Menu
blogid : 5736 postid : 3397

परमाणु कार्यक्रमों के पुरोधा

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

वर्ष 1974 में हुए देश के पहले परमाणु परीक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले परमाणु ऊर्जा आयोग के पूर्व अध्यक्ष पीके अयंगर पंचतत्व में विलीन हो गए। पद्मभूषण और शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार से सम्मानित अयंगर 1990 से 1993 के दौरान परमाणु ऊर्जा विभाग में सचिव के पद पर भी रहे थे। पोखरण में 18 मई, 1974 को देश के पहले परमाणु परीक्षण में उन्होंने अहम भूमिका निभाई थी। राजा रमन्ना के नेतृत्व में ऑपरेशन स्माइलिंग बुद्ध नाम से हुए इस परीक्षण की टीम में अयंगर दूसरे नंबर पर थे। उन्होंने केरल विश्वविद्यालय से भौतिकी में परास्नातक की पढ़ाई के बाद वर्ष 1952 में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च से अपने कॅरियर की शुरुआत की थी। वर्ष 1984 में वह बार्क के निदेशक बने। बाद में उन्होंने न्यूट्रॉन डिफ्रैक्टोमीटर्स और न्यूट्रॉन स्कैटरिंग स्पेक्ट्रोमीटर्स जैसी प्रयोगशालाएं भी बनाई। देश में वैज्ञानिक प्रायोगिक सुविधा बढ़ाने में उनकी विशेष दिलचस्पी थी। डॉ. पीके अयंगर अपने पूरे जीवनकाल में देश के तमाम परमाणु कार्यक्रमों से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े रहे। इससे जुड़े हर मुद्दे पर उन्होंने बिना किसी की परवाह किए अपनी बात बेबाकी से रखी। उन्होंने भारत-अमेरिका परमाणु संधि की यह कहकर आलोचना की थी कि इसे अमेरिका के हितों के लिए बनाया गया है। उनके अनुसार परमाणु बिल का मकसद भारत को परोक्ष रूप से सीटीबीटी, एनपीटी और एफएमसीटी के दायरे में लाना है और उस पर अप्रत्यक्ष रूप से दबाव बनाना है।


बिना एटमी टेस्ट के न्यूनतम प्रतिरोधक क्षमता बनाए रखना नामुमकिन है। इस बिल के अनुसार अगर एटमी टेस्ट हुआ तो दोनों देशों के बीच सहयोग खत्म हो जाएगा। उनकी नजर में यह बिल तकनीक से वंचित रखने की व्यवस्था का ही एक दूसरा रूप है। अयंगर ने ही इस मुद्दे पर जोरदार विरोध करते हुए सरकार से कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न किए थे, मसलन सरकार 40 साल के लिए न्यूक्लियर फ्यूल का स्टॉक रखने का वादा कर रही है, जबकि बिल के मूल ब्यौरे इस बात के खिलाफ जाते हैं। एनएसजी के सदस्य कितना फ्यूल दें, यह अमेरिका तय करेगा और वही शर्ते निर्धारित करेगा। परमाणु करार को किसी भी वक्त रद करने के लिए अमेरिका के पास पास हजारों बहाने हो सकते हैं और वह कभी भी भारत को फ्यूल की आपूर्ति रोक सकता है। स्पेंट फ्यूल की रीप्रोसेसिंग पर भी बिल भारत के हितों के खिलाफ जाता है। इस इस बात से समझा जा सकता है कि चार दशक बाद भी अमेरिका ने तारापुर के लिए अमेरिकी स्पेंट फ्यूल को रीप्रोसेस की इजाजत भारत को नहीं दी है।


अमेरिका स्पेंट फ्यूल को रीप्रोसेस नहीं करता, लेकिन भारत ऐसा करता है, क्योंकि उसका पूरा फास्ट ब्रीडर रिएक्टर प्रोग्राम रीप्रोसेस्ड फ्यूल सिस्टम पर ही टिका हुआ है। यह अलग बात है कि उनके इन सवालों का सरकार कभी तर्कसंगत और संतुष्टिजनक जवाब नहीं दे पाई। परमाणु हथियार क्षमता वाले शत्रु देश का प्रतिरोध केवल परमाणु क्षमता से ही किया जा सकता है। खासतौर से प्रतिरोधक मारक क्षमता जो शत्रु के परमाणु हथियारों से बचते हुए पलटवार कर सके। इसके अलावा, भारतीय नीति निर्माताओं को अभी तक इस बात का अहसास नहीं है कि तीन विशेषताओं के बिना कोई भी देश महाशक्ति नहीं बन सकता है। ये विशेषताएं हैं- उच्चस्तरीय स्वदेशी और अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी क्षमता, बुनियादी रक्षा जरूरतों को अपने देश में ही पूरा करना और सीमा पार दूर तक प्रहार करने की क्षमता विकसित करना। विशेष तौर पर अंतरमहाद्वीपीय मिसाइल क्षमता हासिल करना। इन तीनों ही क्षेत्रों में भारत आत्मनिर्भर नहीं है। यह कोई महज संयोग नहीं है कि अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइलों (आइसीबीएम) से लैस तमाम देश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य हैं।


आइसीबीएम कार्यक्रम के जरिये तकनीकी छलांग लगाने के बजाय भारत अंतरदेशीय बैलिस्टिक मिसाइल के चरण पर ही फिलहाल अटका हुआ है। वास्तविकता यही है कि 1991-95 के दौरान वित्तमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह ने पैसे की तंगी पैदा कर परमाणु कार्यक्रम के विस्तार को रोक दिया था। बाद में 2008-09 के बजट में सरकार ने परमाणु ऊर्जा विभाग के मद में 52 करोड़ डॉलर की कटौती कर दी। इसके बाद भी सरकार ने परमाणु ऊर्जा विभाग के मद में कोई उल्लेखनीय बढोतरी नहीं की। ऐसा क्यों किया गया इसका कभी कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया। परमाणु करार के तहत सरकार स्वत: ही इस बात के लिए राजी हो गई कि वह देश के दो प्लूटोनियम उत्पादक रिएक्टरों में से एक को अगले साल तक बंद कर देगी, जबकि परमाणु हथियारों में इस्तेमाल होने वाली सामग्री के संबंध में भारत की स्थिति पाकिस्तान से थोड़ी ही बेहतर है। पोखरण-2 के एक दशक से भी अधिक समय बीतने के बाद भारत के पास जश्न मनाने के अधिक अवसर नहीं हैं।


परमाणु हथियारों को लेकर आत्मसंशय हालात को और अधिक बिगाड़ रहा है। चीन और भारत के बीच शक्ति असंतुलन इतना व्यापक हो गया है कि भारत के बहुत से नीति निर्धारकों का भरोसा डगमगा गया है कि हम अपने बूते देश की रक्षा करने में सक्षम भी हैं। इसलिए आज अपने परमाणु कार्यक्रमों की फिर से समीक्षा करने के जरूरत है, क्योंकि चीन लगातार अपनी ताकत इस क्षेत्र में बढ़ा रहा है। अयंगर ने हमेशा देश के परमाणु कार्यक्रमों पर पैनी नजर रखी और अपने अनुभवों से सरकार को अवगत करते रहे। पिछले दिनों सुनामी के बाद कलपक्कम प्लांट की सुरक्षा के लिए एक अतिरिक्त दीवार भी बनाई गई थी। परमाणु ऊर्जा आयोग के पूर्व अध्यक्ष पीके अयंगर ने यह सुझाव दिया था कि कलपक्कम में इलेक्टि्रकल सिस्टम को जमीन से करीब 50 फुट की ऊंचाई पर लगाया जाए। तमिलनाडु तट पर जब सूनामी आई तो इसी वजह से कलपक्कम प्लांट बच गया।


वर्तमान में विज्ञान शब्द सुनते ही सबकी गर्दन पश्चिम की ओर मुड़ जाती है। ऐसा लगता है कि विज्ञान का आधार ही पश्चिम की देन हो तथा भविष्य भी उनके वैज्ञानिकों के ऊपर टिका हो, परंतु क्या हमने यह जानने का प्रयास किया है कि ऐसा क्यों है? अथवा हमारी मनोदशा ऐसी क्यों है कि जब भी विज्ञान या अन्वेषण की बात आती है तो हम बरबस ही पश्चिम का नाम लेते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण जो हमें नजर आता है, वह है अपने देश व संस्कृति के प्रति हमारी अज्ञानता और उदासीनता का भाव। आज जरूरत है कि हम अपने देश के वैज्ञानिको का सम्मान करें, उन्हें शोध के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराएं। अपने आसपास और समाज में ऐसे लोगो को प्रोत्साहित करें जो प्रायोगिक कार्यो से इनोवेशन या नवप्रवर्तन कर रहे है। अयंगर जैसे लोग देश की अमूल्य योगदान के लिए हमेशा देशवासियों द्वारा याद किए जाएंगे।


लेखक शशांक द्विवेदी स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh