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दबाव से दरकने लगी दोस्‍ती

जागरण मेहमान कोना
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kripashankar दबाव से दरकने लगी दोस्ती तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की ओर से सार्वजनिक रूप से यह कहे जाने कि कांग्रेस चाहे तो उसके लिए गठबंधन से बाहर निकलने के लिए दरवाजे खुले हैं तथा इसके जवाब में कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी की इस टिप्पणी कि उनके दल को किसी से डरने की जरूरत नहीं को देखते हुए दोनों दलों के बीच गठबंधन के संकट में पड़ने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता। इसके पहले कोलकाता में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रदीप भट्टाचार्य, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष तथा राज्य के कैबिनेट मंत्री मानस भुइंया, सांसद दीपा दासमुंशी और मौसम नूर ने जिस भाषा में ममता बनर्जी की सरकार और तृणमूल कांग्रेस पर हमले किए वह गठबंधन के सहयोगी दल की भाषा नहीं थी। वह विरोधी दल यानी माकपा की भाषा हो सकती है। माकपा की भाषा बोलने के कारण ही उसकी बी टीम होने का आरोप कांग्रेस पर लगता रहा है। पिछले दिनों यह आरोप एक बार फिर स्वयं तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख तथा मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने लगाया।


ममता की वह भाषा भी सबसे बड़े सहयोगी दल की भाषा नहीं थी। इसीलिए ममता के उस मंतव्य के अगले ही दिन यानी चार जनवरी को प्रदेश कांग्रेस के नेताओं ने आम सभा कर ममता, उनकी पार्टी और राज्य सरकार से अपनी गहरी नाराजगी सार्वजनिक की। प्रदेश कांग्रेस के नेताओं की नाराजगी की एक नहीं अनेक वजहें हैं। कांग्रेस इसलिए नाराज है, क्योंकि तृणमूल कांग्रेस ने लोकसभा में तो लोकपाल बिल पास कराया, किंतु राज्यसभा में माकपा और भाजपा के साथ मिलकर उसका विरोध किया। इसके पहले एफडीआइ और पेट्रोलियम पदाथरें की कीमतों में वृद्धि के सवाल पर भी तृणमूल कांग्रेस ने कांग्रेस की अगुवाई वाली संप्रग सरकार का विरोध किया था। तृणमूल कांग्रेस ने केंद्र सरकार से बाहर निकल आने तक की धमकी दी थी। कांग्रेस को यह भी लगता है कि तीस्ता जल बंटवारे के समझौते को लेकर ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को नीचा दिखाया। हाल-फिलहाल इंदिरा भवन प्रकरण ने तो प्रदेश कांग्रेस की नाराजगी को चरम पर पहुंचा दिया है। आलम यह है कि दोनों दल अब सड़क पर उतर कर एक-दूसरे की खबर ले रहे हैं, लेकिन जिस भवन को लेकर कांग्रेस मुहिम चला रही है उसके औचित्य पर भी सवाल उठ रहे हैं।


कोलकाता के साल्टलेक स्थित इस सरकारी अतिथिशाला में इंदिरा गांधी महज दो दिन रही थीं। बाद में, 1989 में बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु इसमें आकर रहने लगे। माकपा इसे ज्योति बसु के नाम से एक स्मारक बनाना चाहती थी, किंतु बाद में उसने इसे खाली करने का फैसला किया। इस भवन को लोग इंदिरा भवन के नाम से ही पुकारते हैं, लेकिन सरकारी दस्तावेज में कहीं भी इसे इंदिरा भवन नहीं लिखा गया है। आज बंगाल कांग्रेस के जो नेता कह रहे हैं कि इस भवन से इंदिरा जी की स्मृतियां जुड़ी हैं, क्या उन्होंने कभी इंदिरा गांधी के जन्मदिन या पुण्यतिथि पर इस भवन में आकर वहां उनकी फोटो लगाकर श्रद्धांजलि देने की जहमत उठाई है? यह भवन वर्षो ज्योति बसु का निवासस्थान रहने के कारण माकपा के कार्यालय के रूप में भी उपयोग में लाया जाता रहा, तब कांग्रेस ने किसी दिन यहां इंदिरा स्मारक बनाने का सवाल क्यों नहीं उठाया? बसु के निधन के बाद भी माकपा के कब्जे में दो साल तक रहे इस भवन को इंदिरा गांधी के नाम पर स्मारक बनाने की मांग कांग्रेस ने क्यों नहीं की? ममता द्वारा पिछले दिनों इसे नजरुल इस्लाम अकादमी बनाने का ऐलान किए जाते ही कांग्रेस के सम्मान पर आंच आ गई। कहने की जरूरत नहीं कि एक अहम सवाल इंदिरा भवन प्रकरण पर प्रदेश कांग्रेस की मुहिम के असली उद्देश्य को लेकर भी पैदा होता है।


कांग्रेस की मुहिम से प्रतीत तो यही होता है कि वह ममता सरकार पर दबाव बनाने के लिए यह मामला उछाल रही है। ममता यदि इस भवन को माकपा के कब्जे व प्रभाव से मुक्त कर गैरराजनीतिक व्यक्ति के नाम से साहित्य व संस्कृति का पीठस्थान बनाने की सोच रही हैं तो इसमें गलत क्या है? यदि दो-तीन दिन किसी राजनेता के किसी अतिथिशाला में रुकने के आधार पर ही उसे स्मारक बनाने की मांग पर गौर किया जाने लगा तो ऐसी मांगों की बाढ़ आ जाएगी। प्रदेश कांग्रेस की मुहिम से यह आशय नहीं निकाला जाना चाहिए कि इंदिरा गांधी के प्रति ममता बनर्जी के भीतर सम्मान का जरा भी कम भाव है। अभी कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस में जिस तरह उठापटक चल रही है वैसी उठापटक पहले भी दोनों दलों में विभिन्न मसलों पर तनातनी चलती रही है। इन सबकी जिम्मेदारी से तृणमूल कांग्रेस भी नहीं बच सकती। दोनों दल माकपा को मजे लेने का अवसर मुहैया करा रहे हैं। गठबंधन धर्म का पालन कैसे किया जाता है, यह सीख कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस, दोनों को वाममोर्चा से लेनी चाहिए। वाममोर्चा के घटक दलों में भी विवाद होते थे, किंतु कभी भी वाम दल गठबंधन से अलग नहीं हुए। नंदीग्राम और सिंगुर के विवादों के बाद भी अलग नहीं हुए। तृणमूल कांग्रेस बंगाल में सबसे बड़ा घटक दल है इसलिए भी उसकी जिम्मेदारी बड़ी है।


लेखक कृपाशंकर वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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