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एक बार फिर भाजपा के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी भ्रष्टाचार विरोधी रथ पर सवार दिखाई देंगे। इस यात्रा से देश के क्या हित सधेंगे, यह लक्ष्य तो संशय में है, अलबत्ता इतना जरूर है कि आडवाणी की यह यात्रा निर्विवाद न रहकर सांप्रदायिक माहौल जरूर गड़बड़ाने की पृष्ठभूमि तैयार करेगी। इस यात्रा के जरिये वह संप्रग सरकार के जिन भ्रष्टाचारों को देश की जनता के सामने उजागर करने की बात कर रहे हैं, उनका तो पहले ही न केवल पर्दाफाश हो चुका है, बल्कि आंदोलनों के जरिये जनमानस को भ्रष्टाचारियों से रूबरू भी बखूबी करा दिया गया है। ज्यादातर भ्रष्टाचारी तिहाड़ में हैं। यहां सवाल यह उठता है कि भ्रष्टाचार के इनमें से कितने मामले एक सजग व जवाबदेह विपक्ष होने के नाते भाजपा ने उजागर किए? भाजपा शासित राज्य क्या भ्रष्टाचार मुक्त हैं? कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येद्दयुरप्पा और भाजपा के सहयोगी व खनन के खिलाड़ी रेड्डी बंधुओं को क्यों भाजपा भ्रष्टाचार उजागर होने के बावजूद संरक्षण देती रही? क्या इन कदाचारों पर पर्दा डाले रखने की कोशिशों के चलते भाजपा और आडवाणी को नहीं लगता कि वे भ्रष्टाचार के खिलाफ चलाई जाने वाली इस मुहिम की नैतिक पात्रता पहले ही खो चुके हैं? वैसे आडवाणी इस यात्रा की मार्फत यह भी संदेश देंगे कि नोट के बदले वोट लेकर मनमोहन सिंह सरकार ने अपनी संवैधानिक वैधता खो दी है। लिहाजा, उसे मिला जनादेश खत्म हो चुका है।
राम मंदिर निर्माण के मुद्दे पर रथयात्रा निकालकर सुर्खियों में आ चुके आडवाणी भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाकर एक बार फिर अपनी राजनीतिक हैसियत बढ़ाकर शायद प्रधानमंत्री पद के प्रमुख दावेदार दिखना और बनना चाहते हैं। दलीय राजनीति में उभार की दृष्टि से इस यात्रा के कुछ अच्छे फलित सामने आ सकते हैं, लेकिन उनकी प्रधानमंत्री की हसरत पूरी हो जाए, ऐसा फिलहाल लगता नहीं। इसे सोमनाथ से अयोध्या यात्रा की तरह व्यापक सफलता भी मिलने वाली नहीं है, क्योंकि तब हिंदू जनमानस में सांस्कृतिक चेतना की आग फूंकने में यह यात्रा एक हद तक सफल हो गई थी और भाजपा ने इसकी देश व कई राज्यों में फसल भी खूब काटी। केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व वाली राजग सरकार भी वजूद में आई, लेकिन भाजपा अपने चुनाव घोषणा-पत्र में शामिल किसी भी मुद्दे को अमल में लाते दिखाई नहीं दी। राम मंदिर निर्माण, धारा 370, समान नागरिक संहिता और बांग्लादेशियों की घुसपैठ जैसे मुद्दे उसने ठंडे बस्ते में डाल दिए। उसका चाल, चरित्र और चेहरा कांग्रेसी शिल्प व शैली में बदलता चला गया। यही नहीं, वह उसके आदर्श रहे श्यामाप्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय के विचार एकात्मवाद और आध्यात्मिक भौतिकवाद से भी पिंड छुड़ाकर वैश्विक अर्थव्यवस्था के अमेरिकी पैरवीकार एडम स्मिथ की पूंजीवादी व्यवस्था का अनुकरण करने में लग गई। नतीजतन, सत्ता पर काबिज भाजपा नेता भ्रष्टाचार की उसी गटर गंगा में डुबकी लगाने लग गए, जिसमें कांग्रेस डुबकी लगाने की आदी हो चुकी थी।
भाजपा सरकारों से उम्मीद थी कि वे इस गटर गंगा की सफाई कर भ्रष्टाचार से मुक्ति के कारगर हल तलाशेंगी, लेकिन जनता की उम्मीदों पर ये सरकारें खरी नहीं उतरीं। हकीकत तो यह है कि भ्रष्टाचार के बहाने कालांतर में शुरू होने वाली इस यात्रा में भाजपा अनेक दलीय व राजनीतिक मंसूबे साधना चाहती है। एक तो उत्तर प्रदेश व पंजाब समेत चार बड़े राज्यों में 2012 में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। खासतौर से उत्तर प्रदेश में अंदरूनी गुटबाजी के चलते भाजपा की हालत वहां पतली है और नरेंद्र मोदी, रमण सिंह व शिवराज सिंह चौहान जैसा खेवनहार भी उत्तर प्रदेश में भाजपा के पास नहीं है। उमा भारती को नितिन गडकरी ने उत्तर प्रदेश की कमान सौंप जरूर दी है, लेकिन हताश कार्यकर्ताओं में वे कोई जान फूंक पाएंगी, ऐसा लगता नहीं। ऐसे में भाजपा के पास एक ही अस्त्र बचता है कि वह भ्रष्टाचार के मुद्दे को भुनाकर अपना जनाधार खड़ा करे। साथ ही अन्ना और बाबा रामदेव के आंदोलनों ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जो हवा दी है, अपने राजनीतिक लाभ के लिए उसका रुख अपनी ओर कर ले। इस हालत पर एकछत्र नियंत्रण के लिए भाजपा के पास रथयात्रा के इस पुराने नुस्खे को आजमाने के अलावा दूसरा कोई चारा भी नहीं रह गया है। देखें चुनावी अश्वमेघ यज्ञ के ये घोड़े कितने दौड़ पाते हैं?
लेखक प्रमोद भार्गव स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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