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हमारी दुनिया का अंत अब करीब आ गया है। दुनियाभर के देश अपने विकास के लिए जिस आधुनिक रास्ते पर चल रहे हैं, वह विकास नहीं, महाविनाश का रास्ता है। इसी का नतीजा है कि आज हमारे सांस लेने के लिए न तो शुद्ध हवा है और न पीने के लिए साफ पानी ही बचा है। अब इससे भी बड़ा खतरा आने वाला है। धरती का तापमान जिस रफ्तार से बढ़ रहा है, वह इस सदी के अंत तक प्रलय दिखा सकता है। ताजा शोध के अनुसार समुद्र का जल स्तर एक मीटर तक बढ़ सकता है। इससे कई देश और भारत के तटीय नगर डूब जाएंगे। दुनिया इसी सदी में एक खतरनाक जलवायु परिवर्तन का सामना करने जा रही है। भारत समेत पूरी दुनिया का तापमान 6 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। पेट्रोलियम पदार्र्थो का विकल्प ढूंढ़ने में विफल दुनियाभर की सरकारें इन हालात के लिए जिम्मेदार हैं। प्राइस वाटरहाउस कूपर्स के अर्थशास्ति्रयों ने अपनी एक रिपोर्ट में चेतावनी दी है कि वर्ष 2100 तक वैश्विक औसत तापमान 2 डिग्री सेल्सियस के अंदर तक रखना असंभव हो गया है। इसके घातक नतीजे दुनिया को भोगने होंगे। वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन की किसी घातक और अविश्वसनीय स्थिति को टालने के लिए वैकल्पिक तापमान का औसत दो डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं बढ़ने देने का लक्ष्य तय किया था। तय हुआ था कार्बन का अत्यधिक उत्सर्जन करने वाले ईंधन का कम प्रदूषण फैलाने वाला वैकल्पिक ईंधन तलाशा जाए, पर संयुक्त राष्ट्र के अंतरसरकारी पैनल के मुताबिक यह लक्ष्य हासिल करने के लिए अब काफी देर हो चुकी है।
2 डिग्री सेल्सियस तापमान का लक्ष्य हासिल करने के लिए वैश्विक अर्थव्यवस्था को अगले 39 सालों में कमोबेश 5.1 फीसद प्रति वर्ष की दर से पूरी तरह कार्बन रहित बनाना होगा। द्वितीय विश्व युद्ध खत्म होने के बाद से दुनिया ने इस लक्ष्य को कभी छुआ तक नहीं है। अगर कार्बन रहित कामकाज की दर को दोगुना भी कर दिया जाए तो भी इस सदी के अंत तक निरंतर कार्बन उत्सर्जन के कारण 6 डिग्री सेल्सियस तक तापमान और बढ़ जाएगा। यदि अभी भी 2 डिग्री के लक्ष्य का 50 फीसद प्रयास भी किया जाए तो कार्बन रहित वातावरण में छह स्तरीय सुधार हो सकता है। अब हम किसी खतरनाक परिवर्तन से बचने की कगार को तो पार कर ही चुके हैं। इसलिए हमें एक गर्म दुनिया में खुद को बनाए रखने की योजना बनानी होगी। वर्ष 2007 में जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी पैनल के अनुमान से दोगुनी तेजी से ध्रुवों पर बिछी बर्फ की चादर पिघल रही है। वैज्ञानिकों ने इस बार आर्कटिक समुद्र और ग्रीनलैंड के आसपास की बर्फ, मिट्टी की नमी और भूजल खनन का भी अध्ययन किया है। इस अध्ययन के अनुसार लगातार पिघल रही आर्कटिक की बर्फ के कारण केवल समुद्र का जल स्तर ही नहीं बढ़ रहा, बल्कि पूरे आर्कटिक क्षेत्र का तापमान भी तेजी से बढ़ रहा है। इससे उत्तरी कनाडा और ग्रीनलैंड के आसपास की बर्फ पिघलती जा रही है। जब समुद्र की बर्फ पिघलती है तो आर्कटिक से अधिक मात्रा में मीठे जल का स्त्राव होने लगता है। इसकी जगह बाद में दक्षिण के नमकीन और गर्म पानी के स्त्रोत ले लेते हैं। गर्म पानी से आर्कटिक की बर्फ पिघलती है और समुद्र की सतह से बर्फ हटने से सूरज की किरणें सीधे अंदर पहुंचने लगती हैं, जिससे समुद्र का पानी और गर्म होने लगता है।
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पानी का तापमान बढ़ने के साथ ही बर्फ की परत आगे खिसक रही है। ग्लेशियर के पिछले चक्र में ग्रीनलैंड और अंटार्कटिक में समुद्र का जल स्तर दस मीटर तक बढ़ा था, लेकिन ऐसा होने में सदियां लगीं। अब यह जल स्तर ग्लोबल वार्रि्मग के कारण और तेजी से बढ़ रहा है। इसका सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव सबसे ज्यादा एशियाई देशों पर पड़ेगा। अगले 200 सालों में ग्लोबल वार्रि्मग के कारण भारत को सर्वाधिक प्रभावित करने वाली मानसून प्रणाली बहुत कमजोर पड़ जाएगी। इससे बारिश की अत्यधिक कमी होगी, जबकि अपने देश में आज भी खेती पूरी तरह मानसून पर ही निर्भर है। साथ ही देश के मौसमों में भी इसमें अमूलचूल परिवर्तन होने की पूरी आशंका है। एक ताजा शोध में वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि आने वाले दो शतकों में बारिश 40-70 फीसद तक कम हो जाएगी। इससे मानसूनी बारिश से आने वाला ताजा पानी देशवासियों के लिए कम पड़ेगा। खेतों की सिंचाई के लिए भी पानी नहीं होगा। इससे देश में जल की ही नहीं, खाद्यान्नों की भी कमी हो जाएगी। भारत में मानसून जून से सितंबर तक चार महीने रहता है। ये मौसम देश की सवा अरब आबादी के लिए पर्याप्त मात्रा में धान, गेहूं और मक्का जैसी उपयोगी फसलें उगाने के लिए जरूरी होते हैं। ये सारी प्रमुख फसलें मानसूनी बारिश पर ही निर्भर हैंै। दक्षिण-पश्चिम का यह मानसून देश में 70 फीसद बारिश के लिए जिम्मेदार है। पोस्टडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इंपैक्ट रिसर्च के अनुसंधानकर्ताओं ने अपने ताजा शोध में पाया कि मानव जाति 21वीं सदी के अंत तक पहुंचने की कगार पर है। 22वीं सदी में ग्लोबल वार्रि्मग के कारण दुनिया का तापमान हद से ज्यादा बढ़ चुका होगा। एन्वायरमेंटल रिसर्च सेंटर नाम की पत्रिका में प्रकाशित इस शोध में बताया गया है कि बसंत ऋतु में प्रशांत क्षेत्र के वाकर सरकुलेशन की आवृत्ति बढ़ सकती है। इसलिए मानसूनी बारिश पर इसका बड़ा फर्क पड़ सकता है। वाकर सरकुलेशन पश्चिमी हिंद महासागर में अक्सर उच्च दबाव लाता है, लेकिन जब कई सालों में अल नीनो उत्पन्न होता है तब दबाव का यह पैटर्न पूर्व की ओर खिसकता जाता है। इससे भारत के थल क्षेत्र में दबाव आ जाता है और मानसून का इलाके में दमन हो जाता है। यह स्थिति खासकर तब उत्पन्न होती है, जब बसंत में मानसून विकसित होना शुरू होता है।
अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार भविष्य में जब तापमान और अधिक बढ़ जाएगा तब वाकर सरकुलेशन औसत रहेगा और दबाव भारत के थल क्षेत्र पर ही पड़ेगा। इससे अल नीनो भी नहीं बढ़ पाएगा। परिणामस्वरूप मानसून प्रणाली विफल हो जाएगी और सामान्य बारिश के मुकाबले भविष्य में 40-70 फीसद ही बारिश होगी। भारतीय मौसम विभाग ने सामान्य बारिश का पैमाना 1870 के शतक के अनुसार बनाया था। मानसूनी बारिश में कमी हर जगह समान रूप से नहीं होगी। जलवायु परिवर्तन के कारण मानसूनी बारिश कम होने से भी ज्यादा भयावह स्थितियां पैदा हो सकती हैं। इसलिए हमें एक ऐसी दुनिया में जीने की तैयारी कर लेनी चाहिए, जहां सब कुछ हमारे प्रकिूल होगा। प्राकृतिक आपदाओं से मुकाबला करना कोई आसान काम नहीं है, लेकिन ऐसे हालात प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन और आधुनिक तकनीक के कारण ही पैदा हो रहे हैं। इसलिए हम एक महाविनाश की ओर जा रहे हैं, जिसकी कल्पना पुराणों में कलियुग के अंत के रूप में पहले से ही घोषित की जा चुकी है। इसके लिए जिम्मेदार कोई और नहीं, हम ही हैं।
लेखक निरंकार सिंह स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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