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फौज में घोटाले, सैन्य अधिकारियों की खींचतान और इनके बीच सरकार के पसोपेश में डालने वाले फैसले। सेनाध्यक्ष के उम्र विवाद से लेकर चीन के साथ ताजा वीजा विवाद जैसे सवालों के साथ हमने बात की एक फौजी अधिकारी से देश के रक्षामंत्री तक का सफर तय करने वाले पूर्व केंद्रीय मंत्री जसवंत सिंह से। रक्षा, विदेश और वित्त मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाल चुके वरिष्ठ भाजपा नेता सिंह केवल राजनेता नहीं, बल्कि रणनीतिक मामलों के विचारक और रक्षा चिंतक हैं। पेश हैं दैनिक जागरण के विशेष संवाददाता प्रणय उपाध्याय के साथ उनकी बातचीत के अंश..
सेना में आदर्श, सुकना जैसे भूमि घोटालों व सैन्य नेतृत्व की आपसी खींचतान ने भ्रष्टाचार के दाग लगाए हैं। बतौर एक पूर्व फौजी और पूर्व रक्षामंत्री आप इसे कैसे देखते हैं?
फौज भी समाज का एक हिस्सा है। समाज के गुण-दोष फौज में आएं, यह निश्चित है। मैं यह जरूर मानता हूं कि नजरिया बदला है। पहले फौज नौकरी नहीं थी, बल्कि एक तड़प थी। यह ध्यान रखिए भ्रष्ट आचरण केवल पैसों का नहीं होता। फौज की नौकरी सेवा है, इसीलिए उनके संबंध में सर्विसेज शब्द का प्रयोग होता है। लगता है कि सेवाभाव कम हो गया है।
तो इस समस्या का समाधान क्या है?
यह ध्यान रखिए कि कम से कम सजा तो समाधान नहीं है। आदर्श हो गया, सुकना हो गया। दोषियों को सजा भी मिल गई। और भी कई सवाल हैं। क्या जिन्हें सजा मिली वही दोषी हैं? मुझे दिनकरजी की पंक्तियां याद आती हैं-समर शेष है नहीं दोष का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध। राजनीतिक लाभ के लिए समाज के टुकड़े कर दिए गए हैं। हर टुकड़े का सियासी लाभ उठाने की होड़ है। ऐसा होगा तो फौज या सर्विसेज कैसे अछूती रहेगी।
सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह की जन्मतिथि को लेकर उपजा विवाद आज चर्चा का विषय बना हुआ है। आप इसे किस तरह देखते हैं?
निश्चय ही इस नाजुक मामले को संभालने में बहुत बड़ी कमी रही है। सवाल है कि सेनाध्यक्ष की कुर्सी तक पहुंचने वाले फौजी को आप भारत की सुरक्षा का जिम्मा तो दे सकते हैं, लेकिन जन्मतिथि पर उसकी बात नहीं मान सकते। यह कितनी विचित्र बात है। मैं 1954 में ज्वाइंट सर्विसेज विंग में बतौर कैडेट भर्ती हुआ था। बाद में राष्ट्रीय रक्षा अकादमी के शुरुआती बैच में भी प्रशिक्षण लिया। यह दैवीय संयोग ही है कि मैं जेएसडब्ल्यू, एनडीए व भारतीय सैन्य अकादमी में प्रशिक्षु से लेकर रक्षामंत्री की कुर्सी तक पहुंचने वाला एक मात्र व्यक्ति हूं। बीते दिनों एनडीए खडगवासला के दौरे में उन्होंने कई पुराने दस्तावेज भी निकाले, जिसमें मेरे आवेदन पत्र भी शामिल हैं। इसमें मेरी जन्मतिथि के स्थान पर तारीख की बजाए केवल अक्टूबर 1938 अंकित है और वह भी गलत है। जन्मस्थान भी जोधपुर अंकित है, जबकि मेरा जन्म अपने गांव जसौल में हुआ। महज 15 वर्ष की उम्र में मेरे द्वारा भरा गया फार्म है यह। नहीं मालूम कैसे हुआ। बहरहाल, तकनीकी पहलू की बात करें तो भी यह स्पष्ट है कि जन्मतिथि की तस्दीक एडजुडेंट जनरल शाखा के दस्तावेज करते हैं। इसमें सैन्य सचिव शाखा का कोई लेना-देना नहीं, लेकिन सरकार ने जिस तरीके से इस मामले को उलझाया है और एक व्यर्थ का विवाद पैदा किया उसकी मैं निंदा करता हूं।
क्या आपको लगता है कि सेनाध्यक्ष और सरकार, दोनों ने ही टकराव को बढ़ाया या आप किसी एक को दोषी मानते हैं?
विवाद कहां शुरू हुआ? जनरल सिंह सेनाध्यक्ष तो बन गए। एक आरटीआइ आवेदन आया था, जो इस मामले को पुनर्जीवित करता है। उस समय आवश्यक था कि सरकार उसे आगे नहीं बढ़ाती। सवाल लाजिमी है कि क्या इसे आगे बढ़ाने के लिए सरकार की कोई अन्य योजना है? मैं यह स्पष्ट कहना चाहूंगा कि सेना के कमांडर-इन-चीफ के साथ ऐसा व्यवहार मत कीजिए। रक्षा संबंधी मामले बिनी कोई हल्ला किए तय किए जाते हैं। खेद है इसे ठीक तरीके से नहीं संभाला गया।
मौजूदा रक्षा चुनौतियों के मद्देनजर सेनाओं का आधुनिकीकरण एक गंभीर चुनौती बनकर उभरा है। इसकी क्या वजह है?
यह सचमुच एक बेहद गंभीर मसला है। सेनाओं के आधुनिकीकरण की रफ्तार बेहद धीमी है, क्योंकि रक्षामंत्री अनिर्णय की स्थिति में हैं। भारत जैसे देश में यह संभव नहीं कि दस में से दस फैसले ही सही हों, लेकिन इसके भय से फैसले लेना ही बंद कर दिया जाए तो यह और भी गंभीर समस्या है।
.लेकिन यह कमी एक दिन में नहीं उभरी। इसके लिए आप अपने आप को कितना दोषी मानते हैं?
इसमें हमारा भी दोष है। व्यक्तिगत रूप से भी मैं अपने को भी कुछ दोष देता हूं। मुझे याद आता है कि तीस बरस पहले पोखरण में बोफोर्स तोपों का परीक्षण चल रहा था और सांसद के तौर पर मैं सेनाध्यक्ष जनरल सुंदरजी के साथ उसे देखने गया था। उसे देखने के बाद मैंने कहा था कि तोपें तो शानदार हैं, लेकिन इनकी खरीद प्रक्रिया खराब है। इसके बाद ही वीपी सिंह सरकार ने बोफोर्स को ब्लैकलिस्ट कर दिया। इस वाकये ने सेना की खरीद प्रक्रिया को ही पंगु बना दिया।
आप उन कुछ राजनेताओं में हैं जिन्होंने रक्षा, विदेश और वित्त मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाली है। राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मामलों में कई बार अहम मंत्रालयों में तालमेल की कमी क्यों नजर आती है?
मैं अपने अनुभवों के आधार पर कह सकता हूं कि इन दोनों मंत्रालयों की नीतिगत जिम्मेदारियों में विभेद करना मुश्किल है, लेकिन मौजूदा तस्वीर देखें तो नीतियों और निर्णय क्षमता की पंगुता दिखाई देती है। विदेश मंत्री एसएम कृष्णा एक सज्जन व्यक्ति हैं, लेकिन लगता है कि विदेश नीति के मामलों से उनका दूर का वास्ता है। वहीं रक्षा मंत्री एके एंटनी मेरे बहुत अच्छे मित्र हैं, परंतु उन्हें निर्णय लेने से परहेज है। संसद में पूर्व फौजियों की संख्या ही कितनी है? कहने में अटपटा लगता है लेकिन सच्चाई है कि संसद में 1962, 1965 या अन्य किसी युद्ध का अनुभव रखने वाला मैं अकेला ही हूं।
एक वायुसेना अधिकारी को वीजा से इंकार के बावजूद भारत अपना सैन्य प्रतिनिधिमंडल चीन भेज रहा है। इसने रक्षा और विदेश मंत्रालय में तालमेल की कमी को फिर उजागर किया है।
यह बहुत दुखद स्थिति है। यह मालूम होना चाहिए कि भारत से अगर अरुणाचल प्रदेश का कोई अधिकारी जाएगा तो चीन उसके वीजा में अड़चन डालेगा। यह तो ध्यान रखिए कि कहीं हमारा उपहास न बन जाए। पहले तीस अधिकारी भेजे जा रहे थे, फिर घटा कर 15 कर दिए गए। ऐसा था तो उस एक अधिकारी को नहीं भेजते।
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