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प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में कैबिनेट ने बीते 5 सितंबर को राष्ट्रीय भूमि अधिग्रहण व पुनर्वास एवं पुनस्र्थापन विधेयक-2011 को मंजूरी प्रदान की, जिसे 7 सितंबर को संसद में पेश किया गया और बाद में इसे स्टैंडिंग कमेटी के पास भेजा जाएगा। कानून बनने के बाद यह विधेयक भूमि अधिग्रहण कानून-1894 की जगह लेगा। निश्चित रूप से यह एक ऐतिहासिक विधेयक है, क्योंकि पहली बार पुनर्वास व पुनस्र्थापन को परिभाषित किया गया है। साथ ही किसानों की चिंताएं व भूमिहीन मजदूरों की परेशानियों को भी इसमें मद्देनजर रखा गया है। मगर सवाल यह है कि क्या यह विधेयक किसानों की उन सब चिंताओं को दूर करने में सफल होगा, जो भट्टा-पारसौल जैसी स्थितियां उत्पन्न करने का कारण बनती हैं? भूमि अधिग्रहण को लेकर अब तक तमाम विवाद और आंदोलन होते आए हैं। इसका एक मुख्य कारण यह रहा है कि सरकार बजार मूल्य से बहुत कम दर पर किसानों की जमीन ले लेती है और फिर सस्ते दामों पर उद्योगपतियों या बिल्डर्स को बेच देती है। जाहिर है, इस क्रम में भ्रष्टाचार को पनपने का भी अवसर मिलता है, लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि बेचारे किसान अपने आपको ठगा महसूस करते हैं।
संभवत: इस परेशानी को मद्देनजर रखते हुए प्रस्तावित विधेयक में कहा गया है कि ग्रामीण क्षेत्र में जो भूमि अधिग्रहीत की जाएगी, उसका मुआवजा पंजीकृत मूल्य से चार गुना दिया जाएगा, जबकि शहरी क्षेत्रों में मुआवजा बजार मूल्य से दो गुना अधिक दिया जाएगा। गौरतलब है कि संबंधित क्षेत्र में हुई सबसे महंगी रजिस्ट्री को बजार भाव तय करने का आधार बनाया जाएगा। इस विधेयक की एक अन्य खूबी यह है कि अगर अधिग्रहीत भूमि 10 वर्ष तक बिना उपयोग के पड़ी रहती है तो उसे वापस राज्य को सौंप दिया जाएगा, जो उसे मूल स्वामी को ट्रांसफर कर सकता है या जनहित के किसी अन्य प्रोजेक्ट के लिए भी प्रयोग में ला सकता है। भूमि अधिग्रहण के मामले में चिंता का एक अन्य विषय यह रहता है कि उद्योग लगाने या बिल्डिंग बनाने के लिए उपजाऊ जमीन को ले लिया जाता है, जबकि बंजर पड़े बीहड़ों को कोई विकसित नहीं करना चाहता। इसी चिंता को मद्देनजर रखते हुए प्रस्तावित विधेयक में कहा गया है कि किसी भी जिले में औद्योगिक उद्देश्यों के लिए कुल सिंचित भूमि का अधिकतम 5 प्रतिशत ही अधिग्रहीत किया जा सकता है। दरअसल, भूमि अधिग्रहण के सिलसिले में सबसे बड़ी समस्या यह है कि किसान की जमीन तो औने-पौने दामों पर छीन ली जाती है, लेकिन उसे फिर से बसाने का कोई गंभीर प्रयास नहीं किया जाता। शायद यही वजह है कि प्रस्तावित विधेयक में न केवल पुनर्वास व पुनस्र्थापन को परिभाषित किया गया है, बल्कि इस बात का भी ख्याल रखा गया है कि जिन किसानों की जमीन विकास कार्य के लिए ले ली जाएगी, न केवल उन्हें बल्कि भूमिहीन मजदूरों के भी पुनस्र्थापन का प्रयास किया जाएगा।
प्रस्तावित विधेयक में यह भी कहा गया है कि अगर निजी कंपनियां सौ एकड़ या उससे ज्यादा अधिग्रहण करती हैं तो पुनर्वास पैकेज उन्हें ही देना होगा। पढ़ने और सुनने में तो उक्त प्रस्ताव अच्छे प्रतीत होते हैं, लेकिन विधेयक में कुछ चोर दरवाजे भी छोड़ दिए गए हैं। मसलन, राष्ट्रीय सुरक्षा, आपदा और आपात स्थिति के लिए प्रस्तावित विधेयक में आपात अधिग्रहण के प्रावधान रखे गए हैं। इन प्रावधानों को ढंग से परिभाषित नहीं किया गया है। जाहिर है, इनका सहारा लेकर कोई भी भ्रष्ट राज्य सरकार भूमि मालिकों को बेवकूफ बना सकती है। गौरतलब है कि कैबिनेट की बैठक में अनेक मंत्री जो पूर्व में मुख्यमंत्री भी रहे हैं- शरद पवार, विलास राव देशमुख, वीरभद्र सिंह, सुशील कुमार शिंदे, वीरप्पा मोइली और फारुक अब्दुल्ला- उन्होंने विधेयक पर अपनी असहमति व्यक्त की। उनका कहना है कि 80 प्रतिशत भूमि मालिकों की रजामंदी लेने के प्रावधान से भूमि अधिग्रहित करना बहुत कठिन हो जाएगा। साथ ही विधेयक के कानून बनने पर भूमि के दाम आसमान छूने लगेंगे। इसके अलावा प्रोजेक्ट को पूरा करने की जो 10 साल की शर्त रखी गई है, उससे निवेशक और उद्योगपति आगे आने में संकोच दिखाएंगे। जाहिर है, इस विधेयक को पारित करना या कानून बनाना उतना आसान नहीं है, जितना अभी लग रहा है। इसमें रोड़े राजनीति की तरफ से भी आएंगे और कॉरपोरेट जगत की तरफ से भी। फिलहाल तो यही देखना है कि क्या यह भूमि अधिग्रहण विधेयक कानून बनने पर उन तमाम सवालों के जवाब दे पाएगा, जिनकी उससे उम्मीद की जा रही है।
शाहिद ए चौधरी हैं
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