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हाल में दिल्ली की तीस हजारी अदालत ने झूठी इज्जत की खातिर हत्या करने वाले एक परिवार के पांच लोगों को मौत की सजा सुनाकर समाज में जो सख्ती का संदेश भेजा है, उस पर अब ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है। शिया समुदाय की रूबीना ने अपने परिवार की मर्जी के खिलाफ सुन्नी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले एक लड़के सादिक से प्रेम विवाह किया था। इससे नाराज होकर रूबीना के भाई व अन्य नजदीकी रिश्तेदारों ने लड़के के भाई तारिक की वर्ष 2008 में हत्या कर दी थी। तीस हजारी अदालत की एडिशनल सेशन जज विमल कुमारी ने इस घटना को जघन्यतम करार देते हुए मोहम्मद सलीम, शहीन अब्बास, साजिद वसीम, जारगम अली एवं शबिर कासिम को फांसी की सजा सुनाई। अपने फैसले में सर्वोच्च अदालत के फैसले का हवाला देते हुए सेशन जज ने कहा, हमारी राय में ऑनर किलिंग के जो भी कारण रहे हों, वे दुर्लभ से दुर्लभतम की श्रेणी में रखते हुए मौत की सजा पाने के हकदार हैं। जज ने यह साफतौर पर कहा कि शीर्ष अदालत द्वारा ऑनर किलिंग को दुर्लभ से दुर्लभतम की श्रेणी में ठहराए जाने के चलते मेरे पास सभी आरोपियों को मौत की सजा दिए जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। इसमें कोई दो राय नहीं कि ऐसे मामलों में अदालत द्वारा सुनाई गई मौत की सजा को हल्के में लेना मुश्किल होगा।
करीब पांच महीने पहले मई में सर्वोच्च अदालत ने झूठी इज्जत के एक मामले में जिसमें एक पिता ने अपनी बेटी की हत्या कर दी थी, कहा था-यदि कोई अपनी बेटी या किसी अन्य व्यक्ति से जो उसके रिश्ते या समुदाय से ताल्लुक रखता हो नाराजगी की सूरत में उससे सामाजिक संबंध खत्म कर सकता है, लेकिन वह उसके खिलाफ हिंसक तौर-तरीकों का इस्तेमाल या हिंसा की धमकी नहीं दे सकता। गौरतलब है कि सर्वोच्च अदालत ने वर्ष 2006 में अपने एक फैसले में कहा था-ज्यादातर लोग खुद को तब बेइज्जत महसूस करते हैं जब उनका कोई रिश्तेदार या उनके समुदाय का कोई युवक अथवा युवती उनकी इच्छा के खिलाफ शादी करता है या किसी के साथ उसके प्रेम संबंध होते हैं। इसलिए ऐसे लोग कानून अपने हाथ में ले लेते हैं और उस व्यक्ति को मार देते हैं या उस पर शारीरिक हमला करते हैं। कुछ महीने पहले ही सर्वोच्च अदालत ने एक मामले में खाप पंचायतों को अवैध करार देते हुए उन्हें सख्ती से बंद करने को कहा था।
जस्टिस मार्कडेय काटजू और ज्ञानसुधा मिश्रा की बेंच ने एक फैसले में कहा कि खाप पंचायतें पूरी तरह से अवैध हैं। इन्हें फौरन बंद किया जाना चाहिए। ऑनर किलिंग में कुछ भी सम्मानजनक नहीं है। हकीकत में यह बर्बर तथा शर्मनाक हत्या है। इसे रोकने के लिए प्रशासनिक व पुलिस अधिकारियों को कड़े बंदोबस्त करने चाहिए। अगर कहीं ऐसी घटना होती है तो इसके लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ फौजदारी प्रक्रिया शुरू की जा सकती है। ऐसे मामलों में राज्य सरकार को संबधित जिला के मजिस्ट्रेट या कलेक्टर और एसएसपी या एसपी जैसे अन्य अधिकारियों को निलंबित करने व उनके खिलाफ चार्जशीट दायर करने के आदेश दिए जाएं। यदि पूर्व सूचना के बावजूद अधिकारी ऐसी घटनाओं को रोक नहीं पाते हैं तो सरकार को उनके खिलाफ विभागीय कार्रवाई करनी चाहिए। सर्वोच्च अदालत ने साथ में इस फैसले की प्रति सभी राज्यों व केंद्र शासित प्रदेश के प्रमुख सचिवों, गृह सचिवों, डीजीपी व अन्य बड़े अधिकारियों को भेजने का आदेश भी दिया है। इस फैसले के पांच दिन बाद पहली प्रतिक्रिया हरियाणा के जींद में जाट धर्मशाला से बाहर आई थी। वहां आयोजित महापंचायत में 84 खाप प्रतिनिधियों ने शिरकत की और सर्वोच्च अदालत द्वारा खाप पंचायतों के खिलाफ की गई टिप्पणी व फैसले की निंदा की। महापंचायत में आए प्रतिनिधियों ने अपने पक्ष में कहा कि जाति पंचायत मजबूत सामाजिक संस्था थी व खाप पंचायतों ने सामाजिक कल्याण के लिए कई ऐतिहासिक निर्णय लिए। मगर अदालत ने यह फैसला सुनाते वक्त उनके पक्ष को नहीं सुना यानी एक ही पक्ष को सुनकर फैसला सुना दिया। झूठी इज्जत के नाम पर हिंसा या हत्या संबंधी मामलों का एक पहलू वोट बैंक व राजनीति से भी जुड़ा हुआ है। मिसाल के तौर पर हरियाणा का जिक्र।
26 अप्रैल को हरियाणा सरकार ने पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में कहा कि खाप पंचायतों की गतिविधियां अनलॉफुल एक्टिविटीज (प्रिवेंशन) एक्ट, 1967 के दायरे में नहीं आती हैं। लिहाजा, इस एक्ट के तहत इन पर कार्रवाई नहीं की जा सकती। हरियाणा सरकार का यह जवाब लॉयर्स फॉर ह्यूमन राइट्स इंटरनेशनल संस्था द्वारा दायर उस याचिका के संदर्भ में है, जिसमें इस संस्था ने खाप पंचायतों की गतिविधियों को अवैध करार देते हुए इन पर प्रतिबंध लगाने की मांग की है। हरियाणा सरकार ने अपने जवाब में कहा है कि हिंसात्मक घटनाओं पर कानून के तहत कार्रवाई की जा रही है, लेकिन इन पंचायतों की गतिविधियों पर रोक के लिए अलग से कोई कानून नहीं है। हरियाणा सरकार का ऐसा जवाब चौंकाता नहीं, क्योंकि इसने पहले भी कहा था कि खाप पंचायतों के खिलाफ कड़े कदम उठाने से राज्य की कानून-व्यवस्था बिगड़ सकती है। दरअसल, कानून-व्यवस्था तो एक आदर्श बहाना है सारा खेल वोटों का है, राजनीति का है और सत्ता कब्जाने का है। सवाल तब खड़े होते हैं जब गोत्र की पवित्रता, आन और परिवार के मान की दुहाई देकर प्यार करने वालों के खिलाफ मौत का फतवा, गांव निकासी या दूसरे अन्य बर्बर तरीके इस्तेमाल करने का आदेश जारी कर दिया जाता है।
हरियाणा में तो हालात इसलिए भी बदतर हैं क्योंकि पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला हों या वर्तमान कांग्रेसी मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा सभी खाप पंचायतों के बर्बर, अलोकतांत्रिक फैसलों की जोरदार निंदा करने से बचते रहे हैं। दरअसल देश के जिन राज्यों में यह सामाजिक कुरीति प्रचलित हैं वहां राजनेता ही उन्हें सरंक्षण नहीं देते, बल्कि पुलिस व प्रशासन भी उचित समय पर आरोपियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने से पीछे हटता है। इसकी एक वजह राजनेताओं से मिले संकेत तो दूसरी तरफ निचले स्तर के कर्मचारी से लेकर अधिकारी स्तर तक में समुदाय विशेष का खौफ है। राज्य में चाहे विधानसभा चुनाव हों या लोकसभा के, राजनीतिक दल झूठी इज्जत के नाम पर होने वाले अत्याचारों को मुद्दा नहीं बनाते। कोई सामाजिक आंदोलन भी इस मुददे पर अधिक फोकस नहीं करता। मानवाधिकारवादी संगठन ही अदालत के सामने इस मुददे को उठाते रहते हैं। सर्वोच्च अदालत ने जब इस मामले में मौत की सजा बावत अपना रुख साफ कर दिया और तीस हजारी अदालत ने उसका पालन करते हुए पांच लोगों को मौत की सजा सुनाकर ऐसे लोगों को आगाह कर दिया है कि अब वे अपनी संकीर्ण सोच में बदलाव लाएं अन्यथा अदालत के सामने दोष साबित होने पर एक मात्र विकल्प मौत की सजा ही है।
लेखिका अलका आर्य स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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