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लोकपाल के रास्ते पर भूमि कानून

जागरण मेहमान कोना
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पिछले साल जब भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास व पुनस्र्थापन विधेयक-2011 के लिए पहल की गई तो उम्मीद बंधी कि भूमि अधिग्रहण के संदर्भ में अंगे्रजों द्वारा बनाए गए कानूनों से छुटकारा मिल जाएगा और ऐसे नियम सामने आ सकेंगे जिनके तहत किसानों के अधिकार सुरक्षित होंगे। परंतु अब इस विधेयक में ग्रामीण विकास मंत्रालय की पहल पर संसदीय समिति ने जो संशोधन प्रस्तावित किए हैं उनसे इस विधेयक का मूल उद्देश्य ही खत्म होता नजर आ रहा है। अब लगता है कि यह विधेयक भी लोकपाल विधेयक के रास्ते पर जा रहा है। प्रस्तावित विधेयक का मूल उद्देश्य भूमि अधिग्रहण नियमों को सरल बनाना और किसानों के अधिकारों को सुरक्षित रखना था, लेकिन संसदीय समिति का सुझाव है कि विधेयक के प्रावधानों की फिर से समीक्षा की जाए और जनहित में किए जाने वाले अधिग्रहणों में सरकार की भूमिका न्यूनतम हो, फिर वह चाहे निजी कंपनियों से जुड़ा मसला हो अथवा निजी और सार्वजनिक भागीदारी वाली कंपनियों के लिए अधिग्रहण का मुद्दा हो। इसके अलावा समिति का प्रस्ताव है कि अनुसूचित क्षेत्रों में भूमि अधिग्रहण पर प्रतिबंध लगाया जाए। अनुसूचित क्षेत्र 12 से अधिक राज्यों में फैला हुआ है जिस पर 830 लाख लोग रहते हैं। इनमें से अधिकतर आदिवासी हैं।


प्रस्तावित संशोधनों में अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने वाला एक अनुमान यह है कि निजी कंपनियां कभी भी कोई चीज जनहित में नहीं कर सकतीं। सच्चाई यह है कि देश के युवाओं को अधिक रोजगार अवसरों की आवश्यकता है। समिति के सुझावों में खाद्य सुरक्षा की जरूरतों को पूरा करने के लिए न केवल बहुफसलीय कृषि भूमि, बल्कि सभी प्रकार की कृषि भूमि के अधिग्रहण पर प्रतिबंध की बात है। जाहिर है ऐसे तुगलकी प्रावधानों से इस जमीनी हकीकत को नजरअंदाज कर दिया जाता है कि व्यावसायिक योजनाओं, बुनियादी ढांचे के विकास और शहरीकरण के लिए भूमि की आवश्यकता होती है। हमारे देश में समस्या यह है कि भूमि रिकॉर्ड सही से रखा नहीं गया है, मालिकाना हक अक्सर विवादित होता है, क्योंकि एक पट्टे के कई दावेदार निकल आते हैं जिससे बड़ी संख्या में दीवानी के मुकदमे चलते रहते हैं। इस वजह से निजी कंपनियां जमीन नहीं खरीद पातीं।


अक्सर यह भी देखने में आता है कि राज्य सरकारें बाजार भाव से बहुत कम पर किसानों की जमीन कब्जा लेती हैं ताकि निजी कंपनियों को सस्ते में इन्हें उपलब्ध कराया जा सके। इससे कई तरह के नुकसान होते हैं। सबसे पहली बात तो यह है कि किसानों को अपनी भूमि का सही मुआवजा नहीं मिल पाता। दूसरा यह कि किसान बेघर हो जाते हैं, क्योंकि उनके पुनर्वास व पुनस्र्थापना की जिम्मेदारी किसी की नहीं होती। फिर यह भी महत्वपूर्ण है कि निजी कंपनियंा राज्य सरकारों के जरिए जो भूमि कब्जाती हैं वह अक्सर जनहित में कोई कार्य नहीं करतीं और निर्धारित शर्तो का पालन तक नहीं करतीं। यही कारण है कि किसान भूमि अधिग्रहण के विरोध में प्रदर्शन करने पर मजबूर होते हैं। यह प्रदर्शन अक्सर हिंसक भी हो जाते हैं। दरअसल इस किस्म की समस्याओं को देखते हुए ही पिछले साल यह विधेयक तैयार किया गया था। इसमें प्रावधान रखे गए कि उपजाऊ कृषि भूमि को अधिग्रहीत नहीं किया जाएगा, निजी कंपनियों के लिए सरकार भूमि अधिग्रहण नहीं करेगी, जनहित के लिए अधिग्रहीत की गई भूमि का मुआवजा बाजार भाव के अनुसार दिया जाएगा और जिन लोगों की भूमि ली जाएगी उनके पुनर्वास की व्यवस्था की जाएगी। जाहिर है यह प्रावधान न राज्य सरकारों को पसंद थे और न ही पूंजीपतियों को। इसलिए मूल विधेयक का विरोध होने लगा।


केंद्र सरकार ने ऐसी स्थिति में अपनी आदत के अनुसार विधेयक को ग्रामीण विकास से संबंधित संसदीय तदर्थ समिति के पास भेज दिया। समिति के समक्ष अनेक राज्यों ने आपत्तियां दर्ज कीं। मध्य प्रदेश सरकार का आरोप है कि विधेयक संघीय सिद्धांत पर हमला है, क्योंकि इसमें भूमि की बिक्री व खरीद के बाद पुनर्वास व पुनस्र्थापना का प्रावधान है। हिमाचल प्रदेश व महाराष्ट्र ने भी संघवाद के मुद्दे उठाए। इन आपत्तियों के मद्देनजर केंद्र सरकार ने फैसला किया है कि राज्य सरकारों ने आदिवासियों और ग्राम सभाओं के हितों को सुरक्षित रखने के लिए जो सुझाव दिए हैं उन्हें विधेयक में शामिल किया जाएगा। नया विधेयक संसद के मानसून सत्र से पहले तैयार कर लिया जाएगा, जिसमें संघीय ढांचे को सुरक्षित रखने का प्रयास होगा क्योंकि विकास उद्देश्यों के चलते भूमि अधिग्रहण से बचा नहीं जा सकता।


लेखक शाहिद ए. चौधरी स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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