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छत्तीसगढ़ के बस्तर में माओवाद की समस्या पर ईमानदारी से अध्ययन करने, इस विषय पर कोई किताब लिखने या फिल्म बनाने वालों से कुछ अपेक्षाएं हैं। अव्वल तो उन्हें नक्सलवाद जैसी गंभीर बन चुकी समस्या का ऐसा सरलीकरण नहीं करना चाहिए कि आदिवासियों ने शोषण के खिलाफ हथियार उठा लिए हैं। दूसरी बात यह कि देश के बाकी हिस्सों में चल रहे माओवादी आंदोलन से भी बस्तर को अलग करके देखने पर ही तस्वीर साफ होगी। समझना यह भी होगा कि पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी जैसी कोई भी स्थिति बस्तर में नहीं है, जहां से नक्सल आंदोलन का जन्म हुआ था। यहां न तो वहां के जैसे किसान हैं न ही जमीन को लेकर किसी तरह का बंगाल जैसा विवाद। बस्तर में कोई जमींदार या भूस्वामी भी नहीं हैं, जिनके खिलाफ खूनी क्रांति की जाए, जैसा कि नक्सलबाड़ी में था। बस्तर के नक्सल आंदोलन का सूत्र मूलत: तेलंगाना आंदोलनों से जुड़ता है। वहीं के कोंडापल्ली सीतारमैया ने बस्तर को तब अपने अभियान के लिए इसलिए चुना था क्योंकि तेलंगाना क्षेत्र में आंदोलन चलाने के लिए उसे बाहर कहीं एक आधार जरूरत थी। भौगोलिक रूप से अबूझमाड़ के घने जंगल वाला क्षेत्र आंध्र से नजदीक होने के कारण भी उसके लिए मुफीद था। इसलिए वह सीतारमैया की स्वाभाविक पसंद बना। अब उन्हें अबूझमाड़ में अपने अस्तित्व के लिए कारण चाहिए थे, आदिवासियों में पैठ बनाने के लिए उनके हित की बात भी कहनी थी तो माओवादियों ने आदिवासियों के शोषण को इस्तेमाल करना शुरू किया और उसे प्रचारित करने लगे।
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जाहिर है आदिवासियों की बात करने से उनकी सहानुभूति मिलनी तय थी। यहां आशय यह नहीं है कि आदिवासियों के शोषण, उपेक्षा, उनके संसाधनों की लूट आदि की बात झूठी है। यह सब सच है, मगर यह इकलौता सच नहीं है। सच की एक और तस्वीर है, जिसे बार-बार अनदेखा किया जाता है या उसके बारे में बात करने वाले को गरीबों, आदिवासियों का विरोधी मान लिया जाता है। यहां इन तमाम बातों का आशय इसमें निहित है कि वहां नक्सलवाद उपर्युक्त कारणों से नहीं पनपा। कोंडापल्ली को अपने आंदोलन के लिए वहां की जमीन चाहिए थी तो इन कमियों को इस्तेमाल किया गया। यही कारण है कि आज भी बस्तर के नक्सलियों में तेलगुभाषी लोगों का वर्चस्व है। इसी भाषाई समानता के कारण स्वामी अग्निवेश जैसे तेलगुभाषी लोग वहां के नक्सलियों के बीच अपनी पैठ बनाने में सफल हो पाते हैं। हाल में इस विषय पर आई फिल्म चक्रव्यूह भी फ्रेम दर फ्रेम इसी दुष्प्रचार का शिकार लगती है। जैसे यह स्थापित तथ्य है कि नक्सली स्थानीय बच्चों और महिलाओं को अपनी ढाल के रूप में इस्तेमाल करते हैं, ताकि पुलिस उन पर गोली न चला सके, लेकिन फिल्म में इसके विपरीत पुलिस वालों को बच्चों को मारते-पीटते और उससे विचलित होकर महिला नक्सली को आत्मसमर्पण करते दिखाया गया है। हाल में 11 और 13 साल की दो आदिवासी बच्चियों के बारे में खबर थी कि उन्हें तीन साल से नक्सलियों द्वारा बंधक बनाकर दुष्कर्म किया जा रहा था।
यह बस्तर में रोजमर्रा की बातें हैं, जिसे फिल्म में न सिर्फ नजरअंदाज किया गया है, बल्कि दूसरी तस्वीर दिखाते हुए नक्सलियों की सहृदयता का ही जिक्र किया है। फिल्म में बात चाहे हथियारों के लिए वसूली की रकम का इस्तेमाल गांवों के पुनर्वास में लगाने की हो या जन अदालत में ग्रामीणों द्वारा फैसला लेना हो, मगर यह बस्तर के नक्सलवाद का एकमात्र सच नहीं है। पिछले दिनों बस्तर पर एक किताब भी आई थी, उसमें भी बस्तर का दूसरा पहलू सामने नहीं रखा गया है। बेहतर होता कि फिल्म में बस्तर के नक्सलवाद का दूसरा चेहरा भी दिखाया गया होता। नक्सली दुष्प्रचार के विरुद्ध इन तथ्यों को फिल्मांकित किया जा सकता था कि कैसे महिलाओं-बच्चियों के साथ नक्सली ज्यादती करते हैं? कैसे दंतेवाड़ा के एर्राबोर में डेढ़ साल की बच्ची ज्योति कुट्टयम समेत 65 आदिवासियों को जिंदा जला दिया जाता है? कैसे नक्सली आतंक से मुक्ति के लिए रानीबोदली शिविर में शरण लिए 35 निर्दोष अबूझमाडि़यों का निर्ममता से कत्ल कर दिया जाता है? कैसे फिल्म में दिखाए गए विवरण से उलट हर हफ्ते नक्सलियों के आतंक से बचकर बच्चियां, महिलाएं और युवा समाज की मुख्यधारा में शामिल होने आते हैं? कैसे कोई रेड्डी जंगल से सैकड़ों किलोमीटर दूर भिलाई के बंगले में अपने परिवार के साथ जिंदगी बिताते हुए गुडसा उसेंडी के छद्म नाम से नक्सलियों का आधिकारिक प्रवक्ता बना रहता है? नक्सलियों का किस तरह 1500 रुपये की वसूली का सालाना कारोबार चलता है?
किस तरह लेवी वसूली में रंगे हाथों पकड़े जाने पर महीनों बाद कहानी गढ़ी जाती है और दंतेवाड़ा से हजारों किलोमीटर दूर दिल्ली के आलीशान फ्लैट से एक मसीहा द्वारा पत्रकारों को आंखों देखा हाल सुनाया जाता है? बेहतर हो ता कि फिल्म को यथार्थ के थोड़ा करीब रखा गया होता। मसलन झारखंड के लातेहार की नक्सली जूही छत्तीसगढ़ी बोलती है, झारखंड के ही नक्सली किशन जी के अंदाज में पत्रकारों से बात करने वाला राजन भी छत्तीसगढ़ी जुबान बोलना वाला है, आंध्र प्रदेश इलाके का आजाद भी छत्तीसगढ़ के कोटे में ही समाहित कर लिया गया है। तथ्य यह है कि छत्तीसगढ़ में एरिया कमांडर और ऊपर के ज्यादातर पदों पर आंध्र प्रदेश के तेलुगूभाषी ही हैं। नीचे के दलों के स्थानीय लोग भी गोंडी-हल्वी स्थानीय बोलियां ही बोलते हैं न कि छत्तीसगढ़ी। यहां मकसद फिल्म की समीक्षा या आलोचना करना नहींहै। कभी एक फिल्मकार ने कहा था कि बॉलीवुड में दो या तीन तरह की ही कहानियां हैं, जिनके फार्मूले पर सारी फिल्में बनती हैं। उन फार्मूला कहानियों में एक शायद यह भी होगी कि जमींदार या पुलिस के अत्याचार से पीडि़त होकर एक व्यक्ति डाकू बन जाता है, जो गरीबों के लिए काफी सहृदय होता है। अंतत: अमीरों को लूटते हुए गरीबों की रक्षा करते हुए हीरो अपनी शहादत को प्राप्त होता है। इसी फार्मूला में सहृदय डाकू की जगह नक्सलियों को रख कर दूसरे पहलू पर विचार किए बिना यह फिल्म भी तैयार कर दी गई है। बात अगर किसी सामान्य घटना से प्रेरित होकर किसी तरह का सृजन करने की हो तो निश्चय ही घटना को चित्रित करने में सर्जक को यह स्वतंत्रता है कि वह अपने हिसाब से कहानी में रद्दोबदल कर दे, लेकिन बात अगर लोकतंत्र और देश की आंतरिक सुरक्षा पर पैदा हुए सबसे बड़े संकट का हो तब इस तरह की स्वछंदता में थोड़ी तो सावधानी बरतनी चाहिए। बस्तर के नक्सलवाद को बिल्कुल वहीं के परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है। उसे बिहार, बंगाल, झारखंड, ओडिशा या आंध्र के चश्मे से देखना-समझना मुमकिन नहीं।
लेखक पंकज झा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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