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भारत का बौद्धिक तबका और मीडिया मायावती सरकार द्वारा निर्मित ‘दलित प्रेरणा स्थल’ का कटु आलोचक है। 1995 में अपने पहले कार्यकाल में जब मायावती ने अंबेडकर उद्यान का निर्माण शुरू कराया था तब भी उनकी यह कहकर जमकर आलोचना की गई थी कि वह जनता के धन का दुरुपयोग कर रही हैं और इस रकम से बहुत से स्कूल, अस्पताल खोले जा सकते थे। पहली नजर में यह आलोचना तार्किकता की कसौटी पर खरी उतरती दिखाई देती है, किंतु सच्चाई यह है कि तार्किकता उस दृष्टिकोण से अलग होती है जिसके आलोक में आप सच्चाई को देखते हैं। एक ही गिलास को आधा भरा हुआ और आधी खाली कहा जा सकता है। एक लोकप्रिय कहावत है-समरथ को नहीं दोष गुसाईं। यह असमान समाज में जातिवाद के पूर्वाग्रह के संदर्भ में बिल्कुल सटीक बैठती है। इस तरह के समाजों में वंचितों और शोषितों का अपना कोई दृष्टिकोण और एजेंडा नहीं होता। इसलिए, इन आलोचनाओं और तर्को को शाश्वत सत्य नहीं माना जा सकता। ये भारतीय समाज के दोहरे मापदंडों की ही पुष्टि करते हैं। दोहरे मापदंड इसलिए, क्योंकि जब विभिन्न राज्य सरकारों और केंद्र सरकार द्वारा मूर्तियों, स्मारकों और इस प्रकार के कामों पर खर्च की बात आती है तो इनका मूल्यांकन करने के अलग-अलग पैमाने सामने आते हैं। उदाहरण के लिए तथाकथित उच्च जातियों के नेताओं की बेहिसाब मूर्तियां और स्मारक बने हुए हैं, किंतु कभी किसी ने करदाताओं के पैसे की बर्बादी का सवाल नहीं उठाया।
हर चार साल में विभिन्न सरकारें कुंभ मेले पर हजारों करोड़ रुपये खर्च करती हैं। इसे हिंदुओं की आस्था का प्रश्न बताया जाता है। सरकार ने राष्ट्रीय गौरव के लिए राष्ट्रमंडल खेलों पर करीब एक लाख करोड़ रुपये खर्च कर दिए। लोग सवाल क्यों नहीं उठाते कि कुंभ मेले और राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन पर खर्च हुए पैसे से कितने स्कूल और अस्पताल खोले जा सकते थे? कितने गांवों को बिजली-पानी मिल सकता था? ऐसे में सवाल उठता है कि जब सरकारें हिंदू आस्था और राष्ट्रीय गौरव के लिए हजारों करोड़ रुपये खर्च कर सकती हैं और इसके खिलाफ कोई आवाज नहीं उठती तो फिर दलित और पिछड़े वर्ग की आस्था के लिए खर्च किए जाने वाले सैकड़ों करोड़ रुपये पर हल्ला क्यों मचाया जा रहा है? बहुजन समाज सुधारकों की मूर्तियां स्थापित करना और स्मारक बनाना बिल्कुल उचित है। ये स्मारक शोषण और दमन के हजारों साल के इतिहास में पहली बार बने हैं।
दलित प्रेरणा स्थल की आलोचना का एक और पहलू यह है कि मीडिया और बुद्धिजीवी आम लोगों के सामने जाहिर कर रहे हैं कि इन स्मारकों और पार्को के अलावा उत्तर प्रदेश में कोई विकास कार्य नहीं हो रहा है। यह सच्चाई से कोसों दूर है। यह कैसे संभव हो सकता है? उत्तर प्रदेश करीब 1.7 लाख करोड़ रुपये का बजट पास करता है। दलित प्रेरणा स्थल पर कुल खर्च 635 करोड़ रुपये आया है। मायावती के अनुसार वह इन उद्देश्यों पर बजट का केवल एक प्रतिशत खर्च कर रही हैं। बजट की शेष राशि विकास कार्यो में ही लगती है। अगर हम विकास कार्यो और खासतौर पर शिक्षा और स्वास्थ्य योजनाओं का विश्लेषण करें तो उत्तर प्रदेश की सकारात्मक तस्वीर उभरती है। गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय नोएडा में चल रहा है। नोएडा में ही महामाया टेक्निकल यूनिवर्सिटी में काम शुरू हो चुका है। कांशीराम उर्दू-अरबी-फारसी विश्वविद्यालय और विकलांगों के लिए शकुंतला विश्वविद्यालय की लखनऊ में स्थापना हो चुकी है। सावित्री बाई फुले बालिका शिक्षा योजना के तहत करीब सात लाख छात्राएं लाभान्वित हो चुकी हैं। इसके अंतर्गत 11वीं कक्षा में पढ़ने वाली छात्राओं को एक साइकिल और पहली किस्त के रूप में दस हजार रुपये दिए जाते हैं। जब वे 12वीं कक्षा में पहुंचती हैं तो उन्हें 15000 रुपये दिए जाते हैं। इसके अलावा, अनुसूचित जाति-जनजाति तथा अल्पसंख्यक इलाकों में 2009-10 में 254 तथा 2010-11 में 318 नए स्कूल खोले गए हैं। यही नहीं प्रदेश में 88,000 विशिष्ट बीटीसी शिक्षकों की भर्ती भी की गई है। जहां तक स्वास्थ्य सेवाओं का सवाल है, नोएडा में एक अत्याधुनिक अस्पताल की स्थापना की गई है और एक अन्य का निर्माण कार्य प्रगति पर है। पिछले 40 सालों में उत्तर प्रदेश में एक भी नया अस्पताल नहीं खोला गया है। अंबेडकर नगर में भी एक अस्पताल शुरू हो गया है। जालौन, कन्नौज और सहारनपुर में भी अस्पतालों पर काम शुरू होने वाला है। इसके अलावा अनेक मेडिकल कॉलेजों में सीटें बढ़ाई गई हैं।
तीसरा महत्वपूर्ण पहलू यह है कि 2007 में 5.2 फीसदी की विकास दर वाले उत्तर प्रदेश की 2011 में विकास दर 7.8 पर पहुंच गई है। दिसंबर 2009 में हुए एक सर्वे से पता चलता है कि उत्तर प्रदेश ने 23.10 लाख नौकरियां सृजित कर देश में पहला स्थान हासिल किया है। यही नहीं, उत्तर प्रदेश को पंजाब के साथ संयुक्त रूप से कृषि पुरस्कार से नवाजा गया है। इन तथ्यों से यह सिद्ध हो जाता है कि बौद्धिक तबके और मीडिया का यह आकलन सही नहीं है कि उत्तर प्रदेश में अधिक विकास कार्य नहीं हो रहे हैं। इसके बावजूद हमें समझना चाहिए कि पांच वर्ष का मायावती का कार्यकाल युगों पुरानी समस्याओं का समाधान नहीं कर सकता, जिनके कारण उत्तर प्रदेश पांच दशकों से अधिक समय से पिछड़ा राज्य बना हुआ है। हमें मायावती के प्रयासों और मंशा की कद्र करनी चाहिए। कार्यक्रम और नीतियों को देखते हुए कहा जा सकता है कि नेतृत्व ईमानदार प्रयास कर रहा है।
लेखक विवेक कुमार जेएनयू में प्राध्यापक हैं
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