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लाल आतंक की चुनौती

जागरण मेहमान कोना
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लाल आतंक का सफाया करने के लिए सरकार को राजनीतिक इच्छाशक्ति और पक्के इरादे की जरूरत है। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक माओवादियों का कहर जारी रहेगा। कुछ दिन पहले चंडीगढ़ में केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम ने कहा था कि माओवादियों को बड़े व्यापारी घरानों द्वारा धन उपलब्ध कराना एक निंदनीय कार्य है। राज्य सरकारों को इसके खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए। आपको याद होगा कि माओवाद से प्रभावित इलाकों से होकर गुजरने वाली पाइपलाइन के जरिए लोहे का चूरा विशाखापटनम ले जाने के लिए दंतेवाड़ा में एस्सार ग्रुप ने विशाल कारखाना लगाया है। पुलिस ने आरोप लगाया है कि यह कंपनी माओवादियों को संरक्षण के लिए धन दे रही है, जिससे कि पाइपलाइन का उनका काम सही तरीके से चलता रहे। कंपनी के एक वरिष्ठ अधिकारी के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की गई है, जिसमें राजद्रोह सहित विद्रोहियों को वित्तीय मदद देने के आरोप शामिल हैं। बचाव में इस अधिकारी ने जांच टीम को बताया कि वह माओवादियों को व्यक्तिगत तौर पर नहीं, बल्कि कंपनी की ओर से धन दे रहा था। पहली बार, किसी कंपनी पर माओवादियों को धन देने के आरोपों की जांच की जा रही है। दो साल पहले, 2010 में माओवादियों द्वारा किए गए हमलों की पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि हाल की घटनाओं ने इस समस्या के सफाए के लिए तत्काल और सुविचारित कार्रवाई की जरूरत है।


भारतीय राष्ट्र की सत्ता को और देश के लोकतांत्रिक ढांचे को चुनौती देने वालों के प्रति किसी प्रकार की सहानुभूति नहीं दर्शाई जा सकती। 2009 में माओवादियों के हमलों में कुल मिलाकर 591 नागरिक और 317 सुरक्षाकर्मी मारे गए। कुछ पुलिसकर्मियों के सिर कलम कर दिए गए और रेलगाडि़यों तक का अपहरण कर लिया गया। 2010 का साल माओवादी हमलों के इतिहास में सर्वाधिक खूनखराबे वाला साल रहा, जिसमें 1,169 लोग मरे। मारे गए लोगों के हिसाब से इस साल सुरक्षा बलों की तुलना में माओवादियों को कम नुकसान हुआ। 2009 के 317 की तुलना में सुरक्षा बलों ने 2010 में अपने 285 जवानों को गंवाया, जबकि 2009 में 219 सदस्यों की तुलना में 2010 में 171 माओवादी ही मारे गए। हाल ही में, माओवादियों ने इटली के दो नागरिकों और ओडिशा के एक विधायक का अपहरण कर अपने दुस्साहस का नया उदाहरण पेश किया। इटली के दोनों नागरिकों को छोड़ दिया गया है, लेकिन उनकी रिहाई की शतर्ें अनिश्चित सी रही हैं। माओवादियों से निपटने के संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के ठोस इरादों की घोषणा एक मजाक लगने लगी है। माओवादियों जैसे खतरों से निपटने के दुनिया को सिर्फ दो ही तरीके आते हैं- बल प्रयोग या शांति वार्ता।


भारत का राजनीतिक तबका दुविधा में है कि कौन सा तरीका अपनाया जाए। कभी कभी तो तो सरकार इन दोनों तरीकों को एक साथ आजमाने लगती है। केंद्रीय गृहमंत्री ने माओवादी समस्या से निपटने के लिए एक व्यापक जनादेश मांगा था, जिसमें जमीनी ऑपरेशनों के लिए हवाई मदद को भी शामिल किया गया था, लेकिन पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और ओडिशा जैसे माओवाद प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों के आग्रह के बावजूद इस प्रकार का जनादेश देने से इनकार कर दिया गया। गृहमंत्री की मानें तो उन्हें सीमित जनादेश दिया गया था या यूं कहें कि उन्हें झिड़क दिया गया था। नतीजा यह हुआ है कि माओवादियों के खिलाफ नाममात्र के ऑपरेशन चलाए जा रहे हैं। इसलिए कंपनियों और आम आदमी को अगर यह विश्वास है कि सरकार तो उनकी रक्षा नहीं ही कर पाएगी, लेकिन माओवादी उन्हें मार जरूर देंगे, तो इसमें हैरानी की कौन सी बात है। इसलिए वे दूसरी ओर मुंह फेर लेते हैं, ताकि माओवादी खुश रहें।


लेखक जोगिंदर सिंह स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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