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बेलगाम पर बे-लगाम भावनाएं

जागरण मेहमान कोना
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Satish Pednekarमहाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच 1956 से चल रहा बेलगाम सीमा विवाद एक बार फिर उभर आया है। दोनों ही राज्यों में इस मुद्दे को लेकर क्षेत्रीय भावनाएं बे-लगाम हो रही हैं। लोकसभा और महाराष्ट्र विधानमंडल के दोनों सदनों में जोरदार हंगामा हुआ। हमेशा आपस में लड़ने वाले राजनीतिक दलों ने तो इस क्षेत्रीय मुद्दे पर अद्भुत एकता का परिचय देते हुए महाराष्ट्र विधानसभा में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर दिया कि कर्नाटक सरकार के खिलाफ कार्रवाई की जाए और बेलगाम को केंद्र शासित बनाया जाए। शिवसेना ने तो कर्नाटक की भाजपा सरकार को बर्खास्त करने की मांग तक कर डाली है। उधर कर्नाटक सरकार बेलगाम पर अपने दावे को और मजबूत बनाने के लिए इसे उपराजधानी बनाने की कोशिश में लगी हुई है। हर बार की तरह इस बार भी इस मुद्दे को लेकर कन्नड़ बनाम मराठियों के बीच भाषाई तनाव भड़काने की कोशिश की जा रही है। शिवसेना और राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने कर्नाटक सरकार को चेतावनी दी है कि उसे भूलना नहीं चाहिए कि मुंबई में भी कन्नड़भाषी रहते हैं। बेलगाम पर दोनों ही पक्षों के तर्क दमदार हैं। इसे वृहत्तर राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखकर समझदारी से हल किया जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। 1947 में जब भारत आजाद हुआ, तब बेलगाम बॉम्बे प्रेसीडेंसी का हिस्सा था, जो बाद में बंबई राज्य बना।


1948 में बेलगाम की नगर पालिका ने संविधान सभा और सीमा आयोग से मांग की थी कि बेलगाम को प्रस्तावित मराठीभाषी महाराष्ट्र में शामिल किया जाए। 1956 में जब भाषाई आधार पर राज्यों का पुनर्निर्माण हुआ तो बेलगाम को मैसूर राज्य में शामिल किया गया, जो अब कर्नाटक कहलाता है, लेकिन उसके आसपास के बॉम्बे राज्य के इलाकों को महाराष्ट्र में शामिल किया गया। इससे बेलगाम के मराठीभाषियों को भारी सदमा लगा, जिनकी आबादी इस इलाके में तीन चौथाई थी। भाषाई आधार पर राज्यों का पुनर्गठन होने के बावजूद मराठी बहुल बेलगाम को यदि महाराष्ट्र में शामिल नहीं किया गया तो उसके पीछे पुनर्गठन आयोग का तर्क यह था कि बेलगाम ऐतिहासिक तौर पर कन्नड़ क्षेत्र का हिस्सा रहा है। उस पर कई कन्नड़ राजवंशों का शासन रहा है। हालांकि पिछली कुछ सदियों से वहां मराठा पेशवाओं का शासन था। इस कारण मराठी भाषियों का अनुपात बढ़ गया। आयोग के फैसले के खिलाफ 1957 में जब महाराष्ट्र सरकार ने भारत सरकार को एक स्मरण पत्र दिया तो 1960 में चार सदस्यीय समिति का गठन हुआ, जिसमें दो सदस्य महाराष्ट्र और दो कर्नाटक के थे। महाराष्ट्र चाहता था कि चार निष्कर्षो के आधार पर फैसला हो और कन्नड़भाषी बस्तियां कर्नाटक को तथा मराठी बस्तियां या गांव महाराष्ट्र को दे दिए जाएं, लेकिन कोई समझौता नहीं हो पाया। क्योंकि कर्नाटक चाहता था कि यथास्थति बनी रहे।


बेलगाम को महाराष्ट्र में शामिल करने के मुद्दे को लेकर महाराष्ट्र में लगातार आंदोलन होते रहे। जब सेनापति बापट ने इस मुद्दे को लेकर अनशन शुरू किया तो महाराष्ट्र सरकार के कहने पर केंद्र सरकार ने सीमा विवाद सुलझाने के लिए महाजन समिति का गठन किया, लेकिन समिति ने जिले के कई गांवों के हस्तांतरण की तो सिफारिश की पर बेलगाम के बारे में यही कहा कि वह कर्नाटक में रहे। महाराष्ट्र सरकार ने आयोग के इस फैसले को मानने से इंकार कर दिया। उसका कहना था कि 1951 की जनगणना के अनुसार बेलगाम की बहुसंख्य आबादी मराठीभाषी है, लेकिन समिति की दलील थी कि बेलगांव तीन तरफ से कन्नड़भाषी गांवों से घिरा हुआ है और वहां सत्तर फीसदी से ज्यादा जमीन कन्नड़भाषियों की है। गांवों के सारे दस्तावेज कन्नड़ में हैं। वैसे बहुसंख्यक आबादी मराठी होने की महाराष्ट्र सरकार की दलील में काफी दम है। 1948 में बेलगाम में महाराष्ट्र एकीकरण समिति बनी, जो लगातार नगर पालिका का चुनाव जीतती रही। एक-दो बार को छोड़कर हमेशा उसका नेता मेयर रहा है। कभी तो उसके बेलगांव और आसपास के इलाके से समिति के 6.7 विधायक तक जीतते थे। इस समिति की मुख्यरूप से एक ही मांग रही है कि बेलगाम को महाराष्ट्र में शामिल किया जाए।


1983 में पहली बार बेलगाम नगर निगम के चुनाव हुए थे। उसके बाद 1990, 1996 और 2001 में चुनाव हुए और हर बार समिति जीती और निगम ने यही मांग दोहराई। समिति के वर्चस्व वाली 250 ग्राम पंचायतों ने भी यही मांग की। वर्ष 1986 में तो इस इलाके में तनाव इतना बढ़ गया कि दंगे हुए, जिसमें 9 लोग मारे गए। इस बार तनाव की शुरुआत 2005 से हुई जब समिति के वर्चस्व वाली बेलगाम नगर पालिका ने कांग्रेस और भाजपा आदि के कड़े विरोध के बावजूद प्रस्ताव पारित किया कि बेलगाम, खानपुर और निपाणी को महाराष्ट्र में विलीन कर दिया जाए। इसके जवाब में कर्नाटक समर्थक कन्नड़ रक्षण वेदिके संगठन ने कर्नाटक की राजधानी बेंगलूर में विधायक निवास के सामने बेलगाम के मेयर विजय मोरे और दो अन्य पर हमला किया। कन्नड़ संगठनों के दबाव में आकर कुछ समय बाद कर्नाटक सरकार ने बेलगाम नगर पालिका को भंग कर दिया। इसके जवाब में 2006 में महाराष्ट्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके एक बार फिर बेलगाम पर दावा जताया और केंद्र सरकार से अपील की कि जब तक सुप्रीम कोर्ट का फैसला नहीं आ जाता, इस क्षेत्र को केंद्र सरकार के अधीन रखा जाए। इस सारे घटनाक्रम के बीच इस एक नवंबर को बेलगाम नगर पालिका ने घोषणा की कि वह कर्नाटक राज्य निर्माण दिवस पर काला दिन बनाएगी। इससे कन्नड़भाषियों की भावनाएं भड़क उठीं। तब कर्नाटक सरकार ने एक बार फिर बेलगाम नगर पालिका को भंग कर दिया। इससे महाराष्ट्र के सारे राजनीतिक दल नाराज हैं।


शिवसेना तो इस कदर नाराज है कि उसने कर्नाटक की भाजपा सरकार को बर्खास्त करने की मांग तक कर डाली। महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना का गठबंधन है। फिर भी शिवसेना यह मांग कर रही है तो शायद उसे पता है कि उसके मांग करने भर से केंद्र सरकार कर्नाटक सरकार को बर्खास्त नहीं करने वाली, लेकिन बेलगाम इस बात का उदाहरण है कि किस तरह हमारी राजनीतिक पार्टियां भाषा और प्रांत को लेकर पैदा हुई समस्याओं को अपने स्वार्थ के लिए जिंदा रखे हुए हैं। महाराष्ट्र की जनता बेलगाम के कर्नाटक में जाने से कोई खास चिंतित नहीं है। विदर्भ क्षेत्र के लोग तो महाराष्ट्र से अलग राज्य चाहते हैं। कर्नाटक अगर सूझबूझ से काम लेता और केवल बेलगाम शहर को महाराष्ट्र को सौंप देता तो कोई आसमान नहीं टूट पड़ता, लेकिन बजाय इसके बेलगांव के मराठीभाषियों पर कन्नड़ थोपकर और दो बार नगर पालिका भंग करके आग में घी डालने का काम किया। कोई भी पीछे हटने को तैयार नहीं है। नतीजतन बेलगांव का घाव रह-रह कर रिसता रहता है। सबसे गंभीर बात यह है कि महाराष्ट्र में शिवसेना और मनसे जैसे दल इसे मराठी बनाम कन्नड़ का रूप देकर भाषाई तनाव पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं।


लेखक सतीश पेडणेकर स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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