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फिर अपने हक के लिए जूझते गन्ना किसान

जागरण मेहमान कोना
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इसे कृषि प्रधान देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि यहां किसानों को हर कदम पर चुनौतियों से जूझना पड़ता है। हां, जब किसी राज्य में चुनाव होने होते हैं तो वहां के किसानों की मुसीबतें कुछ दिनों के लिए जरूर कम हो जाती हैं। इसे उत्तर प्रदेश में गन्ना मूल्य निर्धारण से समझा जा सकता है। पिछले साल विधानसभा चुनाव को देखते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने गन्ने के राज्य प्रशासित मूल्य (एसएपी) में 40 रुपये की भारी-भरकम बढ़ोतरी कर दी थी, लेकिन इस बार प्रदेश सरकार गन्ने का एसएपी निर्धारित करने पर चुप्पी साधे हुए है। इसी का नतीजा है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गन्ना किसान और गुड़ व्यापारी दोनों परेशान हैं। चीनी मिलों में पेराई शुरू न होने के कारण किसान अपना गन्ना औने-पौने दामों पर बेच रहे हैं। जिन्होंने मूल्य की घोषणा की बाट जोहते हुए गन्ना खेतों में रोक रखा है, उन्हें गेहूं की बुवाई में पिछड़ने का डर सता रहा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गन्ना किसान अभी अपने असंतोष को थामे हुए हैं, वहीं महाराष्ट्र के गन्ना किसानों का आंदोलन चरम पर है। यहां एक ओर किसान गन्ने का खरीद मूल्य बढ़ाने के लिए आंदोलनरत हैं तो वहीं दूसरी ओर सहकारी चीनी मिलों की लॉबी एसएपी कम से कम तय करने के लिए राज्य सरकार पर दबाव बनाए हुए है।


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सांगली, कोल्हापुर, सतारा की चीनी मिलें गन्ने की कीमत 2300 रुपये प्रति क्विंटल लगा रही हैं, जबकि किसानों की मांग 3000 रुपये प्रति क्विंटल है। इसी को लेकर हो रहे आंदोलन के दौरान 12 नवंबर को पुलिस ने फायरिंग तक कर डाली, जिसमें दो किसानों की मौत हो गई। समाजसेवी अन्ना हजारे ने भी इसकी निंदा की है। आमने-सामने किसान और मिलें अब इस आंदोलन पर राजनीति शुरू हो गई और मराठा छत्रप शरद पवार आंदोलन का नेतृत्व कर रहे किसान नेता राजू शेट्टी को कमजोर करने में जुट गए। राजू शेट्टी सांसद और स्वाभिमानी शेत्कारी समिति के अध्यक्ष भी हैं। शिवसेना भी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए मैदान में कूद पड़ी है। हर साल गन्ना किसानों के साथ यही कहानी दोहराई जाती है। कारण कि केंद्र और राज्य सरकार विवाद का दीर्घकालिक समाधान चाहती ही नहीं है। इस साल भी यही हुआ। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 2012-13 के लिए गन्ने का उचित और लाभकारी मूल्य (एफआरपी) 1700 रुपये प्रति टन निर्धारित कर गेंद राज्य सरकारों के पाले में डाल दी। राज्य सरकारें वोट बैंक को ध्यान में रखकर एसएपी निर्धारित करती हैं। किसान चीनी के साथ-साथ गन्ने के सह उत्पादों की कीमत भी चाहता है, वहीं मिलें चीनी की कम कीमत के बहाने राज्य सरकारों पर कम से कम एसएपी निर्धारित करने का दबाव बनाती हैं। विवाद का मूल कारण यही है। इस विवाद में चीनी मिलें दोषी नजर आती हैं। नई तकनीक के साथ गन्ने के सह उत्पादों का उपयोग बढ़ रहा है। मिसाल के तौर पर, जो खोई पहले बेकार हो जाती थी अब उससे बिजली बन रही है और कई मिलें उस बिजली को ग्रिड में बेचकर मुनाफा कमा रही हैं। इसी तरह शीरा से एल्कोहल व एथनॉल और प्रेसमड से उर्वरक बन रहे हैं। चीनी मिलों की यही अतिरिक्त कमाई गन्ना किसानों को गन्ने की अधिक कीमत वसूलने के लिए प्रेरित करती है।


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फिर मिलें गन्ने से होने वाली रिकवरी को भुगतान का आधार बनाना चाहती हैं। उनका कहना है कि ज्यादा पैदावार लेने की होड़ और रसायनों के इस्तेामाल से गन्ने में पानी की मात्रा बढ़ी है, जिससे चीनी की रिकवरी कम होती जा रही है। ऐसे में घाटा हो रहा है। गन्ना किसानों का बकाया बढ़ने का यही कारण है। 31 अगस्त को चीनी मिलों पर 1233 करोड़ रुपये का एरियर था । उत्पादन चक्र और मिलों का घाटा गन्ना किसानों और मिल मालिकों के हितों के साथ-साथ विवाद का एक कारण देश में चीनी उत्पादन का तीन वर्षीय चक्र भी है। इसे पिछले डेढ़ दशक में गन्ना व चीनी उत्पादन के उदाहरण से समझा जा सकता है। अनुकूल मौसम और सरकार की व्यावहारिक नीतियों के कारण 1998-99 से 2002-03 तक के चीनी मौसमों (अक्टूबर-सितंबर) में चीनी का उत्पादन बढ़ा। इससे कीमतें नियंत्रण में रही, लेकिन सूखे और गन्ने में रोग के कारण चीनी मौसम 2003-04 व 2004-05 में चीनी उत्पादन गिरकर क्रमश: 139 लाख टन और 130 लाख टन रह गया। इससे घरेलू बाजार में चीनी की कमी हो गई और कीमतें बढ़ने लगीं। बढ़ती कीमतों पर नियंत्रण रखने की कोशिशों के तहत अगस्त 2006 में सरकार ने चीनी के निर्यात पर रोक लगा दी। इसी बीच 2006-07 के दौरान गन्ने की बंपर फसल हुई तो चीनी उत्पादन बढ़ा और सरकार ने जनवरी 2007 में निर्यात से रोक हटा ली। तब तक अंतरराष्ट्रीय बाजार में चीनी के दाम नीचे आ गए, जिससे विदेशी बाजारों में घरेलू चीनी के खरीददार नहीं रह गए। इससे भारत को चीनी निर्यात में अपेक्षित सफलता नहीं मिली। चीनी के बढ़ते दाम चीनी के गोदाम भर जाने के कारण कीमतें लगातार घटीं, जिससे चीनी मिलें घाटे में आ गईं और बंद होने लगीं। किसानों का गन्ना खेत में ही पड़ा रहा। अब बारी गन्ने के उत्पादन में कमी की थी। 2008-09 में गन्ने के उत्पादन में एक-तिहाई की गिरावट दर्ज की गई। इससे चीनी मिलों को पेराई के लिए पर्याप्त गन्ना नहीं मिल पाया और वे समय से पहले बंद हो गईं। इस साल कुल चीनी उत्पादन 147 लाख टन रह गया, इससे चीनी की कीमतें बढ़नी शुरू हो गईं।


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इस पर नियंत्रण के लिए सरकार ने कच्ची चीनी आयात करने की अनुमति दे दी और चीनी पर भंडारण सीमा लागू कर दी, लेकिन यह प्रयास अपर्याप्त रहा। भारत के चीनी आयात के निर्णय से अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतें बढ़ींऔर आयातित चीनी भी महंगी पड़ने लगी। हालांकि इस साल किसानों को बेहतर मूल्य मिला था, लेकिन गन्ना मूल्य की अनिश्चितता के चलते उन्होंने 2009-10 में भी रकबा नहीं बढ़ाया। इससे चीनी उत्पादन कम हुआ। 2010-11 में चीनी उत्पादन बढ़कर ढाई करोड़ टन को पार कर गया और देश में चीनी का भारी स्टॉक जमा हो गया। चीनी मिलों ने सरकार से निर्यात की अनुमति मांगी, पर महंगाई से भयाक्रांत सरकार ने अनुमति देने में देर कर दी। इससे अंतरराष्ट्रीय बाजार में हमारी चीनी प्रतिस्पर्धी नहीं रह गई। 2011-12 में भी कुछ ऐसा ही हुआ। इसीलिए आशंका जताई जा रही है कि इस साल भी चीनी उत्पादन में गिरावट आएगी। इस विवाद में अब एक नया आयाम जुड़ने वाला है। सरकार जिस रंगराजन समिति की रिपोर्ट के आधार पर चीनी उद्योग को नियंत्रण मुक्त करने की कवायद में जुटी है, उसने एसएपी खत्म करने की सिफारिश की है। इसकी जगह समिति ने नया फार्मूला तैयार किया है, जिसके तहत गन्ना मूल्य का भुगतान दो किस्तों में किया जाएगा। पहली किस्त का भुगतान एफआरपी के आधार पर गन्ना आपूर्ति के 15 दिनों के भीतर किया जाएगा और दूसरी किस्त मिलों की चीनी बिक्री मूल्य के आधार पर दी जाएगी। इसकी गणना छह महीने बाद की जाएगी, लेकिन किसान इस फार्मूले से सहमत नहीं हैं। उनकी मांग है कि गन्ना मूल्य निर्धारण के लिए खेती की लागत के साथ 50 फीसद लाभ जोड़ा जाए। वे बाजार आधारित कीमत प्रणाली के बजाय राज्य के हस्तक्षेप वाली मूल्य नियंत्रण व्यवस्था चाहते हैं। कुल मिलाकर देखा जाए तो गन्ना मूल्य को लेकर हर साल उठने वाले विवाद का स्थायी समाधान तभी निकलेगा जब चीनी उद्योग गन्ना किसानों का विरोध छोड़कर उनके साथ तालमेल के लिए तैयार होंगे, क्योंकि चीनी मिलें तभी चलेंगी जब उन्हें भरपूर गन्ना मिलेगा। गन्ना किसी मिल में पैदा नहीं होता। दुर्भाग्यवश चीनी उद्योग को यही बात समझ नहींआ रही है। यही कारण है कि गन्ने की कीमतों को लेकर की जाने वाली राजनीति के खत्म होने के आसार नहीं दिख रहे हैं।


लेखक रमेश कुमार दुबे स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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