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अलग रूप में आडवाणी

जागरण मेहमान कोना
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swapan dasguptaलालकृष्ण आडवाणी को सक्रिय राजनेता के बजाय संरक्षक की भूमिका निभाने की सलाह दे रहे हैं स्वप्न दासगुप्ता


राजनीति में समय ही सब कुछ होता है। सामान्य हालात में लालकृष्ण आडवाणी के ब्लॉग, जो आंशिक रूप से पिछले दिनों मेरे कॉलम की प्रतिक्रिया में लिखा गया था, को अंतर-पार्टी लोकतांत्रिक हस्तक्षेप और खासतौर पर विपरीत परिस्थितियों में भी चिंतन-मनन की भाजपा की क्षमता के रूप में देखा जाता। दुर्भाग्य से ब्लॉग 31 मई को मुंबई में भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के तुरंत बाद और उस दिन अपलोड किया गया जिस दिन राजग ने पेट्रोल की कीमतों में तीव्र वृद्धि के विरोध में सफल भारत बंद का आयोजन किया था। दूसरे शब्दों में जिस दिन चिलचिलाती गर्मी में भाजपा के कार्यकर्ता सड़कों पर धरना-प्रदर्शन में लगे हुए थे, आडवाणी ने ध्यान दूसरी तरफ मोड़ दिया। इससे इन्कार नहीं कर सकते कि भाजपा के पितामह की मंशा खेल बिगाड़ने की नहीं रही होगी, किंतु उनके इस बेबाक बयान से कि लोगों में पार्टी को लेकर असंतोष व्याप्त है और कुछ हालिया फैसलों से लोगों का भाजपा से मोहभंग हुआ है, यही पता चलता है कि या तो पार्टी में मतभेद बहुत गहरे हैं और या फिर आडवाणी उस संगठन से तालमेल नहीं बैठा पा रहे हैं जिसे पिछले तीन दशकों में उन्होंने बड़े जतन और लगन से तैयार किया है।


भाजपा जैसे आकार और विविधता वाली विशाल पार्टी में यह विश्वास करना संभव नहीं है कि प्रत्येक पदाधिकारी का दर्जा बराबर है। अयोध्या आंदोलन के उत्तेजना भरे दिनों में भी यह कोई रहस्य नहीं था कि अटल बिहारी वाजपेयी के मन में इस आंदोलन में भाजपा की ओर से प्रमुख भागीदारी निभाने को लेकर संदेह था। फिर यह भी सच है कि वाजपेयी की इस उलझन को पार्टी के बहुमत के सामने नहीं रखा गया था। यही कारण था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा समर्थित लालकृष्ण आडवाणी को 1991 में भाजपा के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी के ऊपर तरजीह देकर विपक्ष का नेता बना दिया था। वास्तव में, ब्रेकिंग न्यूज से पहले के युग में भी तुरंत ही वाजपेयी की नाराजगी सामने आ गई थी। आज की भाजपा में तरह-तरह के सुझाव एक-दूसरे के साथ मुठभेड़ कर रहे हैं। सहमति का निर्माण एक त्रासदी वाला अनुभव है। अकसर इसी कारण बहुत से मुद्दे अनसुलझे रह जाते हैं, जैसाकि उत्तराखंड के मामले में हुआ और जैसा कर्नाटक में हो रहा है। भाजपा भी अकसर समझौतों के पैबंद लगाकर खुद को बदरंग करती रहती है, जिन्हें व्यापक राजनीतिक स्वीकार्यता नहीं मिलती। भाजपा को सामूहिक निर्णय लेने में दो कारणों से संतोषजनक परिणाम नहीं मिलते हैं। जिन्ना विवाद के बाद आडवाणी का पराभव होने और वाजपेयी के सक्रिय राजनीति से अलग होने के बाद से भाजपा में कोई ऐसा नेता नहीं रहा जो ऐसा अंतिम फैसला ले सके जिससे बहुत से साथी सहमत हों।


नि:संदेह भाजपा में आडवाणी का कद ही सबसे बड़ा है, जिन्हें तमाम नेताओं का सम्मान भी हासिल है। हालांकि, 2009 के चुनाव प्रचार के दौरान विभिन्न मुद्दों पर वह अपेक्षित परिणाम नहीं दे पाए, जिसकी वजह से उनका कद कम हुआ है। इसका एक कारण यह है कि वर्तमान हालात के साथ आडवाणी अपनी भूमिका में सामंजस्य नहीं बैठा पा रहे हैं। जहां पार्टी का बड़ा तबका आडवाणी को संरक्षक के रूप में देखता है, जो राजग के अध्यक्ष पद की अलंकारिक भूमिका को निभा रहे हैं वहीं आडवाणी खुद को सक्रिय राजनेता के रूप में देखते हैं और पार्टी के रोजमर्रा के कामकाज में सक्रिय भागीदारी निभाना चाहते हैं। ऐसा नहीं है कि उनके विचार को खारिज कर दिया गया है या फिर उन्हें पार्टी के महत्वपूर्ण फैसले लेने से अलग-थलग कर दिया गया है, किंतु यह भी सच है कि अब उनके शब्द अंतिम नहीं रह गए हैं। यह एक आम समस्या है। दुनिया तेजी से बदल गई है, किंतु वह समय के साथ-साथ नहीं बदले हैं। इसके परिणाम त्रासद रहे हैं। आडवाणी मानकर चल सकते हैं कि वह अपने दिल के गुबार को निकाल रहे हैं और उन लोगों की आहत भावनाओं को अभिव्यक्ति दे रहे हैं, जो दागदार संप्रग का जोरदार विकल्प तलाशने में देरी से उपज रही हैं। हालांकि पार्टी के वफादारों के लिए वह ऐसे नेता के रूप में उभर रहे हैं जो गुटबाजी को बढ़ावा दे रहे हैं। साथ ही वह उन साथियों का नाजुक औजार बन रहे हैं जो साथी नेताओं से हिसाब चुकता करना चाहते हैं। आडवाणी को इस तथ्य पर गौर करना चाहिए कि उनके ब्लॉग में मीडिया ने तो पूरी दिलचस्पी दिखाई है, लेकिन भाजपा के अंदर उन्हें बहुत कम सहानुभूति मिली है।


मुंबई में भाजपा नए समीकरण खोजने में एक कदम आगे बढ़ गई है। पहला, उसने एक ऐसे नेता को स्थापित करने के प्रयास शुरू कर दिए हैं जो वाजपेयी और आडवाणी के कद को हासिल कर सके। इस संबंध में कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येद्दयुरप्पा ने नेता का स्पष्ट तौर पर अनुमोदन कर दिया है और इसकी प्रतिध्वनि मुंबई में आम सभा में सुनाई दी। दूसरे, राजनीति में राज्यों के बढ़ते महत्व को देखते हुए भाजपा ने राष्ट्रीय गतिविधियों में क्षेत्रीय नेताओं की अहमियत को औपचारिक मान्यता दे दी है। वैसे ऐसे भी बहुत से मुद्दे रहे जिन्हें राष्ट्रीय कार्यकारिणी में सुलझाया नहीं जा सका है। इनमें सबसे महत्वपूर्ण है स्पष्ट नीति का निर्धारण, जो अभी ढुलमुल नजर आ रही है। फिर भी समसामयिक सच्चाइयों का सामना करने के लिए पार्टी के पुनर्गठन की पहल तो कर ही दी गई है। भाजपा नई व्यवस्था के अनुरूप खुद को बदलने के नाजुक पारगमन से गुजर रही है। किसी भी नए प्रतिष्ठान की तरह इसमें अनेक जोखिम और अनिश्चितताएं हैं। इसमें यह खतरा भी निहित है कि एक समस्या का समाधान निकालने से नई तरह की विकृतियां पैदा हो सकती हैं। इनमें सबसे बड़ा खतरा विचारधारा के स्तर पर अलग-थलग पड़ जाने का है। अपने लंबे राजनीतिक अनुभवों के आधार पर आडवाणी को अगले आम चुनाव की तैयारियों में अहम भूमिका निभानी है। किसी भी संगठन को आगे ले जाने में आडवाणी जैसा कद्दावर नेता बेहद जरूरी है, जो संगठन की समस्याओं को उठा सके, उनका समाधान निकालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सके और जो अपने निस्वार्थ रिकॉर्ड से पार्टी को प्रेरित कर सके। अपने पसंदीदा अभिनेता एके हंगल की तरह आडवाणी किसी अच्छी फिल्म को बेहतर बनाने में योगदान दे सकते हैं, अपने दम पर उसे चला नहीं सकते। उन्हें अब भीड़ बटोरने की जिम्मेदारी किसी और को सौंप देनी चाहिए।


लेखक स्वप्न दासगुप्ता वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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