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जनसंख्या विस्फोट अब अंतराष्ट्रीय समस्या बन रहा है। वास्तव में अब कुपोषित बच्चों की संख्या भी एक अरब को पार कर गई है। बढ़ती आबादी को लेकर खाद्यान्न संकट की जो भयावहता दिखाई जा रही है वह भी गलत है। एक व्यक्ति को 2400 कैलोरी खाद्यान्न चाहिए जबकि प्रति व्यक्ति उपलब्ध कैलोरी 4600 है। समस्या खाद्यान्न की नहीं उससे ईंधन बनाए जाने, उसके सड़ने और असमान वितरण की है। यदि इन बदतर हालातों को काबू कर लिया जाए तो विस्फोटक आबादी के उचित प्रबंधन की जरूरत 2070 के आसपास तक होगी। यह पहला अवसर है जब 13 साल के बेहद सीमित कालखंड में दुनिया की आबादी एक अरब बढ़ गई। भविष्यवक्ताओं का अनुमान है कि आबादी को 8 अरब होने में अब 15 साल लगेंगे और करीब 60 साल का लंबा फासला तय करके यह आबादी 9 अरब के शिखर पर होगी। वाशिंगटन भूनीति संस्थान के मुताबिक इतनी आबादी का पेट भरने के लिए 16 सौ हजार वर्ग किमी अतिरिक्त कृषि भूमि की जरूरत होगी, लेकिन कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि वर्तमान उत्पादन 11 अरब आबादी के लिए पर्याप्त है। इसके बाद आबादी घटने का सिलसिला शुरू हो जाएगा और 21वीं एवं 22वीं सदी की संधि बेला के करीब आबादी घटकर लगभग साढ़े तीन अरब रह जाएगी। लिहाजा अगले 60-70 सालों के लिए आबादी को एक ऐसे कुशल प्रबंधन की जरूरत है जिसके चलते खाद्यान्न व पेयजल की समुचित उपलब्धता तो हो ही स्वास्थ्य व अन्य बुनियादी सुविधाओं में भी वितरण की समानता हो। फिलहाल दुनिया के दस सर्वाधिक आबादी वाले देशों में केवल तीन विकसित देश अमेरिका, रूस और जापान शामिल हैं।
दुनिया को यदि विकसित और विकासशील देशों में विभाजित करें तो विकसित देशों में 32 फीसदी आबादी है और विकासशील देशों में 68 फीसदी। यह औसत लगातार घट रहा है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष के मुताबिक 2050 में विकासशील देशों में 91 फीसदी आबादी रह रही होगी जबकि विकसित देशों में महज 9 फीसदी। यह चुनौती खाद्यान्न, पेयजल, पेट्रोलियम पदार्थो की उपलब्धता का संकट तो बढ़ाएगी ही बेरोजगारी, आर्थिक मंदी और पर्यावरण जैसे संदर्भो में भी इसका आकलन करना होगा। हालांकि परिवार नियोजन जैसे उपायों के कारण आज विश्व की जनसंख्या महज एक प्रतिशत की दर से बढ़ रही है जो 1960 के दशक में दो प्रतिशत थी। 1970 में प्रति महिला प्रजनन दर 4.45 थी जो वर्तमान में 2.45 रह गई है और 2.1 का लक्ष्य है। इससे आबादी के स्थिरीकरण का सिलसिला शुरू हो जाएगा। इसके अलावा उपभोग की शैली को बढ़ावा मिलने तथा उद्योगीकरण व शहरीकरण के कारण करीब 70 लाख हेक्टेयर वन प्रति वर्ष समाप्त हो रहे हैं। इससे ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है। इन गैसों को बढ़ाने में अमेरिका का योगदान सर्वाधिक है। हालांकि वह इसका अभिशाप भी भोगने को विवश है। वहां हर साल 50 हजार लोग केवल वायु प्रदूषण के चलते मौत के आगोश में समा रहे हैं।
इधर ऊर्जा संकट भी चरम पर है। ऊर्जा की 40 फीसदी जरूरतें पेट्रोलियम पदाथरें से पूरी होती हैं, जिसकी आपूर्ति लगातार घट रही है। इस कारण दुनिया अंधेरे की ओर बढ़ती दिखाई दे रही है। अमेरिका ने तेल पर कब्जे के लिए ही इराक पर हमला बोला थ। लीबिया में नाटों देशों का दखल इसी लक्ष्य के लिए था। ऊर्जा के लिए राष्ट्रों के अस्तित्व से खेलने की बजाय कारों और वातानुकूलन में जो ऊर्जा खपाई जा रही है उस पर यदि अंकुश लगे तो रसोई और रोशनी के लिए ऊर्जा संकट से निजात मिल सकती है। बहरहाल अमीरी और गरीबी की लगातार बढ़ती खाई से जो सामाजिक असमानताएं उपजी हैं उन्हें पाटने की जरूरत है। धरती 11 अरब लोगों की भूख के बराबर खाद्यान्न उपजा रही है फिर भी कुपोषण और भुखमरी की समस्या है। यहां छत्तीसगढ़ में बैगा आदिवासी समूह में प्रचलित उस लोक कथा का उल्लेख करना जरूरी है जिसमें दुनिया की समूची आबादी की चिंता परिलक्षित है। बैगा आदिवासी जब पैदा हुआ तो उसे ईश्वर ने 9 गज का कपड़ा उपयोग के लिए दिया। बैगा ने ईश्वर से कहा मेरे लिए 6 गज कपड़ा ही पर्याप्त है। बाकी किसी अन्य जरूरतमंद को दे दीजिए इस तरह उसने तीन गज कपड़ा फाड़कर ईश्वर को लौटा दिया। साफ है कि बढ़ती आबादी को संसाधनों के समान बंटवारे के प्रबंध कौशल से जोड़ने की जरूरत है न कि उस पर बेवजह की चिंता करने की।
इस आलेख के लेखक प्रमोद भार्गव हैं
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