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पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत जिले में स्थित मुस्लिम बहुल असारा गांव की 36 बिरादरी खाप पंचायत ने हाल ही में एक तुगलकी फरमान जारी किया। इस फरमान के अनुसार 40 वर्ष से कम आयु की महिलाएं बाजार नहीं जा सकतीं, लड़कियों को गांव की गलियों में भी सिर ढककर चलना होगा और युवक व युवतियां मोबाइल का प्रयोग नहीं करेंगे। खाप ने अपनी मर्जी से विवाह करने वालों को गांव से बाहर करने का भी निर्णय लिया है। यह तालिबानी निर्णय सभ्य समाज के लिए चिंताजनक तो है, किंतु इस पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। सन 1920-21 में जब गांधीजी ने तुर्की के खलीफा की बहाली के लिए प्रारंभ किए गए खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया, तब से लेकर आज तक सेक्युलरवाद के नाम पर इस्लामी कट्टरवाद को बढ़ावा मिलता रहा है। मजहबी आधार पर मुस्लिम लीग और जिन्ना की देश बंटवारे की मांग का यदि अपने आप को प्रगतिशील कहने वाले कम्युनिस्टों ने कुतर्को के बल पर न्यायोचित ठहराया तो कांग्रेस ने भी उसका विरोध नहीं किया। स्वतंत्रता के बाद हिंदू समाज में सुधार लाने के लिए सन 1950 में हिंदू कोड बिल प्रस्तुत किया गया, किंतु आज भी समान नागरिक संहिता के नाम पर सेक्युलरिस्टों के हाथ-पांव फूल जाते हैं।
शाहबानो मामला मुस्लिम समाज में सुधार लाने का एक अवसर लेकर सामने आया था, किंतु सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को संविधान संशोधन के बल पर पलट दिया गया। दुनिया 21वीं सदी में प्रवेश कर चुकी है, किंतु मुस्लिम समुदाय का अधिकांश भाग अभी भी मध्यकालीन मान्यताओं की जकड़न में है तो इसकी बड़ी जिम्मेदारी सेक्युलरिस्टों की है, जो वोट बैंक की राजनीति के कारण मदरसा शिक्षा, उर्दू, बहुविवाह, अनियंत्रित प्रजनन आदि मुद्दों पर कट्टरपंथियों का समर्थन करते आए हैं। अभी उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के दौरान मुस्लिम समाज को अपने पाले में करने के लिए सेक्युलर दलों में होड़ लगी थी। चुनाव से ठीक पूर्व केंद्र सरकार ने पिछड़े वर्ग के लिए निर्धारित 27 प्रतिशत आरक्षण में से अल्पसंख्यकों को 4.5 फीसदी आरक्षण देने का निर्णय लिया। चुनाव के बीच में कांग्रेस के एक वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री ने मजहब के आधार पर मुस्लिमों को अलग से आरक्षण देने की घोषणा क्या की, अन्य छिटपुट दलों ने आरक्षण मुस्लिम आबादी के अनुपात में करने तक का वादा कर डाला। हाल ही में पंचायती चुनाव को देखते हुए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने राज्य के करीब तीस हजार से अधिक इमामों को सम्मान के तौर पर हर महीने 2500 रुपये देने, इमामों को निजी घर बनाने के लिए सरकार की ओर से भूमि देने और भवन निर्माण के लिए आर्थिक सहायता देने के अलावा अल्पसंख्यकों के लिए बीस हजार घर बनाने, अल्पसंख्यकों के रोजगार के लिए रोजगार बैंक स्थापित करने और उनकी शिक्षा के लिए मदरसों की स्थापना की घोषणा की थी।
समाज के समग्र विकास को ताक पर रखकर जब वोट बैंक के लिए इस तरह एक समुदाय विशेष की कट्टरवादी विचारधारा को पोषित किया जाएगा तो विकृतियां ही पैदा होंगी। कुछ समय पूर्व दारुल उलूम, देवबंद ने यह फतवा जारी किया था कि नौकरीपेशा औरत की कमाई शरीयत की नजर में हराम है। मुफ्तियों के अनुसार औरत और मर्द का एकसाथ काम करना हराम है और ऐसी जगहों पर औरतों का बेपर्दा होकर काम करना इस्लाम के खिलाफ है। इस 21वीं सदी में ऐसा फतवा किस दृष्टिकोण से प्रासंगिक ठहराया जा सकता है? इमराना प्रकरण से लेकर अब तक तमाम ऐसे फतवे हैं जिनमें मध्यकालीन पुरुष वर्चस्ववादी मानसिकता झलकती है, किंतु कहीं कोई विरोध का स्वर नहीं उठता। क्यों? विगत शुक्रवार को कश्मीर बंद रहा। कश्मीर की कथित आजादी की मांग को लेकर प्रदर्शन करने वाले अलगाववादियों की वतनपरस्ती संदिग्ध है। वहां सार्वजनिक तौर पर तिरंगा जलाया जाता है और भारत माता की मौत की कामना की जाती है। हर साल अमरनाथ यात्रा को बाधित करने की कोशिश की जाती है, जिसमें सत्ता अधिष्ठान की भी बराबर की भागीदारी होती है। जिस देश में अल्पसंख्यकों के मजहबी फर्ज को हज सब्सिडी के नाम पर सरकार पूरा कराती हो, उस देश के बहुसंख्यकों की भावनाओं के साथ ऐसा खिलवाड़ क्यों? कश्मीर घाटी में मुस्लिम बहुसंख्यक हैं, इसलिए वहां संविधान की जगह शरीयत का वर्चस्व है। हाल में ईसाई मतप्रचार करने वाले एक पादरी को स्थानीय मुफ्ती ने अपने दरबार में हाजिर होने का सम्मन भेजा था। मुफ्ती ने ही पुलिस को कार्रवाई करने का आदेश दिया। वहां लोग कैसे रहें, क्या पहनें, इसका निर्णय कट्टरपंथी करते हैं।
अलगाववादी पर्यटकों के पहनावे को लेकर फतवा जारी करते हैं। कुछ समय पूर्व उत्तरी कश्मीर के एक सम्मानित इस्लामी विद्वान और स्थानीय कॉलेज के प्राचार्य मोहम्मद अशरफ पर आतंकवादियों ने हमला बोल दिया था। उन्हें इस्लामी चरमपंथियों, जिन्हें पाकिस्तान पोषित आतंकवादियों का खुला समर्थन प्राप्त है, ने अपने महाविद्यालय में पढ़ने वाली 3,000 छात्राओं पर हिजाब लागू करने का अल्टीमेटम दिया था। इसके कुछ समय बाद ही मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के छात्र संगठन स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया समर्थित मदरसा स्टूडेंट्स यूनियन ने भी इस्लामी आलिया यूनिवर्सिटी की छात्राओं समेत शिक्षिकाओं को बुर्का पहनकर कॉलेज आने का फरमान जारी किया था। इस फतवे की नाफरमानी के कारण एक शिक्षिका को दूसरे कैंपस में स्थानांतरित किया गया। कट्टरपंथी मानसिकता से ग्रस्त ऐसी घटनाएं पूरे देश में होती आई हैं। केरल भारत का सर्वाधिक शिक्षित राज्य है और वह प्रगतिशील होने का दावा करता है। कुछ समय पूर्व वहां एक अध्यापक के हाथ जिहादियों ने काट डाले, क्योंकि उन्होंने कथित तौर पर ईशनिंदा करने की हिमाकत की थी। केरल में गहरी जड़ें जमा चुके जिहादी इस्लाम के फैलने का एक बड़ा कारण खाड़ी देशों से आ रहा अकूत धन है। इस तरह की कट्टरवादी मानसिकता की यदि सेक्युलरिस्ट अनदेखी करें तो आश्चर्य कैसा? वास्तविकता तो यह है कि भारत के रक्तरंजित बंटवारे का समर्थन करने वाली मानसिकता ही आज सेक्युलरवाद का दूसरा नाम है। मुस्लिम लीग के जिन नेताओं ने बंटवारे का समर्थन किया वे विभाजन के बाद पाकिस्तान नहीं गए। वे रातोरात कांग्रेस में शामिल हो गए। पार्टी बदलने से उनकी मानसिकता नहीं बदली। वही विभाजनकारी मानसिकता सेक्युलरवाद के नाम पर पोषित हो रही है, जिसकी तार्किक परिणति बागपत खाप का तालिबानी फरमान है।
लेखक बलबीर पुंज राज्यसभा सदस्य हैं
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