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जरूरी है एएफएसपीए

जागरण मेहमान कोना
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जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्सों से सशस्त्र सेना विशेषाधिकार अधिनियम (एएफएसपीए) हटाने के मामले में उमर अब्दुल्ला की टिप्पणियों पर उनकी आलोचना नहीं की जा सकती। यहां तक कि गृहमंत्री द्वारा उनका समर्थन किए जाने की भी निंदा नहीं की जा सकती। दरअसल एएफएसपीए असामान्य स्थितियों के लिए एक असामान्य कानून है। अगर उमर इसे हटाने की मांग कर रहे हैं तो इसका मतलब यह होगा कि जम्मू-कश्मीर की स्थिति सामान्य होती जा रही है। अगर यह सच है तो आलोचकों को अपना मुंह बंद कर लेना चाहिए। हम सभी जानते हैं कि उमर, चिदंबरम और मानवाधिकारों के तथाकथित समर्थकों को एएफएसपीए से चिढ़ है। उनकी प्रमुख दलील यह है कि इससे राज्य में हालात बिगड़ रहे हैं। अगर केंद्र सरकार के ताजा आंकड़ों और उमर की मांग पर गौर करें तो ऐसा नहीं है। कहा तो यह जा सकता है कि एएफएसपीए ने राज्य की स्थिति में इतना सुधार किया है कि अब इसकी जरूरत ही नहीं है। दूसरे शब्दों में एएफएसपीए की निंदा नहीं बल्कि सराहना की जानी चाहिए।


64 साल पहले 27 अक्टूबर को जम्मू-कश्मीर को पाकिस्तान आर्मी की शह पर आए कबाइली हमलावरों से बचाया गया था। इसके बाद से हमारी सेना नियंत्रण रेखा पर चौकसी बरत रही है। इस काम में हजारों लोगों ने अपनी जानें भी दी हैं। क्या इस बलिदान की अनदेखी की जा रही है? अगर उमर अब्दुल्ला यह समझते हैं कि घाटी में सुरक्षा का स्तर इस हद तक सुधर गया है कि एएफएसपी और डीएए को कुछ हिस्सों से हटाया जा सकता है तो ऐसा इसलिए संभव हो पाया है कि सेना वहां थी और कारगर ढंग से अपना कर्तव्य निभा रही थी। अब अगर अलगाववादियों की अक्सर दोहराई जाती रही एएफएसपीए तथा सेना हटाने की मांग को मान लिया जाता है तो इसमें रत्ती भर भी संदेह नहीं कि आइएसआइ और जिहादी कश्मीर-विभाजन के 1948 के अधूरे एजेंडे को पूरा करेंगे। दुनिया जानती है कि भारत के खिलाफ पाकिस्तान आर्मी का आतंकी ढांचा सक्रिय ही नहीं हो गया है, बल्कि उसने नए-नए तरीके ईजाद कर लिए हैं। उमर को याद होगा कि दिल्ली उच्च न्यायालय के विस्फोट के आरोपियों के तार किश्तवार से जुड़े थे। अंबाला में विस्फोटकों से भरी कार का मिलना भी कश्मीर में सक्रिय लश्कर के आतंकवादियों का ही कारनामा था।


एएफएसपीए कोई सामान्य कानून नहीं है। यह दो असाधारण स्थितियों में- अलगाववादी हिंसा और अंदरूनी गड़बडि़यों में इस्तेमाल के लिए संसद का एक विशेष प्रावधान है। 1958 से ही अलगाववादी हिंसा से ग्रस्त कुछ उत्तरपूर्वी राज्यों और कश्मीर में इसका इस्तेमाल किया गया है। पुलिस के हालात संभालने में नाकाम रहने के बाद ही सशस्त्र बलों को बुलाया जाता है। इससे सशस्त्र बलों को किसी भी कानून के खिलाफ काम करने वालों और घातक हथियार रखने के संदिग्धों को बिना वारंट गिरफ्तार करने, उनके घरों की तलाशी लेने का अधिकार मिलता है। स्वाभाविक रूप से इस कानून के साथ कुछ शर्ते जुड़ी हैं और उल्लंघन करने वाले जवानों/ अफसरों के खिलाफ कार्रवाई भी की जा सकती है।


1990 के बाद से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार 1,511 मामलों में सुरक्षा बलों पर मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप लगे। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की जांच में इनमें से 1,473 मामले (98 प्रतिशत) झूठे पाए गए। जिस देश में दोषी पाए जाने के छह साल बाद भी एक अफजल गुरु को फांसी पर नहीं लटकाया गया है या जहां कसाब जैसे आतंकवादियों को संरक्षण मिल रहा है वहां सैन्य न्याय का इससे बेहतर उदाहरण और क्या हो सकता है। जो आलोचक कहते हैं कि सेना, सामान्य कानूनों के तहत काम क्यों नहीं कर सकती उनसे सीधा सा एक सवाल पूछा जा सकता है कि अगर सेना किसी आपरेशन के दौरान खुद से कोई कदम नहीं उठा सकती और उसे किसी सिविलियन मंजूरी की बाट जोहनी पड़ती हो तो उसकी कार्रवाई, सामान्य पुलिस से अलग कैसे हो सकती है?


एएफएसपीए पर एशिया डिफेंस न्यूज ब्यूरो का आंकलन


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