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सवाल केवल सीबीआइ का नहीं

जागरण मेहमान कोना
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Sudhansu Ranjanभ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए सीबीआइ के साथ-साथ अन्य विभागों को भी चुस्त-दुरुस्त करने की आवश्यकता जता रहे हैं सुधांशु रंजन


वैसे तो प्रस्तावित लोकपाल बिल के अनेक पहलुओं पर विभिन्न राजनीतिक दलों में गहरे मतभेद हैं, किंतु सबसे अधिक घमासान केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआइ) पर मचा हुआ है। प्रस्तावित लोकपाल बिल में प्रावधान है कि लोकपाल प्रारंभिक जांच करेगा और फिर मामला सीबीआइ को सौंप देगा। सीबीआइ को अभियोजन शुरू करने या मामला खत्म करने के लिए लोकपाल की अनुमति लेनी होगी। सवाल सीबीआइ को पूरी तरह निष्पक्ष एवं प्रभावी बनाने का है। इस दिशा में पहला गंभीर प्रयास उच्चतम न्यायालय ने विनीत नारायण मामले (1998) में किया, जब सीबीआइ को स्वायत्त बनाने के लिए कुछ महत्वपूर्ण निर्देश दिए गए। इससे एक लाभ यह हुआ कि कम से कम सीबीआइ निदेशक को एक निश्चित कार्यकाल मिल गया। इसके बावजूद एजेंसी के राजनीतिक इस्तेमाल के आरोप लगते रहते हैं, जो निराधार नहीं हैं। अन्ना की जनसंसद में शरद यादव ने ईमानदारी से स्वीकारा कि सीबीआइ का दुरुपयोग उनकी सरकार में भी किया गया। सीबीआइ के राजनीतिक दुरुपयोग के कई उदाहरण हैं जिन्हें दोहराने की जरूरत नहीं है।


सीबीआइ के निदेशक की नियुक्ति के लिए अभी केंद्रीय गृह सचिव, केंद्रीय कार्मिक सचिव एवं केंद्रीय सतर्कता आयोग के अध्यक्ष की एक समिति है जिसकी अनुशंसा पर सरकार नियुक्ति करती है। इसमें दो समस्याएं हैं। पहली, इस समिति में केंद्रीय सतर्कता आयोग के अध्यक्ष को छोड़कर बाकी दोनों सरकारी अधिकारी हैं, जिनसे निष्पक्षता की अपेक्षा नहीं की जा सकती। दूसरी यह कि इस समिति की अनुशंसा भी मानने के लिए सरकार बाध्य नहीं है। अब सरकार ने सीबीआइ की नियुक्ति के लिए नया पैनल बनाने का प्रस्ताव रखा है, जिसमें प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश या उनके द्वारा अधिकृत कोई जज शामिल होगा। यह प्रावधान उचित है। इससे सीबीआइ स्वायत्त बनेगी। परंतु समस्या केवल सीबीआइ की स्वायत्तता की नहीं है। पुलिस को भी सशक्त बनाने की जरूरत है और इसलिए उच्चतम न्यायालय ने प्रकाश सिंह मामले में पुलिस अधिकारियों का कार्यकाल निश्चित करने एवं सुरक्षा आयोग गठित करने का निर्देश दिया था। अन्य अधिकारियों व कर्मचारियों को भी सुरक्षा की जरूरत है। किसी को परेशान करने का सरकार के पास सबसे बड़ा हथियार है स्थानांतरण, जिसकी कोई सुपरिभाषित नीति नहीं है। कुछ चाटुकार अधिकारी जहां एक ही जगह पूरी जिंदगी गुजार देते हैं या मनपसंद प्रतिनियुक्ति पाते हैं वहीं ईमानदार अधिकारियों का अकसर स्थानांतरण होता रहता है। उन्हें अन्य कई तरीकों से प्रताडि़त किया जाता है। कई बार अवैध आदेश मौखिक रूप से दिए जाते हैं। कनिष्ठ अधिकारियों की हिम्मत नहीं होती है कि वे अपने वरिष्ठ अधिकारी का आदेश मानने से इनकार कर सकें। यह विचारणीय है कि इस पूरी संस्कृति को कैसे बदला जाए।


सीबीआइ के समक्ष एक अन्य समस्या एकल निर्देश की है, जिसके तहत संयुक्त सचिव और उससे ऊपर के अधिकारियों के विरुद्ध कोई भी मुकदमा नियुक्ति करने वाले अधिकारी की पूर्वानुमति के बिना दायर नहीं किया जा सकता है। विनीत नारायण मामले में उच्चतम न्यायालय ने इसे इस आधार पर अवैध करार दिया कि यह एक कार्यकारी आदेश है, जिसका कोई कानूनी आधार नहीं है। केंद्र सरकार ने 2002 में केंद्रीय सतर्कता आयोग अधिनियम बनाते समय इसे कानूनी जामा पहनाया। हालांकि यह प्रावधान समानता के मौलिक अधिकार का हनन है कि एक ही अपराध के लिए एक वर्ग के अधिकारियों पर बिना पूर्वानुमति मुकदमा चलाया जा सकता है जबकि उससे ऊपर के अधिकारियों के विरुद्ध नहीं।


यह भी उल्लेखनीय है कि यह एकल निर्देश केवल केंद्रीय सतर्कता आयुक्त तथा सीबीआइ पर लागू होता है, आम पुलिसकर्मियों पर नहीं। भ्रष्टाचार निरोधक कानून के तहत यह पूर्वानुमति प्राप्त करना भी एक बड़ी समस्या है। वैसे भारतीय दंड विधान के तहत भी भ्रष्टाचार के विरुद्ध मुकदमा चलाया जा सकता है किंतु इसमें भ्रष्टाचार की परिभाषा केवल घूसखोरी तक सीमित है जबकि भ्रष्टाचार निरोधक कानून में इसका दायरा इतना व्यापक है कि पद के किसी भी दुरुपयोग के लिए भ्रष्टाचार का मामला बनता है। यह जरूरी नहीं है कि अधिकारी ने रिश्वत ली हो, परंतु यदि उसके निर्णय से किसी को अनुचित लाभ या नुकसान होता है तो यह भ्रष्टाचार है। भारतीय दंड विधान तथा भ्रष्टाचार निरोधक कानून के बीच भी समन्वय स्थापित करने की जरूरत है। वैसे भारतीय दंड विधान के तहत भी अभियोजन चलाने के लिए अपराध प्रक्रिया विधान (सीआरपीसी) की धारा 197 के अंतर्गत सक्षम अधिकारी की पूर्वानुमति अनिवार्य है। पूर्वानुमति प्राप्त नहीं होने के कारण अनेक मामले खटाई में पडे़ हैं। इसमें एक प्रावधान यह किया जा सकता है कि एक खास अवधि, जैसे एक माह, के अंदर अनुमति प्राप्त नहीं होने पर यह माना जाएगा कि अनुमति दी जा चुकी है। अभी इस तरह की फाइलों पर संबद्ध विभाग वषरें तक कुंडली मारकर बैठ जाता है। इस सबसे महत्वपूर्ण है कि यदि अनुमति मिल भी जाती है और आरोप पत्र अदालत में दायर हो जाता है तो अदालत में कितना समय लगेगा। वहां तो वषरें और दशकों लगते हैं निष्पादन में। मायावती ने मई 2008 में उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की थी कि सीबीआइ को उनके विरुद्ध आय से अधिक संपत्ति के मामले में आरोप पत्र दाखिल करने से रोका जाए। उस पर फैसला आज तक नहीं आया है। निचली अदालत से उच्चतम न्यायालय तक फैसला होने में यदि कई दशक लगेंगे तो भ्रष्टाचार पर कभी अंकुश नहीं लगेगा।


लेखक सुधांशु रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं


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