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एक बार फिर ठंडे बस्ते में गए लोकपाल बिल की बुनियादी खामियों को उजागर कर रहे हैं जसबीर सिंह
भारत में भ्रष्टाचार के मामलों की स्वतंत्र जांच अभी भी दूर की कौड़ी बनी हुई है। लंबे समय से चर्चित व लंबित लोकपाल बिल पिछले 42 सालों में 11वीं बार ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। वोट बैंक के निहित स्वार्थो के कारण विभिन्न राजनीतिक दलों ने राज्यसभा में एक-दूसरे पर कीचड़ उछालकर, टांग खिंचाई करके और जबरदस्त हंगामा करके बिल पास नहीं होने दिया। मीडिया और सिविल समाज के दबाव में सरकार ने आधे-अधूरे मन से एक दंतहीन लोकपाल बिल तैयार किया था। संसद की स्थायी समिति द्वारा तैयार इस लोकपाल बिल के मसौदे में ही खोट था। इसके आधार पर मजबूत लोकपाल का गठन हो ही नहीं सकता। इसने एक मजबूत, प्रभावी और कारगर भ्रष्टाचार रोधी तंत्र विकसित करने के बजाय एक पंगु लोकपाल की अवधारणा सामने रखी, जिसके पास जांच तक का अधिकार नहीं होगा। इसके दायरे में प्रधानमंत्री को आंशिक रूप से शामिल किया गया, जबकि संसद में सांसदों के व्यवहार को बाहर कर दिया गया। संसदीय समिति में दो ऐसे सदस्यों की उपस्थिति से ही लोकपाल को लेकर सरकार की गंभीरता और नीयत साफ हो जाती है, जो खुद दागी माने जाते हैं।
यद्यपि लोकपाल का गठन करने में राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव कई रूपों में सामने आया है, किंतु लोकपाल के ढांचे में आरक्षण की मांग तो इसकी पराकाष्ठा है। आरक्षण का पेंच लोकपाल में जानबूझकर डाला गया, ताकि संसद में बिल का पास होना संभव न रहे। अगर पास हो भी जाए तो अदालत में इसे चुनौती दी जा सके। विडंबना यह है कि एक ऐसी इकाई में आरक्षण की मांग रखी गई, जिसकी रोजगार या शैक्षणिक अवसरों के सृजन में कोई भूमिका ही नहीं है। अगर लोकपाल में आरक्षण दिया जाता है तो फिर चुनाव आयोग, केंद्रीय व राज्य सतर्कता आयोग आदि में भी आरक्षण दिया जाना चाहिए। इसके बाद विधायिका और न्यायपालिका का नंबर लगेगा। इससे भी अहम यह है कि अगर लोकपाल में अल्पसंख्यक कोटा रखा जाता है तो फिर जिन संस्थानों में अनुसूचित जाति/जनजाति और ओबीसी कोटा है, उनमें भी अल्पसंख्यक कोटा देना होगा। इससे समस्याओं का पिटारा खुल जाएगा।
लोकपाल के तहत सीबीआइ को अभियोजन और जांच-पड़ताल विभागों में बांटना भी सुप्रीम कोर्ट के अनेक फैसलों के खिलाफ है। संसद में पेश बिल की धारा 20 के तहत लोकपाल को जांच-पड़ताल की शक्तियों के बिना ही कोई भी मामला दर्ज करने या खत्म करने की छूट देना कानून का मखौल उड़ाने के समान है। 1968 में अभिनंदन झा बनाम दिनेश मिश्रा मामले से लेकर अब तक अनेक मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि खुद सुप्रीम कोर्ट भी जांच अधिकारी को निर्देश नहीं दे सकता, किंतु प्रशासकीय व वित्तीय शक्तियां सरकार के हाथ में होने के कारण राजनीतिक माफिया के दबाव में असरदार लोगों के खिलाफ जांच को आसानी से प्रभावित कर दिया जाता है। लोकपाल को उच्च पुलिस अधिकारी की निरीक्षण की शक्तियां और सीबीआइ को स्वतंत्रता व स्वायत्तता दी जानी चाहिए थी।
दरअसल, उच्च पदस्थ लोगों के खिलाफ जांच तब तक संभव नहीं है जब तक पुलिस सुधार लागू न किए जाएं या फिर मजबूत लोकपाल का गठन न किया जाए। पुलिस सुधार का विचार इसलिए आया ताकि पुलिस को लोगों के प्रति जवाबदेह बनाया जा सके और उसे स्वतंत्र रूप से काम करने का अवसर दिया जा सके। इसके लिए उसे राजनेताओं के नियंत्रण से मुक्त करना जरूरी है। राजनेता अनावश्यक तबादले और निलंबन के दबाव में पुलिस से अनुचित कार्य कराते हैं। चाहे सरकारी लोकपाल का मसौदा हो या सिविल समाज का, इसकी रूपरेखा ही गलत बनाई गई है। यह धारणा सही नहीं है कि भ्रष्टाचार के मामलों से निपटने में एकमात्र सक्षम एजेंसी सीबीआइ ही है। नए लोकपाल में प्रवर्तन निदेशालय की अनदेखी करना समझ से परे है। निजी क्षेत्र में प्राथमिक भ्रष्टाचार से निपटने में यह सीबीआइ से भी ज्यादा महत्वपूर्ण इकाई है। यह सरकारी अधिकारियों, राजनेताओं और निजी क्षेत्र में लेन-देन की पड़ताल करने में सबसे सक्षम एजेंसी है।
सरकार के अधीन सभी जांच एजेंसियों को एकल स्वायत्त जांच एजेंसी के रूप में हांगकांग में सुदृढ़ किया गया था, जिसके बहुत अच्छे परिणाम सामने आए। असल में भ्रष्टाचार से निपटने में हमारी विफलता का एक कारण यह भी है कि सरकार की विभिन्न जांच एजेंसियों और इनके विभागों में आपस में अधिक समन्वय नहीं है। इसे दुरुस्त करने के लिए दो कदम उठाए जाने बेहद जरूरी हैं। पहला यह कि विद्यमान भ्रष्टाचार रोधी इकाइयों और विभागों को एकल स्वतंत्र जांच इकाई में पुनगर्ठित किया जाए और इसे लोकपाल के अधीन किया जाए। दूसरा उपाय यह है कि इसके ऊपर से नौकरशाही और राजनीतिक तंत्र का नियंत्रण हटाया जाए। जो बिल सरकार ने संसद में पेश किया है वह इन दोनों ही जरूरतों को पूरा करने में पूरी तरह विफल रहा है। इसके विपरीत सरकार ने तो यह काम और पेचीदा व कठिन कर दिया है। लोकपाल बिल के अनुसार सीबीआइ को दो टुकड़ों में बांट दिया गया है और इन दोनों पर नियंत्रण अलग-अलग एजेंसी को दे दिया है। लगता है कि यह जानबूझकर लोकपाल को कमजोर बनाने के लिए किया गया है। सीबीआइ के दोनों विभाग आपस में टकराते रहेंगे जिससे बड़े घोटालों के मामले कमजोर पड़ जाएंगे। बिल में लोकपाल को किसी प्रकार की जांच की शक्तियां प्रदान न कर इसे दंतहीन बना दिया है। जांच और प्रशासन राजनीतिक आकाओं के अधीन होने के कारण वे जांच के दौरान कभी भी महत्वपूर्ण साक्ष्यों को नष्ट करवा सकते हैं और इस प्रकार भ्रष्टाचार के मामलों में, चाहे वे लोकपाल के अधीन ही क्यों न हो, आरोप सिद्ध करना लगभग असंभव बना देंगे। दंतहीन लोकपाल बिल पेश करने का मतलब यही निकलता है कि देश के भ्रष्टाचाररोधी संस्थानों में भ्रष्टाचारों से निपटने की जो थोड़ी-बहुत क्षमता बची है, वह भी खत्म कर दी जाए और भ्रष्ट राजनेताओं व नौकरशाहों को सुरक्षा कवच प्रदान कर दिया जाए। भ्रष्टाचार से निपटने का कोई सुनिश्चित फार्मूला नहीं है। फिर भी एक त्रिस्तरीय रणनीति से इस पर अंकुश जरूर लगाया जा सकता है। इसके तहत भ्रष्टाचार के दोषियों के खिलाफ कड़े दंड का प्रावधान, भ्रष्टाचार होने से पहले इसकी रोकथाम के उपाय करना और भ्रष्टाचार से निपटने के तरीकों के बारे में जागरूकता को बढ़ावा देना शामिल हैं।
लेखक जसबीर सिंह आइपीएस अधिकारी हैं और ये उनके निजी विचार हैं
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