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आम आदमी की बात करने वाली कांग्रेस की अगुवाई वाली संप्रग सरकार के सामने यह एक बड़ा मौका है कि वह लोकपाल के जरिये भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मजबूत तंत्र बनाकर सुशासन की दिशा में पहल करती। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि सरकार से चला एक रुपया गरीबों तक पहुंचते-पहुंचते पंद्रह पैसा ही रह जाता है। राजीव गांधी के बाद भी कई कांग्रेस नेता इस राग को अलापते रहे, लेकिन भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ रहे 85 पैसे को जरूरतमंदों तक पहुंचाने के लिए संप्रग-1 और संप्रग-2 सरकार ने कभी ठोस कदम नहीं उठाए। कांग्रेस के युवा महासचिव राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार की बात कर जब मायावती सरकार पर आरोप लगाते हैं तो राज्य की जनता को हैरानी होती है। देश की जनता को हैरानी उस वक्त भी होती है, जब बाबा रामदेव या फिर अन्ना हजारे की अगुवाई में देश का जनमानस भ्रष्टाचार के खिलाफ एकजुट होता है और कांग्रेस की युवा ब्रिगेड भ्रष्टाचार के खिलाफ मजबूत तंत्र बनाने की बात करने के बजाय इन आंदोलनों पर ही सवाल खड़े करने लगती है।
कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने प्रस्तावित लोकपाल के लिए संवैधानिक दर्जा देने की बात कही थी और खुद कानून मंत्री सलमान खुर्शीद का कहना था कि इससे किसी संस्थान को प्राधिकार एवं सत्यनिष्ठा की विशेष गारंटी मिलती है। सलमान खुर्शीद का यह भी कहना था कि राहुल गांधी की आकांक्षा और संकल्प है कि लोकपाल सुप्रीम कोर्ट जैसे देश के संवैधानिक संस्थानों से कम नहीं होना चाहिए। सवाल यह उठता है कि जब कांग्रेस के युवा महासचिव इस संस्था को संवैधानिक संस्था के तौर पर स्थापित करना चाहते हैं तो फिर केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआइ) को इसके अधीन क्यों नहीं किया जा रहा है? आखिर कब तक सीबीआइ को सरकार अपनी ढाल बनाकर रखना चाहती है? क्या सीबीआइ जैसी एजेंसी का मतलब विरोधी दल के नेताओं के खिलाफ जांच तक सीमित रह गया है? देश के अलग-अलग हिस्सों से कई पूर्व न्यायाधीशों ने भी सरकार के इस प्रस्ताव पर ऐतराज जताया है और उनका कहना है कि जहां सवाल ईमानदारी और बेईमानी का हो तो वहां पर जाति या धर्म के आधार पर आरक्षण की भूमिका क्या हो सकती है? समाज के कमजोर और पिछड़े तबकों को बराबरी पर लाकर खड़ा करने के लिए भारतीय संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया था। यह बात अलग है कि आजादी के बाद तमाम सरकारें आरक्षण को लेकर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकती रहीं और इसके जरिये अपने वोट बैंक को खड़ा करती रहीं।
दरअसल, सरकार की मंशा एक ढुलमुल लोकपाल कानून बनाने की ज्यादा लगती है ताकि यह संस्था भी आने वाले समय में देश की बाकी संस्थाओं की तरह बरसों जांच पर जांच के खेल में उलझी रहे और असली गुनहगारों को कभी सजा न मिले। बात भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन या लोगों के गुस्से की नहीं, सरकार की नीयत की है। आज सरकार में बैठे लोग लोकपाल को संवैधानिक संस्था का दर्जा देने की बात कहकर भले ही अपनी पीठ थपथपा रहे हैं, लेकिन देश में 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला सामने आने के बाद सरकार में बैठे मंत्रियों ने किस तरह से सीएजी की भूमिका पर सवाल उठाए थे, यह बात किसी से छिपी नहीं है। देश की जनता इस बात से हैरान हो जाती है कि किसी अखबार में छपी अन्ना हजारे और नानाजी देशमुख की तस्वीर को समूची कांग्रेस पार्टी के नेता एक बड़ा मुद्दा बना लेते हैं और अन्ना हजारे से उनकी विचारधारा के सबूत मांगने में जुट जाते हैं। देश की जनता की दिलचस्पी अन्ना हजारे या बाबा रामदेव की राजनीतिक निष्ठा और विचारधारा जानने में नहीं है।
देश की जनता यह जानना चाहती है कि संप्रग सरकार के दौर में अब तक हुए घोटालों के खिलाफ सबूत जुटाने में क्या कदम उठाए जा रहे हैं? एक आदमी की चिंता यह है कि अगर उसे राशन कार्ड या जाति प्रमाण पत्र बनवाना हो तो इसके लिए कोई बड़ा बाबू या छोटा बाबू उससे रिश्वत न मांगे। इसमें कोई दो मत नहीं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ बाबा रामदेव, श्रीश्री रविशंकर और अन्ना हजारे जैसे लोगों की पहल ने जनचेतना जागृत की है और जरूरत इस बात की है कि सरकार लोगों की इस चेतना को समझने की कोशिश करते हुए भ्रष्टाचार को लेकर कड़े कदम उठाए।
लेखक डॉ. शिव कुमार राय वरिष्ठ पत्रकार हैं
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