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जब जरूरी हो जाती है जबरदस्ती

जागरण मेहमान कोना
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Raj kishoreजबरदस्ती एक ऐसी चीज है जिसे कोई पसंद नहीं करता। यहां तक कि लोकतंत्र में कोई इस शब्द को सुनना तक नहीं चाहता, लेकिन हमें इस बात का अहसास नहीं है कि हम अपने जीवन में कितनी तरह की जबरदस्ती से गुजरते रहते हैं। उदाहरण के लिए कानून एक तरह की जबरदस्ती ही है। हमारी सहमति लेकर कानून नहीं बनाया जाता, लेकिन हमसे कानून का पालन अवश्य करवाया जाता है। यदि कोई इसका पालन करने से इंकार करता है तो उसे उपयुक्त सजा दी जाती है। सजा देना भी एक तरह की जबरदस्ती ही है। इस तरह की सैकड़ों जबरदस्तियां चलती रहती हैं, लेकिन हम समझते हैं कि हम स्वतंत्र जीवन जी रहे हैं और हमारे साथ किसी किस्म की जोर-जबरदस्ती नहीं की जा रही है। इस अंतर्विरोधपूर्ण स्थिति के पीछे भावना यही है कि किसी भी सभ्य समाज में नागरिकों के आचरण को संयमित व अनुशासित करने के लिए निश्चित नियम-कानून की जरूरत होती है। नियम-कानून न रहें तो चारों तरफ अराजकता फैल जाएगी। इसे ही जंगल का राज कहा जाता है, जिसमें मजबूत कमजोर को मारकर खा जाता है। कानून का राज इसलिए जरूरी है कि कोई किसी के साथ अन्याय न कर सके। इसीलिए कहा जाता है कि कानून से परे कोई नहीं है।


शक्तिशाली से शक्तिशाली आदमी को भी कानून के सामने झुकना पड़ता है। यह इसीलिए संभव होता है कि राज्य के पास जबरदस्ती करने की शक्ति सबसे ज्यादा होती है। उसके पास पुलिस है, न्यायालय है और अंत में सेना होती है। जब राज्य कमजोर होता है तो शक्तिशाली लोग अपनी मर्जी के बादशाह हो जाते हैं और दूसरों के साथ जबरदस्ती करने लगते हैं। यही वजह है कि सभी देशों की जनता सख्त राज्य को पसंद करती है। सख्त राज्य वह औजार है जिसके जरिये अन्यापूर्ण जबरदस्ती को न्यायपूर्ण जबरदस्ती से दबा दिया जाता है यानी राज्य और समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए जोर-जबरदस्ती तो करनी ही पड़ती है। यह जोर-जबरदस्ती इसीलिए अच्छी और मान्य मानी जाती है कि इससे कमजोर लोगों की हिफाजत होती है। इस संदर्भ में अन्ना हजारे के अनशन और उनके द्वारा प्रस्तावित जन लोकपाल विधेयक पर विचार किया जाए तो इस आपत्ति का उत्तर सहज ही मिल जाएगा कि तीन-चार लोग मिलकर देश के साथ जबरदस्ती कर रहे हैं। वे अनशन और नारों के सहारे अपनी बात सरकार से मनवाना चाहते हैं। कुछ लोगों का कहना यह है कि लोकतंत्र में अपनी बात मनवाने का यह तरीका ठीक नहीं है। बेहतर हो कि अपना प्रस्ताव सरकार को भेजिए, मंत्रियों और प्रधानमंत्री से मिलिए। जरूरत पड़े तो न्यायालय में जाइए।


मीडिया के जरिये अपनी आवाज उठाइए। जुलूस निकालिए और जगह-जगह जनसभाएं कीजिए, लेकिन खुदा के लिए अनशन या इस तरह के दूसरे तरीकों से सरकार को मजबूर मत कीजिए। अगर इस तरीके को स्वीकृति दे दी जाए तब कोई भी नेता हजार-पांच हजार समर्थकों के बल पर कोई भी गलत बात सरकार से मनवा लेगा। इससे आखिरकार हमारा लोकतंत्र ही कमजोर होगा। इस आपत्ति के रू-ब-रू जरा इन तथ्यों पर भी विचार कीजिए। एक गांव में एक राशन की दुकान है। दुकानदार रोज दुकान नहीं खोलता। जिस दिन दुकान खुली होती है और गांव का कोई कमजोर आदमी राशन लेने जाता है उसे दुकानदार यह कहकर टरका देता है कि आज गेहूं-चावल कुछ भी नहीं है किसी और दिन आ जाना। कब आऊं, इस प्रश्न का वह कोई जवाब नहीं देता? किसी दलित को इंदिरा आवास योजना के तहत घर बनाने का पैसा मंजूर हुआ है। सारी कार्यवाही पूरी हो चुकी है बस बैंक से पैसा निकालना है। दलित पैसा निकालने जाता है तो उससे कहा जाता है अभी सारे कागज नहीं आए हैं एक हफ्ते बाद आ जाना। हफ्ता-दर-हफ्ता गुजर जाता है पर बेचारे को उसका पैसा नहीं मिलता। किसी कस्बे या शहर में किसी नागरिक को अपना मकान बनवाना है।


नगर पालिका में मकान का नक्शा जमा किए हुए एक साल हो गया है। फिर भी नगर पालिका के अधिकारी नक्शा पास नहीं कर रहे। किसी औरत के साथ बलात्कार हुआ है और बलात्कार खुद उस क्षेत्र के विधायक के बेटे ने किया है। औरत अपने परिवार के लोगों के साथ प्राथमिकी दर्ज कराने थाने जाती है। उसकी रिपोर्ट नहीं लिखी जाती। जिद करने पर उन सबको मारपीट कर भगा दिया जाता है। किसी सरकारी कर्मचारी को जो बहुत ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ और समय का पाबंद है, सताने के लिए किसी सुदूर कोने में ट्रांसफर कर दिया जाता है। उसका कसूर यह है कि वह विभाग द्वारा की जाने वाली अनियमितताओं का हिस्सा नहीं बनना चाहता।


इस तरह की हजारों घटनाएं रोज हो रही हैं, लेकिन क्या यह नागरिकों के साथ जबरदस्ती नहीं है? क्या कानून इसकी इजाजत देता है और क्या इनकी सूचना देने पर तुरंत और सक्षम कार्यवाही होती है? जिस संसद और सरकार पर हमारे विद्वान और चिंतक लोग इतना भरोसा दिखा रहे हैं उन्होंने कभी गंभीरता से विचार किया है कि इस तरह के अन्याय और जबरदस्तियों को रोकने का आखिर उपाय क्या है? कुछ लोग कहेंगे, ऐसी स्थितियों से निपटने के लिए अदालत तो है ही, लेकिन अदालत जाना कितने लोगों के लिए संभव हो पाता है। फिर भी लोग अदालत जाना पसंद करेंगे अगर फैसला जल्दी हो जाए। ऐसा शायद ही कभी होता है और शिकायतकर्ताओं को महीनों नहीं, वर्षो चक्कर लगाना पड़ता है। ऐसी स्थिति में एक बूढ़ा आदमी अगर अनशन शुरू कर देता है कि जब तक बेईमानी और भ्रष्टाचार को रोकने के लिए मजबूत कानून नहीं बनाया जाता, ताकि शीघ्र न्याय करने की मशीनरी जिला स्तर तर पहुंच सके मैं अनशन जारी रखूंगा और मेरी यह मांग नहीं मानी गई तो जान दे दूंगा तो इसमें जबरदस्ती का सवाल कहां उठता है और इसमें लोकतंत्र के विरोध की गंध कहां से आ रही है? अगर यह जबरदस्ती है तो समाज में स्वस्थ परिवर्तन लाने के लिए इतनी जबरदस्ती तो करनी ही पड़ेगी। अगर शोषण और अन्याय एक तरह की जबरदस्ती है तो क्रांति दूसरी तरह की जबरदस्ती है।


अन्ना एक तरह से क्रांति का ही आह्वान कर रहे हैं। बेशक यह लघु क्रांति है। आज लघु क्रांतियां सफल होंगी तो कल संपूर्ण क्रांति भी सफल हो सकती है। मेरे खयाल से तो यह रास्ता माओवाद से बेहतर है। जनता अभी तक चुपचाप सहती आई है तभी तो मंत्री, अफसर, कर्मचारी और चपरासी इतनी मनमानी करते आ रहे हैं। अब वह उठ खड़ी हुई है और हिंसा से या बल प्रयोग से नहीं, बल्कि अनशन, जनसभा, धरना और प्रदर्शन से समाधान चाह रही है तो यह जबरदस्ती नहीं जनशक्ति का लोकतांत्रिक इस्तेमाल है। जो लोग भोले बनकर कह रहे हैं कि हम अन्ना की मांग से सहमत हैं पर उनके तरीके से नहीं उनसे निवेदन है कि वे कोई और असरदार तरीका बताएं। यदि वे ऐसा नहीं करते तो हम कहेंगे यह अन्ना और उनके साथियों के साथ एक तरह की जबरदस्ती है।


लेखक राजकिशोर वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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