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देश के सबसे महत्वपूर्ण सामरिक और अंतरिक्ष महत्व के स्थान श्रीहरिकोटा की पड़ोसी पुलीकट झील को दुर्लभ हंसावर या राजहंस का सबसे मुफीद आश्रय स्थल माना जाता रहा है। विडंबना है कि इंसान की थोड़ी-सी लापरवाही के चलते देश की दूसरी सबसे विशाल खारे पानी की झील (चिल्का के बाद) का अस्तित्व खतरे में है। चेन्नई से कोई 60 किलोमीटर दूर स्थित यह झील महज पानी का दरिया भर नहीं है। लगातार सिकुड़ती जल-निधि पर कई किस्म की मछलियां, पक्षी और हजारों मछुआरे परिवारों का जीवन भी निर्भर है। यह दो राज्यों आंध्र प्रदेश के नैल्लोर और तमिलनाडु के तिरूवल्लूर जिले में फैली हुई है। यहां के पानी में विषैले रसायनों की मात्रा बढ़ रही है, वहीं इलाके के पारिस्थितिकी तंत्र से हुई लगातार छेड़छाड़ का परिणाम है कि समुद्र व अन्य नदियों से जोड़ने वाली प्राकृतिक नहरें गाद से पट रही हैं। सनद रहे कि समुद्र से जुड़ी इस तरह की झीलों को अंग्रेजी में लेगून और हिंदी में अनूप या समुद्र ताल कहते हैं। चिल्का के बाद पुलीकट देश का सबसे विशाल अनूप है। कहा जाता है कि इसका निर्माण कोई 6650 साल पहले होलोसन भूगर्भ काल में हुआ था। पुलीकट झील का क्षेत्रफल समुद्र में ज्वार के वक्त 450 वर्ग किलोमीटर तक फैल जाता है, जबकि भाटा की स्थिति में यह 250 वर्ग किमी होता है। इसकी लंबाई लगभग 60 किलोमीटर और चौड़ाई 0.2 किमी से 17.5 किमी तक है, जो बदलती रहती है।
तकली के आकार का लंबोतरा श्रीहरिकोटा द्वीप इस झील को बंगाल की खाड़ी के खारे पानी से दूर करता है। यह वही श्रहरिकोटा है, जहां सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र है और जहां से भारत ने अंतरिक्ष विज्ञान में विश्व स्तर की उपलब्धियां हासिल की हैं। इरकाम और वेनाड नामक दो रेतीले द्वीप इस विशाल झील को पूर्वी और पश्चिमी हिस्सों में विभाजित करते हैं। पुलीकट झील को मीठा पानी देने वाली तीन प्रमुख नदियां हैं- उत्तर से सुवर्णमुखी, दक्षिण से अरनी और उत्तर-पश्चिम से कलंगी नदी। इसके अलावा भी कई छोटी-मोटी सरिताएं इसमें मिलती हैं। इस झील को समुद्र से जोड़ने वाला रास्ता बंकिंघम नहर इसके पश्चिम में हैं। श्रीहरिकोटा के करीब उत्तर में एक संकरे से मार्ग से इसमें बंगाल की खाड़ी का खारा पानी आकर मिलता है, जबकि इसमें ज्यादा पानी होने पर वह समुद्र में बह जाता है और इसकी निकासी दक्षिणी सिरे पर है। हालांकि समुद्र से पानी की आवाजाही का नजारा केवल बारिश के दिनों में ही देखा जा सकता है। तभी इस झील का पानी कहीं तो बेहद मीठा है तो कहीं खारा। शायद यही वजह है कि इसमें मछली, वनस्पति और अन्य जीवों की प्रजातियों की अद्भुत विविधता पाई जाती है। नहर के दक्षिण्ी किनारे पर मछुआरों की बस्ती पुलीकट है। दुगाराजुपत्तनम और सुल्लरपेटा नामक दो कस्बे भी इसके तट को आबाद करते हैं। हालांकि इस झील के लिए संकट का आगाज भी इन्हीं बस्तियों से है। इस झील में खारे पानी व मीठे पानी दोनों तरह की मछलियां मिलती हैं। बारह हजार से अधिक मछुआरा परिवारों का जीवन-यापन यहां से मिलने वाली मछलियों, झींगों केंकड़ों से होता है। यहां 12 प्रजाति के झींगे, 19 किस्म के केंकड़े और लगभग 168 किस्म की मछलियां प्रचुर मात्रा में मिलती हैं। हर साल लगभग 1200 टन मछलियां इस झील से पकड़ी जाती हैं। यह इलाका कभी समुद्र के किनारे शांत हुआ करता था। तभी सदियों से ठंड के दिनों में साठ हजार से अधिक प्रवासी पक्षी यहां आते रहे हैं।
खासतौर से पंद्रह हजार से अधिक राजहंस (फ्लेमिंगो ) और साइबेरियन क्रेन यहां की विशेषता रही है। पुलीकट झील के आंध्र प्रदेश वाले हिस्से में वर्ष 1972 में पक्षियों के लिए 177 वर्ग किमी क्षेत्र में संरक्षित अभ्यारण बनाया गया। तमिलनाडु सरकार ने झील से सटे पौन्नेरी और गुम्मीडीपुडी तालुका के 60 वर्ग किमी इलाके को वर्ष 1980 में संरक्षित अभ्यारण्य घोषित किया। हर साल कोई पंद्रह हजार ग्रेटर फ्लेमिंगो यानी राजहंस यहां आते हैं। यह अथाह जल निधि 59 किस्म की वनस्पितियों का उत्पादन स्थल भी है, जिनमें से कई का इस्तेमाल खाने में होता है। लोयोला इंस्टीट्यूट ऑफ फ्रंटियर एनर्जी की ओर से किए गए एक ताजा सर्वे से पता चलता है कि पिछले कुछ दशकों में इस झील का क्षेत्रफल 460 वर्ग किलोमीटर से घटकर 350 वर्ग किमी रह गया है। पहले इसकी गहराई चार मीटर हुआ करती थी, जो अब घटकर बामुश्किल डेड़ मीटर रह गई है। बताया गया कि एक तो इसमें गाद की मात्रा ज्यादा हो गई है और फिर इसमें मछलियों को पकड़ने का काम अंधाधुंध हो रहा है। तमिलनाडु के तिरूवल्लूर जिले की इस विशाल झील की मछलियों के जरिये पिछली कई सदियों से अपना जीवन-यापन करने वाले लोगों के संगठन पुलीकट फिशरमेन एसोसिएशन के प्रमुख कंडासामी का कहना है कि मछलियां पकड़ने के लिए निरंकुश जाल फेंकने से इसमें मौजूद पारंपरिक वनस्पितियों का नुकसान हुआ है। फिर मछली पकड़ने के लिए डीजल से चलने वाली नावों व मशनों की अनुमति दे दी गई, जिसने मछलियों की पारंपरिक किस्मों तथा मात्रा पर बेहद विपरीत प्रभाव डाला।
ग्लोबल नेचर नाम की जर्मनी की एक संस्था ने पुलीकट को वर्ष 2010 की दुनिया की सबसे संकटग्रस्त झील घोषित किया है। इस झील के आंध्र प्रदेश वाले हिस्से से अरनी व कलंगी नदी का पानी सीधे झील में गिरता है, जो अपने साथ बड़ी मात्रा में नालों की गंदगी, रासायनिक अपमिश्रण और औद्योगिक कचरा लेकर आता है। इस दूषित पानी में खेती में इस्तेमाल खाद और कीटनाशकों की भारी मात्रा होती है। झील के तट पर ही मछली-प्रसंस्करण के कई छोटे-बड़े कारखाने हैं, उनका कचरा भी इसी में डाला जाता है। मोटर बोटों के अंधाधुंध इस्तेमाल के चलते तेल के रिसाव और उससे निकले धुंऐ ने तो यहां की फिजा ही खराब कर दी है। तमिलनाडु की ओर झील के हिस्से को सबसे अधिक खतरा गाद के बढ़ते अंबार से है। गाद बढ़ने से समुद्र से झील में साफ पानी की आवाजाही धीरे-धीरे कम हो रही है। यह रास्ता संकरा और उथला हो गया है। झील को समुद्र से जोड़ने वाले रास्ते की बीसवीं सदी में औसत गहराई डेढ़ मीटर थी, जो आज घटकर एक मीटर से भी कम हो गई है।
खासतौर से उत्तर-पूर्वी मानसून (अक्टूबर-दिसंबर) के दौरान जब इलाके के सभी जल-संसाधन लबालब होते हैं तो उनमें से आने वाले पानी का बहाव सीधे इसी झील की ओर होता है। यह पानी अपने साथ बड़ी मात्रा में टॉप साइल लेकर आता है, जो झील को उथला बना रही है। यदि इसके उपाय नहीं किए गए तो आने वाली सदी में इस अनूप का अस्तित्व ही समाप्त होने का खतरा है। कहने को इस इलाके में कई सरकारी व स्वयंसेवी संगठन काम कर रहे हैं, लेकिन ईमानदारी से इनकी भूमिका अभी तक चिंता जताने, नारे लगाने, फंड जुटाने और अखबारों में बयानबाजी से अधिक नहीं है। जिस पर्यावरणीय-प्रणाली से लाखों लोगों का जीवनयापन जुड़ा हो, उसमें सुधार के लिए उन लोगों का विश्वास जीतना निहायत जरूरी है, जो यहां हो नहीं रहा है।
लेखक पंकज चतुर्वेदी स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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