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भरोसा खोती राजनीति

जागरण मेहमान कोना
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Hridaynarayan Dixitआदर्श राजव्यवस्था प्राचीन अभिलाषा है। लुडविग ने ऋग्वैदिक काल की सभा समिति में राजा को जनता के प्रति जवाबदेह बताया है। वाल्मीकि, तुलसी और गांधीजी का रामराज ऐसी ही अभिलाषा है। मेगस्थनीज ने इंडिका में भारतीय राजकाज की प्रशंसा की थी। चीनी यात्री फाह्यान ने भारतीय शासन को उदार व सौम्य बताया था। कौटिल्य ने लगभग 2332 बरस पहले प्रजा हितैषी राज को सर्वोच्च धार्मिक प्रकल्प कहा था। इतिहासकार अल बरूनी ने भी प्राचीन भारतीय राजकाज की तारीफ की थी, लेकिन आधुनिक राजनीति भयावह है।



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संसदीय जनतंत्र में बहुमत की तानाशाही है। संवैधानिक संस्थाओं पर हमले हैं। जनतंत्र लूटतंत्र बन गया है। अनेक पार्टियां प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां हैं। राजनीति कमाऊ उद्योग है। पारदर्शी भ्रष्टाचार है। वोट बैंक के लिए सांप्रदायिक अल्पसंख्यकवाद और जातिवाद है। जातीय वोट बैंक के लिए आरक्षण की आग है। जनतंत्र दलतंत्र का बंधक है। आम आदमी हताश है। जनतंत्र और दलतंत्र से आम आदमी का भरोसा उठ गया है। राजनीति में विश्वास का संकट है। अन्ना के पूर्व सहयोगी अरविंद केजरीवाल एक और राजनीतिक दल लेकर सामने हैं। भारत का दलतंत्र बड़ा है। यहां 7 राष्ट्रीय, 45 प्रदेशीय मान्यता प्राप्त व ढेर सारे पंजीकृत राजनीतिक दल हैं। दलों की भीड़ में एक और राजनीतिक दल की घोषणा से तमाम प्रश्न उठ रहे हैं। अन्ना ने भी सवाल उठाए हैं-पार्टी चलाने और चुनाव लड़ाने का धन कहां से आएगा? ईमानदार लोग कहां से आएंगे, वगैरह वगैरह।


केजरीवाल फिलहाल आत्मविश्वास से भरे-पूरे हैं। उन्होंने पार्टी खर्च व चुनाव खर्च आदि के लिए जनता पर ही भरोसा जताया है। पार्टी की विचारधारा और संविधान की प्रतीक्षा है। आदर्श राजनीतिक दल तात्कालिक मुद्दों से ही नहीं चलते। मुद्दे बदला करते हैं, उभरते हैं और खत्म भी होते हैं। विचार आधारित संगठन ही दीर्घकालिक काम करते हैं। राजनीति युगधर्म है। हमारी राजनीति में विचार आधारित अभियानों का अभाव है। यहां सत्ता सर्वोपरि है, विचार बेमतलब हैं, अब विचार छोड़कर गठबंधन बनाने का काम ही युगधर्म है। विचारनिष्ठ राजनीति युगधर्म नहीं रही। कांग्रेस पुराना राष्ट्रीय दल है। गांधी, तिलक, गोखले के दौर में यह विचारनिष्ठ राष्ट्रवादी थी। पं. नेहरू के बाद सत्तावादी हो गई। भारतीय जनसंघ ने राष्ट्रवादी राजनीति को मुख्य विचार बनाया। भारत में कम्युनिस्ट विचार की राजनीति 1925 में शुरू हुई।


भाकपा से माकपा बनी। कांग्रेस भी कई दफा टूटी। तृणमूल कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस इसी टूट का परिणाम हैं। कथित वैज्ञानिक भौतिकवादी विचारधारा के बावजूद कम्युनिस्ट पार्टियां भी टूटती रहीं। आज दर्जनों की संख्या है, लेकिन जनसंघ से भाजपा तक की यात्रा में सांस्कृतिक राष्ट्रवादी राजनीति में कोई विभाजन नहीं हुआ। सच्चे अर्थो में भाजपा और वामदल ही विचार आधारित पार्टियां हैं। इनकी कार्यसमिति में बहस से ही निर्णय होते हैं। बाकी दलों में ऐसा नहीं है। बेशक केजरीवाल की नई पार्टी भी अन्ना आंदोलन की टूट से बनी है, लेकिन नई पार्टी के गठन को अवसर देने का काम वर्तमान राजनीतिक दलतंत्र ने ही किया है। दलतंत्र ने भारत के जन-मन में निराशा पैदा की।


जो काम दलतंत्र को करना चाहिए वह काम अन्ना, रामदेव आदि ने किया और कर भी रहे हैं। जो आश्वासन और आशावाद दलतंत्र को देना चाहिए था वही आश्वासन शंकाओं सहित फिलहाल अरविंद केजरीवाल की नई पार्टी में देखा जा रहा है। अन्ना हजारे और रामदेव के अभियानों में जुटी भीड़ का संदेश साफ है। दलतंत्र ने जनतंत्र का भरोसा खोया है। लोकपाल के प्रश्न पर संसद ने सर्वसम्मत प्रतिबद्धता व्यक्त की थी, लेकिन लोकपाल विधेयक में उस प्रतिबद्धता का अभाव था। कृषि और किसान मरणासन्न हैं। सभी दल किसानों के पैरोकार हैं, लेकिन किसान हित में कोई पहल नहीं होती। वे किसान आत्महत्याओं पर भी संवेदनशील नहीं हैं। गरीबी की रेखा के नीचे के लोग भूखे है। अनेक सरकारी अध्ययन भी उन्हें 20-25 रुपये पर ही गुजारा करने वाला बता रहे हैं, लेकिन राजनीति गौर नहीं करती।


बुनियादी सवाल यह है कि क्या सभी राजनीतिक दलों में विचारनिष्ठ परिवर्तनकामी, जनहितैषी लोगों का अभाव है? क्या राजनीति में अच्छे लोगों की कमी है? वास्तव में ऐसा नहीं है। बेशक सभी दलों में अच्छे और विचारनिष्ठ लोग हैं, लेकिन नीति निर्माण में उनका हस्तक्षेप नहीं है। भारतीय राजनीति में अर्थशास्त्री ग्रेशम का सिद्धांत चल रहा है। ग्रेशम के अनुसार खोटे सिक्के खरे सिक्कों को चलन से बाहर रखते हैं। राजनीति में अच्छे सिक्के चलन से बाहर हैं। खोटे सिक्के ही असली मुद्रा हैं। नतीजा सामने है। दलतंत्र प्रतिभाशाली लोगों को आकर्षित नहीं करता। दल पारिवारिक संपत्तियां हैं या हाईकमान नियंत्रित कंपनियां। कुछेक दलों की राजनीति कट्टरपंथी लोगों के इशारों पर भी चलती है। इसी राजनीति के चलते राष्ट्र-राज्य की ताकत घटी है। विदेशी घुसपैठ रोकने की क्षमता नहीं। राष्ट्र-राज्य को ललकारते और सुरक्षा बलों का खून बहाते नक्सलियों से लड़ने की कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं।


पाकिस्तान समर्थक कश्मीरी अलगाववादियों से निपटने की कोई इच्छा भी नहीं। गरीबी, भुखमरी दूर करने की कोई प्रामाणिक योजनाएं नहीं। संवैधानिक संस्थाएं आशावाद नहीं जगातीं। दलतंत्र की दृष्टि आगामी चुनाव पर ही रहती है। आमजन इस राजनीति का विकल्प चाहते हैं। गांधी ने अंग्रेजी सत्ता से लड़ते हुए वैकल्पिक राजनीति का खाका भी पेश किया था, लेकिन कांग्रेस ने ही गांधी-मॉडल खारिज कर दिया।गांधीवादी अन्ना ने कोई वैकल्पिक मॉडल नहीं दिया। जनलोकपाल को ही लेकर लड़े तो भी उन्हें अभूतपूर्व समर्थन मिला। भारतीय राजनीति का शीर्ष नेतृत्व आत्मचिंतन करे। आखिरकार राजनीति निंदित कर्म क्यों है? यह लोकमंगल का उपकरण क्यों नहीं है? यहां सत्ता वरीयता ही क्यों है? राष्ट्र सर्वोपरिता क्यों नहीं है?


जनता राजनीति और राजनेताओं पर विश्वास क्यों नहीं करती? राजनीति राष्ट्रधर्म से प्रेरित क्यों नहीं होती? यह समता, संपन्नता और समाज परिवर्तन का उपकरण क्यों नहीं रही? अन्ना और रामदेव के आंदोलनों को व्यापक जनसमर्थन क्यों मिला? क्या केजरीवाल के पास इस दलतंत्र से भिन्न कोई वैकल्पिक विचारधारा है? या फिर वर्तमान दलतंत्र की कार्यशैली में ही खोट है? नए दल की सफलता की बातें दीगर हैं, लेकिन दलतंत्र को आत्म रूपांतरण करना ही होगा। संसदीय जनतंत्र संस्थाओं से ही चलते हैं। दल महत्वपूर्ण संस्था हैं। वे ही सत्ताधीश होते हैं और वे ही विपक्ष के रूप में निगरानीकर्ता। वे ही संसद, विधानमंडल और सरकार बनाते हैं। दल कम नहीं हैं। दल ढेर सारे हैं, लेकिन जनतंत्र राजनीति के दल-दल में है।


लेखक हृदयनारायण दीक्षित उप्र विधान परिषद के सदस्य हैं


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