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मजबूती का नाम महात्‍मा गांधी

जागरण मेहमान कोना
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Sadanand Shahiमहज संयोग है कि कुछ दिनों पहले मुझे सेवाग्राम और साबरमती आश्रम देखने का अवसर मिला। सेवाग्राम और साबरमती आश्रम में घूमते हुए अचानक मेरा ध्यान एक जुमले की ओर गया और मैं सोचने लगा कि क्या सचमुच मजबूरी का नाम महात्मा गांधी है। आखिर इस जुमले के मूल में क्या है। क्या इस जुमले का ईजाद इसलिए हुआ कि गांधी को मजबूरी में भारत विभाजन स्वीकार करना पड़ा? गांधी उधर नोवाखाली में सांप्रदायिक दंगों से निपट रहे थे, इधर उनके अनुयायी देश के साथ-साथ खुद को भी आजाद कर रहे थे।


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लेकिन यह मानने को जी नहीं करता, क्योंकि यदि गांधी जी मजबूर होते तो उन्हें मारने की क्या जरूरत थी। गांधी जी के पास अब भी ऐसा बहुत कुछ था, जिससे वे औरों को मजबूर कर रहे थे। परायों को ही नहीं, अपनों को भी। कहते हैं कि एक बार बिड़ला ने गांधी जी से पूछा कि देश तो आजाद हो गया अब आप किसके खिलाफ लड़ेंगे। गांधी ने मुस्कराते हुए बिड़ला की ओर इशारा किया। बिड़ला गांधी के अनन्य सहयोगी थे। जाहिर है, गांधी की योजना अब अपने लोगों से लड़ने की थी। कहने की जरूरत नहीं है कि यह लड़ाई ज्यादा हौसले की मांग करती है।


मुझे लगता है कि मजबूरी को महात्मा गांधी का पर्याय बताने वाले लोग इस जुमले का प्रयोग इसलिए करते हैं कि हम गांधी को ठीक से जानते नहीं हैं या उन्हें जानने के बारे में बहुत सचेत नहीं रहते। एक तरह की लापरवाही हमारे दिलो दिमाग में छाई रहती है और शायद हमारी नीयत में भी। गांधी को न जानना ही हमारे हित में है। दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल.. तक ही गांधी को सीमित रखने में भलाई है। सेवाग्राम में महात्मा गांधी की कुटिया के बाहर एक वजन नापने की मशीन रखी है। जिस पर दर्शकों के लिए सूचना लिखी है, महात्मा गांधी का वजन नापने की मशीन। महात्मा गांधी स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहते थे, क्योंकि स्वस्थ शरीर से ही सभी कार्य होने हैं। इसलिए वे वजन नापने की मशीन रखते थे।


हम महात्मा गांधी के उसी वजन तक पहुंच पाते हैं, जो मशीन से नापी जाती है। महात्मा गांधी का वास्तविक वजन हमें परेशान करता है। इसलिए हम उन्हें दीवार पर टंगी एक तस्वीर और एक नारे से अधिक नहीं जानना चाहते। सेवाग्राम और साबरमती दोनों ही जगहों पर गांधी के जीवन की झांकी मौजूद है। सेवाग्राम में गांधी जिस कुटिया में रहते थे, उसके बरामदे में एक टेलीफोन बूथ है, जहां काले रंग का भारी भरकम फोन रखा हुआ है। गांधी जी से देश की राजनीतिक स्थितियों के बारे में वायसराय को बात करनी होती थी, इसलिए वायसराय ने सेवाग्राम तक टेलीफोन लाइन बिछवाई और गांधी जी से बातचीत करने के लिए यह टेलीफोन लगवाया।


यह देखते ही मुझे गांधी जी का वह कथन याद आया, जो उन्होंने 1916 में अखिल भारतीय एक भाषा सम्मेलन में लखनऊ में कहा था, मैं कहता हूं यदि मैं बोलना जानता हूँ और मेरे बोलने में कोई ऐसी बात रहेगी, जिससे वायसराय लाभ उठा सकें तो वह अवश्य ही मेरी बातें हिंदी में बोलने पर भी सुन लेंगे। उन्हें आवश्यकता होगी तो उसका अनुवाद करा लेंगे। यानी सुने जाने के लिए बात का होना महत्वपूर्ण है, यह या वह भाषा नहीं। सेगांव को बनाया सेवाग्राम नमक सत्याग्रह के बाद गांधी जी ने तय किया था कि वे देश की आजादी हासिल होने के बाद ही साबरमती आश्रम आएंगे। गांधी जी ने वर्धा के निकट सेगांव में अपना नया ठिकाना बनाया।


वर्धा से भी चार मील दूर। धुर देहात में। गांधी भारत में रहना चाहते थे और भारत गांव में बसता है। इसलिए वे 1936 से 1946 तक सेगांव में रहे। यह घनघोर राजनीतिक उथल-पुथल का दौर था। गांधी की जगह कोई दूसरा व्यक्ति केंद्र को छोड़कर यहां रहना पसंद नहीं करता। रोज-रोज की गतिविधियां, राजनीतिक दांव-पेच। लेकिन गांधी अच्छी तरह जानते थे कि उनके पास कहने के लिए बात है। इसलिए वे जिस किसी भाषा में बोलेंगे और जहां से बोलेंगे, उनकी बात सुनी जाएगी। सेगांव, जिसे गांधी जी ने सेवाग्राम नाम दिया, में बैठे गांधी की बात सुनने के लिए तत्कालीन वायसराय लार्ड लिनलिथगो ने टेलीफोन लगवाया। गांधी जी ने एक बार कहा था, मैं लिनलिथगो से कहूंगा कि भारत एक विशाल देश है।


जिस परिस्थिति में हम यहां रहते हैं, उसमें यदि आप रह सकते हों तो आजादी के बाद भी यहां आराम से रहिए। गांधी जी के इस कथन को आधार बनाकर शंकर ने सबके लिए जगह शीर्षक से एक कॉर्टून बनाया, जो एक अंग्रेजी अखबार में छपा था। इस कॉर्टून में गांधी जी भारत के गावों में लिनलिथगो से रहने के लिए आग्रह कर रहे हैं। गांधी जी का आग्रह सुनकर लिनलिथगो और गांव की असुविधा छोड़कर निकल भागने को आतुर उनके साथियों का चेहरा देखने लायक है। अंग्रेजों की छोडि़ए, गांव में रहने के सवाल पर आज भारतीय मध्यवर्ग मजबूरी के अलावा किसी सूरत में तैयार नहीं है। बेशक गांवों की स्थितियां इसके लिए जिम्मेदार हैं, लेकिन इन स्थितियों के लिए कौन जिम्मेदार है? गांधी जी के जमाने में गांव आज से कहीं ज्यादा पिछड़े थे, लेकिन गंाधी के लिए गांव में रहने का अर्थ सेगांव को सेवाग्राम बना देना था। गांधी जी ने अहमदाबाद के साबरमती आश्रम से दांडी की यात्रा 12 मार्च 1930 को प्रात: साढ़े छह बजे शुरू की। अहमदाबाद से दांडी 240 मील दूर अरब सागर के किनारे बसा नामालूम-सा एक गांव था। 24 दिन की अनथक यात्रा के बाद गांधी जी 5 अप्रैल को दांडी पहुंचे।


अगली सुबह प्रार्थना के बाद मुट्ठी भर नमक उठाकर उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद की चूलें हिला दी। नमक उठाने जैसी साधारण बात इतनी युगांतरकारी सिद्ध हो सकती है, क्या गांधी जी इसे जानते थे? शायद हां। कभी-कभी मैं 7 जून 1883 की उस काली रात के बारे में सोचता हूं, जब डरबन से प्रिटोरिया जाते वक्त मेरित्सबर्ग में गांधी जी को पहले दर्जे का टिकट होने के बावजूद तीसरे दर्जे में जाने के लिए कहा गया। समझौता करके तीसरे दर्जे में आगे की यात्रा करने के बजाय गांधी जी ने मेरित्सबर्ग के रेलवे स्टेशन पर अंधेरी ठंठी रात गुजारना बेहतर समझा। अन्याय और भेदभाव के विरुद्ध तन कर खड़ा होने वाला यह निर्णायक क्षण ही गांधी को गांधी बनाता है और किसी भी अन्याय अत्याचार का प्रतिकार करने वाले अदम्य साहस और आत्मबल का पता देता है। मेरा जीवन, मेरा संदेश महात्मा गांधी का एक परिचय हमें प्रेमचंद की कहानी ईदगाह से मिलता है। ईदगाह कहानी में नमाज के बाद बच्चे जब मेले में जाते हैं तो हामिद की उपेक्षा करते हैं, कुल जमापूंजी लगाकर चिमटा खरीदने पर उसका मजाक उड़ाया जाता है।


मेले से लौटते हुए सब उससे लड़ते हैं और अंत में सब हामिद और उसके चिमटे के कायल हो जाते हैं। मैं शिक्षाविद कृष्ण कुमार का आभारी हूं, जिन्होंने ईदगाह कहानी को गांधी के इस वाक्य से जोड़कर देखने का प्रस्ताव किया था, पहले वे तुम्हारी उपेक्षा करेंगे, फिर तुम्हारा मजाक उड़ाएंगे, फिर तुमसे लड़ेंगे और फिर तुम्हारे पीछे चलने लगेंगे। गांधी जी कहते हैं, मेरा जीवन ही मेरा संदेश है। ईदगाह कहानी के हामिद की तरह गांधी ने अपने जीवन से इस बात को सिद्ध किया था। उनकी उपेक्षा हुई, उनका मजाक उड़ाया गया, विरोध हुआ और फिर पूरा देश उनके पीछे चल पड़ा । इसलिए मुझे कहने दीजिए कि मजबूरी का नाम नहीं है महात्मा गांधी। मजबूती का नाम है महात्मा गांधी। क्या हम इसे अपने सामान्य बोध का हिस्सा बना पाएंगे?


लेखक  डॉ:सदानंद शाहीबीएचयू में प्रोफेसर हैं


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सत्याग्रह ,लार्ड   नलिथगो ,कॉर्टून,अहमदाबाद,दांडी,मेरित्सबर्ग

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