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मनरेगा पर बेजा सवाल

जागरण मेहमान कोना
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मनरेगा योजना के बजाय इसे लागू करने के तंत्र और क्रियान्वयन में खामी देख रहे हैं एनसी सक्सेना


मनरेगा योजना की नीतियों और क्रियान्यवन को लेकर यह सवाल खड़ा किया जाना सही नहीं है कि इससे खेती पर प्रभाव पड़ रहा है और विकास योजनाएं प्रभावित हो रही हैं। मनरेगा यानी महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून एक बेहतरीन योजना है जिसे काफी सोच-समझकर और ग्रामीण गरीबों के हितों को परिलक्षित करके बनाया गया है। इस योजना के क्रियान्वयन के बाद से देश के लाखों लोगों को अपनी आजीविका चलाने के लिए वैकल्पिक रोजगार पाने में मदद मिली है, लेकिन सबकुछ अच्छा ही हो, ऐसा भी नहीं है। इस योजना में सिद्धांत रूप में कहीं कोई खामी नहीं है, लेकिन इसका जिस तरह से क्रियान्वयन किया जा रहा है वह प्रक्रिया अवश्य दोषपूर्ण है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि सरकार ने इस योजना के सही क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए कोई कारगर कदम नहीं उठाया और न ही इसके मूल्यांकन का कोई तंत्र बनाया। इस कारण सरकारी कोष से दिए जाने वाले धन का सही उपयोग नहीं हो पा रहा।


इस संदर्भ में ताजा आरोप मनरेगा के कारण खेती के लिए मजदूरों की कमी होने का है। दलील दी जा रही है कि कुछ समय के लिए इस योजना को बंद कर देना चाहिए। इस तरह के विचार देने से पहले हमें मनरेगा के मूल प्रावधानों को ठीक से पढ़ने की आवश्यकता है। मनरेगा कानून में यह कहीं नहीं लिखा है कि व्यस्त सीजन में अकुशल मजदूरों को काम दिया जाए। मनरेगा का कानून साफ-साफ कहता है कि संबंधित ग्राम पंचायत में एक हाजिरी रजिस्टर बनाया जाएगा, जिसमें बीपीएल, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में आने वाले लोगों के नाम दर्ज होंगे और इन्हें ऑफ सीजन में तभी रोजगार दिया जाएगा जब ये काम की मांग करेंगे। साफ है कि खेती के सीजन में इन मजदूरों को काम देने की बात नहीं कही गई है इसलिए खेती के लिए मजदूरों के न मिलने या उनके मनरेगा में व्यस्त होने का आरोप तर्कसंगत नहीं। वस्तुत: खामी सैद्धांतिक नहीं, बल्कि व्यावहारिक है। एक ऐसे तंत्र का विकास किया जाना चाहिए जो न सिर्फ इस पूरी योजना का मूल्यांकन करे, बल्कि इसके सही क्रियान्वयन को भी सुनिश्चित करे। इसके अलावा मनरेगा के तहत ग्रामीण लोगों के जीवन को बेहतर बनाने और वहां इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास के लिए भी काम करने की बात कही गई थी। इसके लिए स्थायी परिसंपत्तियों का निर्माण और विकास किया जाना चाहिए था। इसके तहत सूखे क्षेत्रों में सिंचाई के साधनों और सड़कों का निर्माण किया जाना था। व्यवहार रूप में इस दिशा में शायद ही कोई कदम उठाया जा रहा है जो इस कानून के मूल भावों के विपरीत है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार इस बारे में समुचित ध्यान देगी और कोई कारगर कदम उठाएगी।


मनरेगा जैसी योजनाओं के कारण धन की कमी होने और विकास के प्रभावित होने की दलील भी निराधार है, क्योंकि कृषि क्षेत्र अथवा बाकी दूसरी योजनाओं के लिए भी सरकार ने बड़ी मात्रा में धन जारी किया है। वास्तव में कमी धन की नहीं, बल्कि उसके सही उपयोग और कुप्रबंधन को रोकने की नीयत में है। स्वर्ण जयंती ग्रामीण स्वरोजगार योजना और स्वर्ण जयंती शहरी रोजगार योजना के लिए भी सरकार काफी धन देती है, लेकिन इनका सही इस्तेमाल शायद ही हो पाता है। इस बारे में राज्य सरकारों की बड़ी भूमिका है। जब तक हमारे देश के राजनेताओं में इस तरह की इच्छाशक्ति का विकास नहीं होगा और सरकार में दृढ़ता नहीं होगी तब तक हम अपेक्षित परिणाम पाने की उम्मीद नहीं कर सकते। इस क्रम में हम रिटेल सेक्टर में विदेशी निवेश यानी एफडीआइ के मुद्दे पर सरकार के ढीले-ढाले रुख को उदाहरण के तौर पर देख सकते हैं। एफडीआइ आर्थिक सुधारों की दिशा में एक बड़ा कदम हो सकता था। इससे आम लोगों, उपभोक्ताओं, किसानों को लाभ होने के साथ-साथ रिटेल इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास होने से पूरी अर्थव्यवस्था को लाभ मिलता और बड़े पैमाने पर युवाओं के लिए रोजगार सृजित होते, लेकिन सरकार अपने ही निर्णय पर राजनीतिक दृढ़ता नहीं दिखा सकी। जब उसे एक सही मुद्दे पर अड़ना चाहिए था, वह भाग खड़ी हुई। इससे सरकार की कमजोर इच्छाशक्ति का पता चला। इस यूटर्न से सरकार की देश में ही नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी किरकिरी हुई। जब सरकार ही कमजोर हो और किसी तरह का निर्णय ले पानेमें असमंजस की बीमारी से ग्रस्त हो तो विपक्षी दलों अथवा किसी और को दोष देने का कोई मतलब नहीं। औद्योगिक विकास दर गिर रही है जो आने वाले समय में और भी नीचे जा सकती है, इसलिए फिलहाल किस तरह के कदम उठाए जाएं किसी को समझ नहीं आ रहा है, लेकिन यहां सवाल इस स्थिति के बनने और उसके लिए जिम्मेदार नीतियों का है। सरकार ने यदि समय रहते सही निर्णय लिए होते और राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाई होती तो हालात बदल सकते थे। यह समय नीतियों को सही रूप में क्रियान्वित कराने, उसके लिए तंत्र विकसित करने और राजनीतिक दृढ़ता दिखाने का है। यदि सरकार अपने रवैये में बदलाव लाती है तो हालात बदल सकते हैं अन्यथा आने वाला समय और भी मुश्किलों से भरा हो सकता है। जिस तरह एक कमजोर व्यक्ति को सभी परेशान करते हैं वैसे ही एक कमजोर सरकार को सभी छेड़ते हैं और आज यही देखने को भी मिल रहा है। चाहे मनरेगा योजनाओं को लेकर की जा रही आलोचना का मुद्दा हो अथवा विकास विरोधी माहौल बनने और नए संकट खड़े होने का।


लेखक एनसी सक्सेना राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य हैं


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