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कुतर्कवादियों का बेसुरा राग

जागरण मेहमान कोना
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दिल्ली के जामा मस्जिद के शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी की जुबान अक्सर आग उगलती ही देखी जाती है। एक बार फिर वे सांप्रदायिकता से ओत-प्रोत फतवा जारी कर देश में मजहबी उन्माद फैलाने की कोशिश की है। उन्होंने ताकीद की है कि देश के मुसलमान अन्ना हजारे के आंदोलन से दूर रहें। दरअसल, उनकी आपत्ति रामलीला मैदान में लगने वाले वंदेमातरम और भारत माता की जय जैसे देशभक्ति के उन नारों को लेकर है, जो अन्ना समर्थकों द्वारा पूरे जोश-खरोश के साथ लगाया जा रहा है। शाही इमाम बुखारी ने ज्ञान बघारा है कि ये नारे इस्लाम के खिलाफ हैं, क्योंकि इस्लामिक मजहब किसी देश या भूमि की इबादत करने की इजाजत नहीं देता है। बुखारी का यह फतवा कोई नया नहीं है। वे पहले भी इस तरह के राष्ट्रतोड़क फतवे जारी कर मुस्लिम समाज की ठेकेदारी की नुमाइंदगी दिखा चुके हैं। लेकिन उनके अहंकारी फतवे का मुस्लिम समाज कितना इज्जत करता है, खुद बुखारी भी अच्छी तरह जानते होंगे। अच्छा हुआ कि अन्ना को समर्थन दे रहे तमाम मुस्लिम संगठनों और मस्जिदों के इमामों ने मजहबी जनरल बन चुके सैयद अहमद बुखारी के फतवे को सिरे से खारिज कर उनकी औकात बता दी है। इन संगठनों ने अन्ना हजारे और उनके भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का पूर्ण समर्थन भी किया है और माना है कि भ्रष्टाचार की समस्या किसी एक धर्म या जाति तक सीमित नहीं है। लेकिन असल सवाल यह है कि ऐसे वक्त में जब अन्ना का आंदोलन पूरे शबाब पर है और उन्हें प्रत्येक समाज-संगठन का समर्थन हासिल हो रहा है, अचानक शाही इमाम बुखारी की जुबान पर धधकते अल्फाज क्यों मचलने लगे हैं? अन्ना के आंदोलन में वंदेमातरम और भारत माता के जयकारे प्रारंभ से ही लग रहे हैं, लेकिन उसकी गूंज बुखारी साहब को अब अचानक सताने लगी है। यह आश्चर्यजनक है।


आमतौर पर यही माना जाता है कि समाज और राष्ट्र हित की बात करने वाला कोई भी सच्चा राष्ट्रवादी इस तरह की बकवास नहीं कर सकता है। ऐसा भी नहीं है कि मुस्लिम समाज के लोगों को अपने धर्म की माकूल बातों का इल्म नहीं है, लेकिन मजहब की आड़ में वंदेमातरम और भारत माता के जयकारे की जिस तरह व्याख्या शाही इमाम कर रहे हैं और अपने गुस्से का इजहार कर मुस्लिम जमात को अन्ना के आंदोलन से उन्हें दूर रहने का संदेश प्रसारित कर रहे हैं, दाल में कुछ काला ही लगता है। इस तरह की भाषा का प्रयोग या तो कश्मीरी अलगाववादी गिलानी की जुबान पर देखी जाती है या फिर छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी और मानवाधिकार की अंधपैरोकार अरुंधति राय द्वारा व्यक्त किया जाता है। यह संयोग नहीं है कि शाही इमाम बुखारी द्वारा वंदेमातरम को लेकर विरोध जताने के तत्काल बाद ही अरुंधति राय यह कहती नजर आती हैं कि अन्ना का आंदोलन आक्रामक राष्ट्रवाद को प्रतिध्वनित करता है। उनका भी इशारा कहीं न कहीं वंदेमातरम और भारतमाता की जयकार की तरफ ही है। अरुंधति ने अन्ना के आंदोलन के तरीके और मकसद दोनों की आलोचना करते हुए दावा किया है कि अन्ना के आंदोलन का तरीका भले ही गांधीवादी हो सकता है, लेकिन उनकी मांगे गांधीवादी नहीं हैं। मतलब साफ है कि अन्ना हजारे के आंदोलन पर पूरी योजना के साथ हमला बोला गया है। शक तो यह भी होने लगा है कि कहीं बुखारी और अरुंधति राय के पीछे वे शक्तियां तो लामबंद नहीं हो रही हैं, जो अन्ना के आंदोलन पर अनर्गल सवाल दागकर उसकी धार को कुंद करना चाहती है? इस आशंका से बिल्कुल ही इनकार नहीं किया जा सकता है।


अक्सर देखा गया है कि जब भी किसी मसले पर देश के लोग एकता के सूत्र में बंधते नजर आते हैं, राष्ट्रद्रोही ताकतों की देह में आग लग जाती है और वे अति सक्रिय होकर नए-नए शिगूफे छोड़ना शुरू कर देती हैं ताकि राष्ट्रीय एकता में दरार पैदा की जा सके। लेकिन उससे भी बड़ी त्रासदी यह है कि इन कुतर्कवादियों के अघोर विचारों से सरकार तो इत्तेफाक रखती ही है, समाज के बौद्धिक कहे जाने वाले जुगालीकार भी उन्हें अपना समर्थन और सहमति देते नजर आते हैं। याद कीजिए, जब अप्रैल महीने में टीम अन्ना ने जंतर-मंतर पर जनलोकपाल को लेकर आंदोलन किया था तो उस वक्त मंच पर भारत माता का चित्र लगा हुआ था। इसे लेकर सरकार सहित तमाम विध्वंसकारियों द्वारा तरह-तरह के सवाल दागे गए। इन लोगों ने अफवाह फैलाने की कोशिश की कि इस आंदोलन के पीछे आरएसएस और हिंदुवादी शक्तियां खड़ी हैं। उनका बेहूदा तर्क यह था कि आरएसएस के कार्यक्रम में भारत माता के चित्र लगे होते हैं और अन्ना के आंदोलन में भी ऐसा ही हुआ है, लेकिन इनसे पूछा जा सकता है कि क्या आरएसएस ने भारत माता का कॉपीराइट करा रखा है, जो उसकी मर्जी के बिना कोई चित्र नहीं लगा सकता है? क्या आरएसएस राष्ट्रद्रोही संस्था है? सवाल यह भी है कि क्या भारत माता के चित्र लगाने वाला या उनके जयकारे बोलने वाला अपने ही देश में सांप्रदायिक कहा जाएगा? इस तरह की विध्वंसकारी सोच के उस्तादों और वितंडा खड़ा करने वाले गिरोहबाजों पर रोक लगाने के बजाए भारत सरकार खुद उन्हें संरक्षण देती नजर आ रही है। पिछले दिनों देखा भी गया कि सरकार की नाक के नीचे ही दिल्ली में कश्मीरी अलगाववादी गिलानी और अरुंधति राय जैसे राष्ट्रद्रोहियों ने अपनी विध्वंसक सोच के बरक्स राष्ट्रीय संप्रभुता को चुनौती दे डाली और मनमोहन सिंह की निरीह सरकार तमाशा देखती रही। सरकार की हिम्मत नहीं पड़ी की वह इन बड़बोलों के मुंह पर ताला झुला सके। सरकार के होनहार गृहमंत्री जिनकी जुबान पर अक्सर हिंदू संगठनों के खिलाफ जहर ही भरा रहता है, वे भी अपना काहिलपन दिखाते नजर आए। सवाल इस बात का नहीं है कि कोई भारतमाता की तस्वीर लगाए या न लगाए, सवाल वंदेमातरम बोलने या न बोलने को लेकर भी नहीं है। असल सवाल उसके विरोध का है। विस्मय की बात तो यह है कि वंदेमातरम और भारत माता के जयघोष का विरोध करने वाला आज अपने को राष्ट्रभक्त कहता फिर रहा है और देश के पाखंडी बुद्धिजीवियों द्वारा उसे सर्टिफिकेट जारी किया जा रहा है, लेकिन उन राष्ट्रवादियों के चरित्र पर जरूर उंगली उठाई जा रही है, जो वंदेमातरम और भारत माता की जय का गगनभेदी नारा लगाकर देशवासियों में जज्बा पैदा करते हैं। आखिर ऐसा क्यों? इतिहास गवाह है कि भारत माता की जय और उनकी तस्वीर की पूजा आज से नहीं सदियों से की जा रही है। भारतीय कालजयी संस्कृति में अपनी मातृभूमि और राष्ट्रीयता के प्रति अनुरक्ति और समर्पण का भाव प्रारंभ से ही रहा है। वंदेमातरम के नारे ने क्रांतिकारियों के लिए संजीवनी का काम किया है। फिर वंदेमातरम के राष्ट्रीय भाव को लांक्षित करने की चेष्टा क्यों की जा रही है? अगर संघ जैसे संगठन वंदेमातरम का एहतराम करते हैं और भारत माता के चित्र के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करते हैं तो इसमें अनुचित क्या है? वंदेमातरम आजादी की लड़ाई का मुख्य नारा था।


क्रांतिकारियों ने इसी नारे के उद्घोष के बूते अंग्रेजों के खिलाफ जनजागृति पैदा की। वंदेमातरम और भारत माता की जय बोलकर मां भारती के वीर सपूतों ने हंसते-हंसते फांसी का फंदा चूम लिया। फिर क्यों न माना जाए कि वंदेमातरम पर सवाल उठाने वाले लोग भगत सिंह, आजाद, बिस्मिल और तमाम क्रांतिकारियों को जानबूझकर अपमान कर रहे हैं? उससे भी बड़ी त्रासदी यह है कि लंपट और राष्ट्रविरोधी ताकतों के अनर्गल प्रलापों से डरकर सामाजिक संगठनों ने भी उन्हीं का राह पकड़ लिया है। अब देखिए न पिछले दिनों जंतर-मंतर पर टीम अन्ना के आंदोलन के दौरान भारत माता का विशाल चित्र लगा हुआ था। लंपटियों ने खूब हाहाकार मचाया। टीम अन्ना सफाई देती रही। उसका प्रभाव यह रहा कि आज रामलीला मैदान में आंदोलन के दौरान भारतमाता का चित्र नहीं लगा है। सच मानिए, टीम अन्ना ने तथाकथित सेक्युलरिस्टों और बकवासवादियों के कुतर्क से डरकर ही ऐसा किया होगा। अगर इस देश में इसी तरह बकवासवादियों का जोर चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं, जब अपने ही देश में वंदेमातरम बोलने वालों पर मुकदमे ठोके जाएंगे और साथ ही जेल की हवा खानी पड़ेगी। वैसे भी इस देश में जब तक संप्रग का शासन है, आपको कश्मीर के लालचौक पर तिरंगा फहराने की छूट नहीं मिल सकती है। हिम्मत हो तो आजमा कर देख लीजिए। बुखारी और अरुंधति राय जैसे लोग पहले से ही मोर्चा खोले बैठे हैं और उन्हें सरकार का संरक्षण प्राप्त है।


अभिजीत मोहन लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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