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वर्तमान में इंटरनेट की आभासी दुनिया यानी वर्चुअल वर्ल्ड का सम्मोहन विदेश के साथ देश में भी बच्चों व युवाओं को तेजी से अपनीगिरफ्त में ले रहा है। हाल ही में ग्रेट ब्रिटेन में किए गए दो सर्वेक्षण गौरतलब हैं। इनमें पहला निष्कर्ष यह है कि ब्रिटेनवासियों को वे वर्चुअल सुख अधिक प्यारे हैं जो इंटरनेट की सोशल नेटवर्किग से प्राप्त होते हैं। अब वहां मां- बाप से भी बच्चों का संवाद केवल इंटरनेट के जरिए ही होता है। दूसरे सर्वेक्षण के अंतर्गत 11 वर्ष से 14 वर्ष के बीच के 40 फीसद बच्चे मोबाइल फोन अथवा कंप्यूटर के जरिये अश्लील साहित्य के साथ में महिला मित्रों की नग्न तस्वीरें दोस्तों के बीच बिना रोक-टोक के भेज रहे हैं। भारत में भी इंटरनेट की आभासी दुनिया ने यहां के युवाओं को पूरी तरह अपनी चपेट में ले लिया है। सामाजिक संबंधों के प्रत्यक्ष संवाद को घुन की तरह चाटना शुरू कर दिया है। मुंबई में ऐसे कई इंटरनेट एडिक्टेड क्लीनिक की शुरुआत भी हो गई है जहां दर्जनों मां-बाप अपने इंटरनेट व्यसनी बच्चों को लेकर ऐसे क्लीनिक पर लगातार पहुंच रहे हैं। इंटरनेट प्रयोग करने के मामले में भारत आज एशिया में तीसरा तथा विश्व में चौथा देश है। साथ ही इंटरनेट प्रयोग करने वाली 85 फीसद आबादी यहां 14 से 40 वर्ष के बीच है।
इस संदर्भ में सामाजिक तथ्य बताते हैं कि आज कंप्यूटर व इंटरनेट की आभासी दुनिया बच्चों में परिवार, स्कूल व क्रीड़ा समूह जैसी प्राथमिक संस्थाओं की उपादेयता पर सवालिया निशान लगा रही है। पिछले दो दशकों से लगातार कंप्यूटर व इंटरनेट सूचनाओं की नई नेटवर्क सोसाइटी गढ़ रहे हैं। यह वह सोसाइटी है जिसमें पारस्परिक संवाद के लिए दैहिक उपस्थिति आवश्यक नहीं है। निश्चित ही सूचनाओं के इस देहविहीन समाज में आमजन के समक्ष इन यक्ष प्रश्नों का उठना स्वाभाविक ही है कि इस इंटरनेट उन्मुख नेटवर्क सोसाइटी में हमारे फेस-टू-फेस संवाद बनाने वाले रोल मॉडल दम क्यों तोड़ रहे हैं? क्यों यूटोपियन सीरियल, फेसबुक, ट्विटर व ऑरकुट जैसी वेबसाइट्स के सामने हमारे दिमाग को तरोताजा रखने वाली स्वस्थ क्रियाएं हमारे प्रत्यक्ष सामाजिक जीवन से नदारद हो रही हैं? विद्यालयों में पठन-पाठन की क्रिया व शिक्षक की तुलना में इंटरनेट की सोशल वेबसाइट से संवाद प्रभावी क्यों हो रहा है? यह दौर ज्ञानाश्रित सूचना क्रांति का है। निश्चित ही सूचनाओं के तकनीकी संवाद ने परिवार व उसकी सामूहिकता को विखंडित करके बचपन को सबसे अधिक प्रभावित किया है। आज मां-बाप को इतनी फुरसत ही नहीं है जो उसे यह बता सकें कि समाज का उसके जीवन में क्या महत्व है तथा उसके सामाजिक जीवन को चयन करने की दिशा क्या होगी? बच्चों के जीवन में सांस्कृतिक मूल्यों की सीख देने वाले परिवार और स्कूल तक उनके बचपन से दूर हो रहे हैं। बच्चों का बचपन मनोरंजन की दैहिक दुनिया से छिटककर संचार माध्यमों की दुनिया तक सिमट रहा है। एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि परिवारों से बढ़े-बूढ़े तो निकाल दिए गए हैं तथा मां-बाप भी अब बच्चों के बचपन से अनुपस्थित हो रहे हैं। ऐसे अकेले वातावरण में संचार माध्यम ही ऐसे माध्यम बचते हैं जिनसे बच्चे अपने आभासी मनोरंजन की चीजों के चयन के लिए स्वतंत्र हो जाते हैं।
कंप्यूटर, इंटरनेट, वीडियो गेम, फिल्में व काल्पनिक उपन्यासों की वर्चुअल दुनिया की विशेषता यह है कि ये माध्यम बच्चों के सामूहिक व मानवीय संवेदनाओं के पक्ष को गायब करके उसके निहायत काल्पनिक, स्वकेंद्रित व रोमांचक उत्तेजना देने वाले पक्ष को ज्यादा प्रभावी बना देते हैं। चूंकि बच्चों के सामाजीकरण करने वाले परिवार व स्कूल जैसी प्राथमिक संस्थाएं भी बाजारवाद की गिरफ्त में हैं इसलिए बच्चे भी सांस्कृतिक शून्यता के दौर से गुजर रहे हैं। बचपन का सही निवेश जीवन भर मानवीय संवदेनाओं को संभाल कर रखता है। वर्तमान का सच यह है कि दैहिक सामाजीकरण का अभाव और मीडिया, कंप्यूटर व इंटरनेट के यांत्रिक संवादों की प्रचुरता बच्चों के बचपन को द्वंतात्मक बना रही है। बच्चों के जीवन में व्यसन के रूप में विकसित हो रहा उत्तेजना का यह स्थायी भाव कभी गुड़गांव जैसी बाल-हिंसा के रूप में सामने आता है तो कभी आत्महत्या के रूप में। इंटरनेट से बनने वाली दुनिया के नागरिकों का समाज अब 21वीं सदी के नेट से जुड़े नागरिकों (नेटीजंस) का समाज बन रहा है। इस समाज में पारस्परिकता, प्रेम, बंधुत्व, मनुष्यता, सहानुभूति व मानवीय संवेदना जैसे सनातन मूल्यों का अभाव साफ दिखाई दे रहा है। इनके अभाव में सबसे अधिक प्रभावित होने वाला बच्चों का बचपन ही है। बच्चों की इस पीढ़ी में सफलता प्राप्त करने की तीव्र इच्छा तो है, परंतु जीवन में असफल होने का धैर्य व संयम की मात्रा उनमें शून्य है।
बच्चे हमारे समाज व राष्ट्र का भविष्य हैं। इनके बचपन के वात्सल्य, प्रेम, दया व सहानुभूति के साथ अच्छा-बुरा, सच-झूठ व हिंसा-अहिंसा के बीच के अंतर के अच्छे भाव को जीवन में समाहित करने व गलत को जीवन से निकालने के कार्य में परिवार व स्कूल जैसी प्राथमिक संस्थाओं की महत्वपूर्ण भूमिका है। बच्चों के जीवन से आभासी रोमांच को घटाने के लिए आवश्यक है कि उनके एकाकीपन, तनाव, निराशा व कुंठा को कम करते हुए उनको रचनात्मक व प्रत्यक्ष दैहिक गतिविधियों में व्यस्त किया जाए। बच्चों में जज्बाती थकान व हिंसक उत्तेजना से जुडे़ भाव को मां-बाप और बच्चों के बीच बढ़े फासलों को कम करते हुए एवं उनसे निकट का संवाद स्थापित करके कम किया जा सकता है। आज वैश्विक समाज के बढ़ते बाजार से वचाव मुश्किल है, परंतु बच्चों को प्रत्यक्ष संवाद का आवरण प्रदान करते हुए उनमें इंटरनेट की आभासी दुनिया से उभरने वाले एकाकीपन के स्थायीभाव को कम किया जा सकता है।
लेखक डॉ. विशेष गुप्ता समाजशास्त्र के प्राध्यापक हैं
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