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कहते हैं कि सत्ता सिर चढ़कर बोलती है। क्या यह बात तब और सच होती है, जब यह सत्ता उतने लंबे इंतजार और उतनी कोशिशों के बाद हासिल हुई हो जितनी कि ममता बनर्जी को पश्चिम बंगाल में करनी पड़ी है? दुर्भाग्य से ममता सरकार की हालिया कार्रवाइयों से यही प्रतीत होता है। सूबे की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने जिस प्रकार अपने हर तरह के विरोधियों के साथ-साथ प्रदेश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ निर्मम अभियान छेड़ दिया है, उससे लगता है कि जिन जनांदोलनों की लहर पर सवार हो वह सिंहासन तक पहुंची हैं, अब यही उनके भय का मुख्य बिंदु बन गया है। इसलिए वह उन आंदोलनों की किसी भी निरंतरता को बने रहने नहीं देना चाहती हैं। सिंगूर से नंदीग्राम तक की लड़ाइयों में ममता जिन राजनीतिक शक्तियों और शख्सियत के साथ कंधे से कंधा मिलाने पर मजबूर हुई थीं, अब उन्होंने उन्हीं के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया है। हालांकि इसका संकेत ममता ने सत्ता संभालने के कुछ ही दिनों के अंदर दे दिया था। पश्चिम बंगाल में सत्ता संभाले अभी उन्हें 11 महीने भी नहीं हुए हैं कि अब वह खुलकर सामने आ गई हैं।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले के ताजा शिकार बने हैं जाधवपुर विश्वविद्यालय के भौतिक रसायनशास्त्र के एक वरिष्ठ प्रोफेसर अंबिकेश महापात्र और उनके पड़ोसी सुब्रत सेनगुप्ता। इन्हें सिर्फ इसलिए तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं और पुलिस के हाथों प्रताड़ना और अपमान झेलना पड़ा कि उन्होंने फेसबुक पर ममता, मुकुल रॉय और दिनेश त्रिवेदी के चित्रों वाले एक कार्टून को अपने दोस्तों को पोस्ट कर दिया था। कार्टून में उन्हें सत्यजित रॉय के प्रसिद्ध जासूसी फिल्म सोनार केल्ला का एक व्यंग्यात्मक संवाद बोलता दिखाया गया था। इस कार्रवाई के खिलाफ जब हंगामा मचा तो ममता सफाई देने की बजाय उसे सही ठहराने में लगी रहीं।
संकेत साफ है। जो उनके खिलाफ जाएगा, उसके खिलाफ सरकार उसी तरह पेश आएगी। क्या यह एक तरह की इमरजेंसी नहीं है? प्रोफेसर महापात्र की गिरफ्तारी ने ममता के शासन और पोरिबोर्तन के उसके नारे को उपहास का विषय बना दिया है, लेकिन इस परिघटना को हलके में नहीं लिया जाना चाहिए। पश्चिम बंगाल में एक ऐसी सरकार कायम हुई है, जो विरोध या आलोचना के एक धीमे से स्वर को भी बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है। वह चाहे मीडिया की ओर से ही क्यों न उठा हो। ममता का पोरिबोर्तन यहीं नहीं रुकता है। जिस दिन प्रोफेसर महापात्रा पर हमले की घटना घटित हुई, उसी दिन दोपहर को कोलकाता के नोनाडंगा में झुग्गी-झोपड़ी को उखाड़े जाने के खिलाफ आवाज उठाने के चलते संगीन धाराओं में गिरफ्तार किए गए बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं को रिहा करने की मांग कर रहे जुलूस पर तृणमूल कार्यकर्ताओं ने हमला बोल दिया। यह हमला सरकार में परिवहन मंत्री मदन मित्र की उपस्थिति में दिनदहाड़े हुआ। इसके बाद पुलिस ने धारा 144 की बात करते हुए कुछ प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार कर लिया।
पुलिस और तृणमूल कार्यकर्ताओं की मिलीभगत से की गई इस कार्रवाई की पश्चिम बंगाल के बुद्धिजीवियों, लेखकों, रंगकर्मियों ने कड़ी आलोचना की। यहां तक कि सत्ता में आने से पहले ममता बनर्जी का साथ देने वाली महाश्वेता देवी ने भी इसकी निंदा की। बांग्ला के प्रसिद्ध कवि शंख घोष का कहना था कि विरोध के जुलूस को रोककर विरोध को नहीं खत्म किया जा सकता। सरकार को इस बात को समझना पड़ेगा। इससे पूर्व 8 अप्रैल को नोनाडांगा के बस्ती को उखाड़े जाने के विरोध में हो रहे धरने को हटाने के लिए पुलिस ने 69 लोगों को हिरासत में ले लिया, जिसमें एक नौ वर्षीय बालिका भी थी। बाद में सात को छोड़कर बाकी को रिहा कर दिया गया। इन सातों सामाजिक कार्यकर्ताओं पर संगीन धाराएं लगाकर जेल भेज दिया गया। ये सारे वही मुकदमे हैं, जिन्हें नंदीग्राम आंदोलन में शामिल होने के चलते वाम मोर्चा सरकार ने उन पर लगाए थे। इनमें से अधिकतर सिंगूर और नंदीग्राम के उन आंदोलन में शामिल रहे हैं, जिनकी ममता बनर्जी के सत्तासीन होने की चिराकांक्षा को पूर्ण करने में सबसे अहम भूमिका रही है। अब ममता बनर्जी यह नहीं चाहती हैं कि वैसा कोई भी आंदोलन हो। उन जनांदोलनों की निरंतरता से भयभीत वह उन सभी नागरिक अधिकार संगठनों और जनसंगठनों के कार्यकर्ताओं पर टूट पड़ी हैं, जिनके अथक प्रयास से ही वाम मोर्चा सरकार के खिलाफ जनमानस का निर्माण हुआ और उन्हें कुर्सी हासिल हुई।
इस आलेख के लेखक संदीप राउजी हैं
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