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एक बिल की बदकिस्मती

जागरण मेहमान कोना
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A Surya4 अगस्त को बदकिस्मत लोकपाल बिल का एक साल पूरा हो गया। अन्ना हजारे आंदोलन के भारी दबाव में पिछले साल इसी दिन संप्रग सरकार ने लोकसभा में लोकपाल बिल का अपना संस्करण पेश किया था। सरकार ने भ्रष्टाचार विरोधी मजबूत कानून बनाने के अनेक वायदे किए, किंतु जैसा कि सर्वविदित है लोकपाल बिल के पारित होने की दूर-दूर तक उम्मीद नजर नहीं आती।भ्रष्टाचार में लिप्त सरकार चालबाजियों से बाज नहीं आ रही है और उसे संपूर्ण राजनीतिक तबके का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन हासिल है। प्रस्तावित विधेयक को बड़ी आसानी के साथ दूसरी संसदीय समिति के हवाले कर दिया गया, जिसमें प्रमुख विपक्षी दल भाजपा की भी मौन सहमति थी। मजबूर होकर खराब स्वास्थ्य के बावजूद अन्ना हजारे और उनकी टीम को फिर से जंतर-मंतर पर धरने के लिए बैठना पड़ा। इसी के साथ अगस्त 2011 से अन्ना के खिलाफ ऊटपटांग बयानबाजी करने वाले राजनेता भी सक्रिय हो गए और टीम अन्ना पर अनर्गल आरोप लगाने लगे। सरकार की असंवेदनशीलता को देखते हुए टीम अन्ना ने अपनी रणनीति बदली और चुनावी राजनीति में उतरने के प्रस्ताव के साथ अनशन समाप्त कर दिया। चूंकि जनता की याददाश्त कमजोर होती है, इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि पिछले साल की घटनाओं पर एक नजर डाल ली जाए।


2010 में कांग्रेस राष्ट्रमंडल खेल और 2जी स्पेक्ट्रम जैसे बड़े घोटालों में फंस गई थी और लोकपाल के मुद्दे पर पैर पीछे खींच रही थी। जैसे ही अन्ना हजारे के आंदोलन ने जोर पकड़ा, सरकार पर लोकपाल लाने का दबाव बढ़ गया। चूंकि एक मजबूत भ्रष्टाचार विरोधी कानून से कांग्रेस की छीछालेदर होनी तय थी, इसलिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनके साथी अन्ना आंदोलन और इसके नेता की छवि कलंकित करने के लिए तमाम तिकड़में आजमाने लगे। सर्वप्रथम, कांग्रेस ने कूड़े के ढेर में पड़ी महाराष्ट्र सरकार की जांच रिपोर्ट को झाड़पोंछ कर निकाला ताकि अन्ना हजारे और उनकी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम की नैतिकता पर कीचड़ उछाल सके। कांग्रेस के प्रवक्ता मनीष तिवारी ने घोषणा की कि अन्ना सिर से पैर तक भ्रष्टाचार में सने हैं। उन्होंने एक असाधारण बयान जारी किया कि सरकार अन्ना के प्रति हद से अधिक नरमी बरत चुकी है। उनके इस बयान से फासीवाद की बू आ रही थी। उन्होंने आगे कहा कि टीम अन्ना फासिस्टों, माओवादियों और अराजकतावादियों के प्रति समझौतावादी रुख अपनाती है और उन्हें ऐसे अदृश्य दानकर्ताओं से पैसा मिल रहा है, जिनके संबंध विदेशों से हैं। इसके बाद गृहमंत्री पी चिदंबरम ने अन्ना की गिरफ्तारी को जायज ठहराया और अन्ना के अनशन के लिए उचित स्थान देने से इन्कार कर दिया। दिल्ली पुलिस ने अन्ना को अनशन के लिए मैदान देने के लिए 22 शर्ते लगा दीं। कांग्रेस पार्टी अन्ना हजारे की लोकप्रियता से इस कदर घबरा गई कि उसके नेताओं ने अन्ना के सत्याग्रह को फासीवादी औजार बताना शुरू कर दिया। कपिल सिब्बल भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को संविधान व संसद विरोधी बताने लगे।


2011 में संप्रग सरकार ने लोकसभा में कमजोर लोकपाल बिल पेश किया, किंतु उसकी नीयत तब साफ हो गई जब बिल को जल्द ही संसद की स्थायी समिति के सुपर्द कर दिया, जिसके अध्यक्ष अभिषेक मनु सिंघवी थे। पूरा देश कांग्रेस के घटिया हथकंडों पर उसकी भ‌र्त्सना कर रहा था, किंतु उसके नेताओं को लग रहा था कि उन्होंने लोगों को मूर्ख बना दिया। इस कमेटी ने दिसंबर 2011 में अपनी रिपोर्ट सौंप दी और अंतत: बड़े बदलावों के साथ बिल को लोकसभा में पेश कर दिया गया। इन बदलावों ने लोकपाल बिल की जान ही निकाल दी। नए प्रारूप में लोकपाल को संवैधानिक दर्जा देते हुए कहा गया कि संसद तय करेगी कि प्रधानमंत्री को इसके दायरे में लाया जाए या नहीं। इसमें कहा गया कि समूह ए और समूह बी के कर्मचारियों को लोकपाल के दायरे में लाया जाना चाहिए, किंतु समूह सी और समूह डी स्टाफ मुख्य सतर्कता आयुक्त के अधीन होना चाहिए। समिति ने संसद में सांसदों के भाषण, वोट और व्यवहार को लोकपाल के दायरे से बाहर कर दिया। न्यायपालिका को भी लोकपाल से बाहर रखा गया। इसमें सुझाव दिया गया कि केंद्र में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्तों के प्रतिष्ठान के लिए एक ही कानून होना चाहिए। जैसे ही कमेटी की रिपोर्ट पटल पर पेश की गई, सरकार ने अगस्त में पेश किया गया बिल वापस ले लिया और नया बिल-लोकपाल और लोकायुक्त बिल, 2011 पेश कर दिया। इसके बाद जो कुछ हुआ उससे भ्रष्टाचार रोधी कानून के पक्षधरों की उम्मीदों पर पानी फिर गया।


लोकसभा में दिन भर चलने वाली बहस के बाद सरकार ने बिल को राज्यसभा में भेज दिया। हालांकि लोकपाल के रास्ते में बाधा खड़ी करने की सरकार की मंशा जल्द ही स्पष्ट हो गई जब दिसंबर, 2011 में शीतकालीन सत्र में कांग्रेस के संकटमोचकों ने कुछ क्षेत्रीय और छोटे दलों के नेताओं को बहस में विघ्न डालने के लिए तैयार कर लिया। सरकार ने सदन में हंगामे का बहाना बनाकर सदन को स्थगित कर दिया। इस वर्ष बजट सत्र की शुरुआत होते ही संप्रग सरकार फिर से छलकपट पर उतर आई। अनेक मंत्रियों ने दावा किया कि इस बिल पर राज्यसभा में बहस की जानी चाहिए। गत मई में संप्रग ने पूरे देश को चौंकाते हुए बिल को राज्यसभा की प्रवर समिति को सौंपने की घोषणा कर दी। अफसोस की बात यह है कि सरकार की चालबाजियों में भाजपा भी शामिल हो गई। इस कमेटी को मानसून सत्र की समाप्ति तक रिपोर्ट सौंपने का समय दिया गया है, लेकिन समिति के अध्यक्ष का कहना है कि इसके आसार कम हैं। पिछले एक साल में संप्रग सरकार की साख और गिर गई है और हैरानी की बात यह है कि कांग्रेस अपने साथ भाजपा को भी डुबो रही है। जिस भाजपा को सरकार के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की पहल करनी चाहिए थी, एक साल पहले की तुलना में वह अब और अधिक अप्रासंगिक हो चुकी है। लोगों को अहसास हो गया है कि कांग्रेस और भाजपा, दोनों ही अविश्वसनीय हैं और इस मुद्दे पर नूरा कुश्ती लड़ रही हैं। इसीलिए अब बहस संप्रग की विफलता के बारे में नहीं, बल्कि राजनीतिक व्यवस्था की विफलता को लेकर हो रही है। फिल्मकार शेखर कपूर ने सही कहा है कि भारत में सरकार परिवर्तन की नहीं, बल्कि राजनीतिक व्यवस्था परिवर्तन की जरूरत है। 65 साल की वर्तमान व्यवस्था ने लोगों और सरकार के बीच भारी अंतर पैदा कर दिया है।


लेखक ए. सूर्यप्रकाश वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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