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सुलह की एक राह

जागरण मेहमान कोना
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BR lallलोकपाल के मसले पर पूरी बहस और बेचैनी इस अनुभूति के आधार पर आरंभ हुई कि सरकार अपने नियंत्रण वाली विभिन्न एजेंसियों को उच्च पदस्थ लोगों के खिलाफ भ्रष्टाचार की जांच की अनुमति नहीं दे रही है और इसका परिणाम यह है कि वे मनमाने तरीके से देश को लूटने में लगे हैं। बड़े-बड़े घपले-घोटाले हो रहे हैं, लेकिन किसी को भी कानून के कठघरे में नहीं लाया जा रहा है। स्पष्ट है कि बहस का केंद्र-बिंदु जांच एजेंसियों को कार्यपालिका के नियंत्रण से मुक्त करना है-प्रशासनिक तरीके से भी और राजनीतिक तरीके से भी। लोगों का विश्वास है कि सरकार उस तरह जांच एजेंसियों को स्वायत्तता देने के लिए तैयार नहीं जिस तरह जनलोकपाल में कहा जा रहा है। अन्ना हजारे के नेतृत्व में जनसैलाब सख्त लोकपाल के लिए आंदोलनरत है और यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि एक के बाद एक सरकारों ने इस संदर्भ में अपनी संवेदनहीनता प्रदर्शित की है। इसके चलते लोगों के पास इसके अलावा अन्य कोई उपाय नहीं रह गया कि वे अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर उतरें। सरकार और सिविल सोसाइटी के अपने-अपने रुख पर कायम रहने के कारण जो गतिरोध उत्पन्न हो गया है उसे तत्काल दूर करने की आवश्यकता है। इसके साथ ही यह भी आवश्यक है कि जो कानून बने वह पूरी तरह सुविचारित हो। जाहिर है, विधायी प्रक्रिया में कुछ समय लग सकता है।?सरकार को नए विधेयक में कुछ निश्चित सिद्धांतों पर ध्यान देने की गारंटी देनी होगी और टीम अन्ना को भी उन प्रावधानों को हटाने पर सहमत होना होगा जिन्हें कुछ ज्यादा ही कठोर माना जा रहा है। गतिरोध तोड़ने के लिए निम्नलिखित सिद्धांत प्रस्तुत किए जा सकते हैं, उन पर चर्चा हो सकती है और उनके आधार पर नया बिल तैयार किया जा सकता है।


1. भ्रष्टाचार और आर्थिक अपराधों से निपटने वाली तमाम एजेंसियों को पूरी तरह सरकार व कार्यपालिका के नियंत्रण से मुक्त कर दिया जाना चाहिए। उन्हें फिर किसी एक व्यक्ति अथवा नामित या नियुक्त समूह के अधीन नहीं रखना चाहिए। ये एजेंसियां सात या 11 सदस्यीय समिति के अधीन रहें। सदस्यों का चयन ठोंक-बजाकर किया जाए। इनकी विश्वसनीयता पर निगरानी रखने के लिए एक व्यवस्था हो। गड़बड़ी करने वाले सदस्य को उपराष्ट्रपति की अध्यक्षता वाली एक कमेटी द्वारा बर्खास्त किया जा सकता है, जिसके अन्य सदस्यों में प्रधानमंत्री और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष होने चाहिए।

2. भ्रष्टाचारी के खिलाफ कार्रवाई में पद के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। चपरासी से प्रधानमंत्री तक को समान मानना चाहिए। इसके लिए प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाया जाना जरूरी है। इसी प्रकार संयुक्त सचिव और इससे नीचे के अधिकारियों में कोई अंतर नहीं होना चाहिए। सीवीसी एक्ट की धारा 26 के तहत जांच करने तथा धारा 18 के तहत मामला चलाने की अनुमति लेने की आवश्यकता का प्रावधान खत्म किया जाना चाहिए।

3. विभाजन कामकाज के आधार पर होना चाहिए और विभिन्न संगठनों को इसकी जिम्मेदारी देनी चाहिए।

4. न्यायपालिका को लोकपाल के दायरे में लाना उचित नहीं है। एक लोकतंत्र में न्यायपालिका अंतिम निर्णायक और कानून व संविधान की व्याख्याता होती है। हां, न्यायपालिका की जवाबदेही के लिए अलग तंत्र-राष्ट्रीय न्यायिक आयोग खड़ा किया जाना चाहिए। इसका फैसला अंतिम होना चाहिए।

5. हमारे संविधान ने शक्तियों के विभाजन का सिद्धांत दिया है, जबकि प्रस्तावित जनलोकपाल में जांच, नियोजन, निगरानी और प्रशासकीय शक्तियां एक ही संस्था को देने का प्रावधान है। यहां तक कि कुछ हद तक दंडित करने का अधिकार भी जनलोकपाल के पास है। वर्तमान में इनमें से अधिकांश शक्तियां सरकार के पास हैं। इन शक्तियों के कारण ही सरकार भ्रष्ट और अनियंत्रित हो गई है।

6. सीबीआइ के भ्रष्टाचार रोधी और आर्थिक अपराध शाखा को अलग-अलग एजेंसियों के अधीन नहीं किया जाना चाहिए, जैसा कि जन-लोकपाल बिल में निर्दिष्ट है। ये दोनों एजेंसियां एक ही मामले के दो विभिन्न पहलुओं की पड़ताल करती हैं। ये दोनों साथ-साथ मामले की जांच कर सकती हैं। ईओडब्ल्यू और एंटी करप्शन को अलग-अलग करने से आर्थिक अपराधों पर अंकुश लगने के बजाए और वृद्धि हो जाएगी। होना तो यह चाहिए कि आर्थिक मामलों की ही जांच करने वाले प्रवर्तन निदेशालय को इनके साथ जोड़ दिया जाए।

7. प्रवर्तन निदेशालय को सीबीआइ के साथ मिला देना चाहिए और तमाम जांचों की जिम्मेदारी इनकी ही होनी चाहिए। लोकपाल के जिम्मे प्रशासकीय निगरानी का काम सौंपना चाहिए, जो आजकल सीवीसी के जिम्मे है। वर्तमान में सीवीसी बेहद कमजोर संस्थान है। स्वतंत्र जनलोकपाल को इसका स्थान ले लेना चाहिए।

8. भ्रष्टाचार और काले धन संबंधी कानूनों को काफी सख्त बनाए जाने की जरूरत है। भ्रष्टाचार निरोधक एक्ट के तहत दंड श्रेणीबद्ध होना चाहिए। जितनी अधिक राशि का भ्रष्टाचार हो, उतना ही कड़ा दंड हो। यह दंड आजीवन कारावास तक होना चाहिए।

9. कानून में शिकायतकर्ता के हितों की रक्षा होनी चाहिए।

10. भ्रष्टाचार की पूरी राशि दोषी और उसके परिवार से वसूल की जानी चाहिए, क्योंकि भ्रष्टाचार के फल भी तो पूरा परिवार चखता है।


समाधान की राह पर चलने के लिए निम्नलिखित तरीके से काम किया जा सकता है। सरकार विचार-विमर्श के लिए लिखित आश्वासन दे और सिविल सोसाइटी उस पर सहमति व्यक्त करे। एक तीन सदस्यीय समिति गठित की जाए, जिसमें एक-एक सदस्य सरकार और सिविल सोसाइटी से नामांकित किया जाए। दोनों पक्ष वार्ता करने वाली मौजूदा टीम के किसी सदस्य को न लें। तीसरा सदस्य, जो कि समिति का अध्यक्ष भी होगा सुप्रीम कोर्ट द्वारा नामित किया जाएगा और यह सुप्रीम कोर्ट का मौजूदा जज अथवा सेवानिवृत्त जज हो सकता है या फिर प्रधान न्यायाधीश।


समिति अब तक सामने आए सभी विधेयकों पर विचार करेगी और नए सुझावों पर भी गौर कर अपना एक मसौदा पेश करेगी। संसद में यही मसौदा पेश किया जाएगा और इसे संसद की किसी समिति को संदर्भित नहीं किया जाएगा। समिति अपना काम खत्म करने के लिए चार सप्ताह से अधिक नहीं लेगी और इस पर विचार करने तथा नया बिल पारित करने के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाया जाएगा। जैसे ही सरकार ऊपर बताए गए सिद्धांतों के आधार पर समझौते पर हस्ताक्षर कर देती है और अगले दिन समिति का गठन कर देती है, अन्ना को अपना अनशन समाप्त कर देना चाहिए।


लेखक बीआर लाल सीबीआई के पूर्व संयुक्त निदेशक हैं


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