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भारत की सबसे बड़ी कार निर्माता कंपनी मारुति-सुजुकी इंडिया के मानेसर संयंत्र में 14 दिन से चली आ रही हड़ताल खत्म हो गई है। कंपनी प्रबंधन, कर्मचारी और हरियाणा सरकार के बीच एक त्रिपक्षीय समझौते के बाद यह हड़ताल खत्म हुई। समझौते के तहत प्रबंधन 64 स्थायी कर्मचारियों को वापस लेने पर सहमत हो गया, लेकिन 30 कर्मचारियों का निलंबन जारी रहेगा। तीनों पक्षों में इस बात पर भी सहमति बनी कि 1200 अस्थायी कर्मचारियों को भी बहाल कर दिया जाएगा। शिकायतों के निस्तारण एवं श्रमिकों के कल्याण के लिए दो समितियों के गठन पर भी सहमति बनी ताकि संयंत्र में कार्य के अनुकूल वातावरण उपलब्ध कराया जा सके। मारुति के 30 साल के इतिहास में सात हड़तालें हो चुकी हैं जिनमें से चार हड़तालें इसी साल हुईं। इस साल मई में मारुति के मानेसर प्लांट के संविदा कर्मचारियों ने अलग यूनियन बनाने की मांग को ठुकराए जाने पर हड़ताल की थी। उनका मानना था कि स्थायी कर्मचारियों की यूनियन की प्रबंधन से मिलीभगत है। पहले दौर की हड़ताल खत्म हुई तो कर्मचारियों को अच्छे आचरण के बांड पर हस्ताक्षर करने को कहा गया। मारुति प्रबंधन का कहना है कि ये अनुशासन संबंधी साधारण शर्ते हैं। दरअसल मारुति में हड़ताल भारतीय श्रम बाजार में श्रमिकों और प्रबंधन के बिगड़ते रिश्तों की कहानी है। प्रतिस्पर्धी कंपनियों को सस्ता श्रम चाहिए। वे ठेकेदारों के माध्यम से सस्ते मजदूरों को प्राथमिकता देते हैं। इन्हें चिकित्सा, बीमा, बचत, विकलांगता कवर जैसी सुविधाएं नहीं देनी पड़तीं।
वेतन में भी भारी अंतर रहता है। जैसे मारुति में मुट्ठी भर स्थायी कर्मचारियों को 25,000 रुपये प्रतिमाह दिए जाते हैं जबकि ठेके पर रखे कर्मचारियों को समान काम के लिए 4,500 से 12,000 रुपये मिलते हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन की रिपोर्ट के अनुसार देश में कामगारों की संख्या लगभग 46 करोड़ है जिसमें 94 फीसदी असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। अर्थव्यवस्था में अहम योगदान असंगठित कामगार सामाजिक सुरक्षा की सुविधाओं से वंचित है। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों में 90 फीसदी से ज्यादा को आमतौर पर सरकार की ओर से निर्धारित न्यूनतम मजदूरी से भी कम पैसे मिलते हैं। श्रमिक हितों से संबंधित शायद ही किसी कानून का फायदा इन्हें मिल पाता है। असंगठित क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं की संख्या लगातार बढ़ी है, लेकिन वे मजदूरी में भेदभाव से लेकर कई तरह के शोषण का शिकार हैं। यही कारण है कि असंगठित कामगार औद्योगिक क्षेत्र में काम करने से हिचकते हैं। दरअसल औद्योगिक समूह अभी भी अनुबंधित श्रम कानूनों को पूरी तरह से समझ नहीं पाए हैं। उद्योग जगत कामगारों के प्रति जवाबदेह नहीं लगता। श्रमिकों को केवल ठेकेदार तक ही सीमित कर दिया गया है जो कानूनों और नियंत्रण से परे है। औद्योगिक इकाई इस बात की जिम्मेदारी नहीं लेती कि ठेकेदार मजदूरों को उचित मजदूरी देते भी हैं या नहीं।
देश में श्रमिकों के हित में उठाए गए कदमों का दायरा संगठित क्षेत्र के श्रमिकों तक सीमित रहा है। हालांकि सरकार ने असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए एक राष्ट्रीय सामाजिक सुरक्षा कोष के गठन को मंजूरी दी है। 1,000 करोड़ रुपये के इस कोष से संचालित योजनाओं का लाभ उन 43.3 करोड़ श्रमिकों को मिलेगा जो बुनकर, रिक्शा चालक या दिहाड़ी श्रमिक के रूप में काम करते हैं। सरकार ने गरीब परिवारों के लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना, असंगठित क्षेत्र के लोगों के लिए वृद्धावस्था पेंशन और स्वावलंबन जैसी कई योजनाएं चलाई हैं, लेकिन जागरूकता के अभाव में आज भी बहुत कम श्रमिक परिवार इन कार्यक्रमों के बारे में जानते हैं। जरूरत के अनुसार इन कार्यक्रमों के लिए धन का आवंटन बहुत कम है। फिर बहुत सारी राशि बिचौलियों और भ्रष्ट कर्मचारियों की जेब में चली जाती है। जरूरत इस बात की है कि देश के श्रम बाजार की नीतियों का निष्पक्ष विश्लेषण हो और ऐसा रास्ता तैयार किया जाए जिसमें श्रम संसाधनों का एकतरफा दोहन न हो।
लेखक रमेश दुबे स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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