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अन्ना लीला अब समाप्त हो चुकी है। अब इस बात का लेखा-जोखा शुरू हो चुका है कि विगत 12 दिनों से देश के विभिन्न हिस्सों में भ्रष्टाचार समाप्ति को लेकर जो सरगर्मी दिखी थी और जगह-जगह लोग आंदोलित थे, इन सबका नतीजा क्या निकला? क्या इसे किसी पक्ष की हार या जीत के तौर पर देखा जा सकता है? कहीं ऐसा तो नहीं कि संसद में पहले से प्रस्तुत एक बिल में जन दबाव के नाम पर कई अन्य पूरक संस्तुतियों को जोड़ने के ऐतिहासिक कदम के जरिए हम भविष्य के लिए एक मुसीबत मोल ले रहे हैं? आने वाले दिनों में अगर कोई लोकरंजक नेता सामने आए, जो लोगों के एक हिस्से को आंदोलित करे, मगर उसका मुद्दा सामाजिक न्याय या समावेशी समाज बनाने के संविधान के संकल्प के विरोध में हो तो क्या हम उसे भी स्थान देने वाले हैं? इस समूची आपाधापी में मीडिया जिसे जनतंत्र का प्रहरी कहा जाता है, उसकी भूमिका कैसी रही? क्या वह पत्रकारिता की तटस्थता एवं वस्तुनिष्ठता के मूल्यों पर कायम रह सका या सभ्य समाज द्वारा स्थापित इन मापदंडों को किनारे लगाकर उसने अपना पक्ष चुना? निश्चित ही इन तमाम बिंदुओं की विवेचना होती रहेगी, मगर इस बात पर सहमत होने में किसी को परेशानी नहीं होगी कि भ्रष्टाचार के मुद्दे के प्रति जनता के बड़े हिस्से के गुस्से का ध्यान आकर्षित कराने में यह मुहिम सफल हुई है।
वैसे अगर बारीकी से देखें तो हालिया आंदोलन गंभीर समझदारी पेश करने में या उसकी जड़ों को चिह्नित करने में सफल नहीं रहा। उल्टे एक बुजुर्ग समाजसेवी के जीवन को दांव पर लगाकर उसने ऐसी किसी चर्चा के दरवाजे भी पूरे तौर पर बंद रखा। मालूम हो कि जनलोकपाल का जो खाका चर्चा के लिए पेश किया गया है, वह ऐसे दस लोगों की टीम के हाथों इस लड़ाई की कमान सौंपना चाहता है, जो एक साथ पुलिस, जांच एजेंसी तथा न्यायपालिका सभी भूमिका निभा सकता हो। हमारे मुल्क में जहां नेताओं, नौकरशाहों के भ्रष्ट होने के जितने किस्से सुनाई देते रहते हैं, उसमें इस बात की क्या गारंटी है कि ऐसी टीम के सदस्य बेईमान नहीं होंगे। फिर उन पर अंकुश कौन लगाएगा? आंदोलन के दौरान यह भी नहीं पूछा जा सकता था कि क्या एक और कानून बनाकर या संस्था खड़ी करके इससे निपटा जा सकता है? जानकार बताते हैं कि आजादी के बाद 64 से अधिक कानून बने हैं या नियामक संस्थाएं बनी हैं, जांच एजेंसियां कायम की गई हैं, ताकि भ्रष्टाचार को समाप्त किया जाए। इरादे भले ही नेक रहे हों, मगर पाते यही हैं कि जितनी भी दवा हो रही है, भ्रष्टाचार का मर्ज बढ़ता ही जा रहा है। भ्रष्टाचार को लेकर ऐसी किसी गंभीर बहस के न होने के चलते और एकमात्र न्यूनतम कार्यक्रम पीपुल्स बिल के नाम पर प्रस्तुत जन लोकपाल बिल पर सहमति रखना बनाने से प्रस्तुत आंदोलन में तमाम तत्वों को खुली छूट मिली थी, जिसमें अपने विवादास्पद अतीत या वर्तमान वाले साधुओं से लेकर ऐसे लोग भी शामिल थे, जो यह मानते हैं कि भ्रष्टाचार की जड़ में आरक्षण की व्यवस्था है और उसे समाप्त करना होगा।
रामलीला मैदान में किसी क्रांतिकारी मनुवादी मोर्चा के बैनरों की मौजूदगी या यूथ फॉर इक्वालिटी नामक आरक्षण विरोधी आंदोलन के कार्यकर्ताओं की इस मुहिम में सहभागिता एक अलग ही इबारत लिख रही थी। अपने चर्चित आलेख मैं अन्ना क्यों नहीं हूं में अरुंधति रॉय ने इस सवाल को भी बखूबी रखा था कि इंडिया अगेंस्ट करप्शन के दानदाताओं में कॉरपोरेट समूहों से भी चंदा मिला था, जिनमें ऐसे लोग उनमें शामिल हैं जो खुद विशेष आर्थिक क्षेत्र चलाते हैं, जो वित्तीय साम्राज्य चलाने वाले राजनेताओं से नजदीकी से जुड़े हैं, जिनमें से कुछ के खिलाफ भ्रष्टाचार और अन्य अपराधों को लेकर जांच भी चल रही है। वह पूछती हैं कि यह कॉरपोरेट सम्राट आखिर भ्रष्टाचार समाप्ति को लेकर इतने उत्साही क्यों रहे हैं? यह समझने की जरूरत है कि भ्रष्टाचार के जरिये सरकारी अधिकारी ही मालामाल नहीं होते, उसका सबसे बड़ा फायदा तो कॉरपोरेट सम्राटों को मिलता है। 2जी घोटाले को देखें तो कानिमोरी 200 करोड़ रुपये के चलते या ए राजा ऐसे ही कुछ सौ करोड़ रुपये की रिश्वत पाए होंगे, मगर एक लाख 70 हजार करोड़ रुपये के घोटाले की असली मलाई तो कॉरपोरेट सम्राटों को ही मिली। यह अकारण नहीं था कि जन लोकपाल बिल ने कॉरपोरेट क्षेत्र को इसके दायरे से वंचित रखा था।
लेखक सुभाष गाताडे स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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