कार्यकुशलता बढ़ेगी। परिणामस्वरूप अधिक तेजी से टिकाऊ और संतुलित आर्थिक विकास संभव हो सकेगा।

लेखक डॉ.यूडी चौबे स्टैंडिंग कांफ्रेंस आफ पब्लिक इंटरप्राइजेज यानी स्कोप के महानिदेशक हैं


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