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अगर कोई आपके बच्चों के साथ बदतमीजी, छेड़छाड़ या हमला करे तो आप क्या करेंगे? क्या आप कोई भी प्रतिक्रिया किए बिना उनके विरुद्ध शिकायत करने की औपचारिकता पूरी करेंगे या फिर पहले मौके पर अपने विरोध का इजहार करेंगे? मुझे लगता है कि भले ही आप कितने भी शालीन और गरिमापूर्ण क्यों न हों, अगर बात आपके बच्चों की सुरक्षा या उनकी गरिमा की रक्षा से जुड़ी होगी तो आपका पहला कदम उन्हें बचाने और हमलावरों से निपटने का ही होगा। शिकायत बाद में आती है। शाहरुख खान जिन पर नशे की हालत में मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम के स्टाफ और मुंबई क्रिकेट एसोसिएशन के पदाधिकारियों से उलझने का आरोप है, को निशाना बनाने के लिए यही दलील दी जा रही है कि उन्होंने मौके पर मौजूद लोगों से बदसलूकी करने की बजाए शिकायत क्यों नहीं दर्ज की। केंद्रीय मंत्री और मुंबई क्रिकेट एसोसिएशन के प्रमुख विलास राव देशमुख तथा शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के विचार शायद ही किसी और मुद्दे पर इतने मिलते हों, लेकिन दोनों से यह प्रश्न पूछने को जरूर मन करता है कि अगर उनके साथ कोई शख्स हमलावर बर्ताव करता है तो क्या वे मौके पर प्रतिक्रिया करने की बजाए औपचारिक शिकायत तक का इंतजार करेंगे। शिवसेना प्रमुख के अनुयायी तो मौके पर इंसाफ करने के लिए विख्यात हैं।
सोलह मई की रात कोलकाता नाइट राइडर्स और मुंबई इंडियंस के बीच मैच के बाद शाहरुख अपने बच्चों को स्टेडियम से घर लाने गए थे। उसी मौके पर पहले वानखेड़े स्टेडियम के सुरक्षा गार्डो से और फिर एमसीए अधिकारियों के साथ उनकी झड़प हुई। इस दौरान शाहरुख ने जैसा बर्ताव किया, उसे मीडिया में जमकर नकारात्मक पब्लिसिटी मिली है। जिन्होंने सिर्फ शाहरुख की प्रतिक्रिया देखी, उनके मन में यह भावना आनी स्वाभाविक है कि ये बॉलीवुड के अभिनेता अपने आपको समझते क्या हैं? क्या उन्हें आम नागरिकों के साथ बदसलूकी करने और अपना रुआब दिखाने का लाइसेंस हासिल है? शाहरुख का बर्ताव सचमुच ही अच्छा नहीं था। वे बहुत आक्रामक थे, लेकिन यह आक्रामकता बेवजह तो नहीं हो सकती? जब तक दूसरे लोगों को इस आक्रामकता के पीछे की घटना का पता न हो, उनके द्वारा निकाला गया कोई भी निष्कर्ष उचित नहीं हो सकता। शाहरुख के मामले में वही हुआ है, जो फिल्मी सेलिब्रिटीज से जुड़े मामलों में हमेशा होता आया है। उन्हें अपनी बात कहने का मौका दिए बिना कठघरे में खड़ा किया जा रहा है। अधूरी तस्वीर के आधार पर फैसले सुनाए जा रहे हैं। माना कि सेलिब्रिटीज आम आदमी से ऊपर नहीं हैं, लेकिन वे आम आदमी से कम भी तो नहीं हैं। उन्हें अपने स्वाभाविक अधिकार से वंचित करना और महज आक्रामक भावना के आधार पर दोषी ठहराना इस न्यायसंगत समाज की भावना के अनुरूप नहीं है।
ममता बनर्जी ने ठीक कहा है कि यह उतना बड़ा मामला नहीं है, जितनी बड़ी सजा शाहरुख को दी जा रही है। क्या अपने बच्चों की हिफाजत करते हुए माता-पिता के साथ ऐसे झगड़े होना आम बात नहीं है? शाहरुख खान ने अगर अपने बच्चों के साथ बदसलूकी का विरोध किया होगा तो इस मुद्दे पर उनके झगड़े की शुरुआत एक या दो सुरक्षा गार्डो के साथ हुई होगी। बात आगे बढ़ी तो केकेआर के कुछ खिलाड़ी शाहरुख के साथ आए और कई सुरक्षा गार्ड, स्टेडियम के कर्मचारी और एमसीए अधिकारी दूसरी तरफ जुट गए। अगर आप दोनों पक्षों के बीच हुए गाली-गलौज और बहस का ब्यौरा देखें तो इसमें शाहरुख अकेले दोषी दिखाई नहीं देते। हर झगड़े के दौरान ऐसा ही होता है। इस घटना में किसी शख्स को चोट नहीं आई, स्टेडियम की संपत्ति का नुकसान नहीं हुआ और दंगे जैसी घटना नहीं हुई। यह एक झगड़ा था और अंत में दोनों पक्षों के बीच सुलह भी हो गई थी, जैसा कि एमसीए के एक अधिकारी और शाहरुख खान के एक-दूसरे को गले लगाने की फोटो से जाहिर है। शाहरुख ने अगर पुलिस में या एमसीए से शिकायत नहीं की तो यह उन्हें दोषी सिद्ध नहीं करता। अपराध कितना गंभीर मुंबई क्रिकेट एसोसिएशन ने इस मामले को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है। उसने इसे शाहरुख की तुलना में ज्यादा गंभीरता से लिया और उनके विरुद्ध पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई। यहां तक बात ठीक थी, लेकिन उसने एकतरफा कार्रवाई कर बॉलीवुड अभिनेता तथा आइपीएल फ्रेंचाइजी के मालिक के पांच साल तक वानखेड़े स्टेडियम में प्रवेश पर प्रतिबंध लगाकर अति कर दी है। जिस तरह से यह प्रक्रिया पूरी की गई, उस पर कई सवाल खड़े होते हैं। पहली बात, दो पक्षों के बीच हुआ झगड़ा उनका व्यक्तिगत झगड़ा था, इसे संस्थागत रूप क्यों दिया गया। गार्डो और शाहरुख के झगड़े को एमसीए और शाहरुख का झगड़ा कैसे बना दिया गया? एमसीए का अनैतिक फैसला शाहरुख के विरुद्ध फैसला करते समय एमसीए ने अपने संस्थागत अधिकारों का इस्तेमाल किया है, जबकि मामला कुछ व्यक्तियों के बीच का था। उसे उन्हीं के स्तर पर सुलझाया जाना चाहिए था या फिर अधिक से अधिक पुलिस या अदालत के स्तर पर। यह फैसला भी एकतरफा ढंग से किया गया।
विलासराव देशमुख का कहना है कि वे स्टेडियम के कर्मचारियों और गार्डो के बयानों पर विश्वास करते हैं। इंसाफ इस तरह नहीं होता। देशमुख को उन पर कितना विश्वास है, वह उनका निजी मामला है। न्याय किसी के निजी विश्वास पर आधारित नहीं होता। वह समानता के सिद्धांत पर चलता है। शाहरुख का पक्ष सुने बिना उन पर प्रतिबंध लगाना एकतरफा, अनैतिक और मनमाना ही कहा जाएगा। यह फैसला उसी तरह का बेतुका फैसला है, जैसे शाहरुख कोलकाता नाइट राइडर्स की तरफ से एकतरफा फैसला करते हुए एमसीए के अधिकारियों को अपनी टीम के मैच देखने से प्रतिबंधित कर दें। शाहरुख एक बॉलीवुड सेलिब्रिटी ही नहीं, बल्कि आइपीएल के फ्रेंचाइजी के मालिक भी हैं। जब उनके जैसे व्यक्ति तक का पक्ष नहीं सुना गया तो ऐसी संस्थाएं आम लोगों के साथ क्या करेंगी। एमसीए ने अपना फैसला करते समय बहुत-सी बातों को नजरअंदाज किया है। एक फ्रेंचाइजी मालिक होने के नाते शाहरुख को किसी भी स्टेडियम में होने वाले अपनी टीम के मैच को देखने, उसकी निगरानी तथा समीक्षा करने का हक है। कई बार उसे मौके पर जरूरी फैसला करने या रणनीति तैयार करने की जरूरत पड़ सकती है। आइपीएल के दौरान एक आइपीएल फे्रंचाइजी को अपनी टीम का मैच देखने से कैसे रोका जा सकता है। दायरे से बाहर जाने की कोशिश शाहरुख ने यकीनन बहुत आक्रामक ढंग से प्रतिक्रिया की, लेकिन इस तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए कि उनके खिलाफ एमसीए के गार्डो, कर्मचारियों और अधिकारियों का भारी झुंड था। खुद विलासराव देशमुख ने माना है कि घटना के वक्त एमसीए के 50 फीसदी पदाधिकारी मौजूद थे। झगड़े के समय की बातचीत का ब्यौरा बताता है कि अगर यह अभिनेता अपशब्दों का इस्तेमाल कर रहा था तो दूसरी तरफ से बहुत सारे लोग उनके खिलाफ तरह-तरह की बातें कह रहे थे। दस-बीस लोगों के साथ किसी अकेले इंसान का वाक् युद्ध चल रहा हो तो उसकी प्रतिक्रिया का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। वाक् युद्ध के ब्यौरे में एक जगह पर शाहरुख कह रहे हैं कि प्लीज सर, दिज आर चिल्ड्रेन..। यह स्पष्ट करता है कि वे अपने बच्चों को किसी की प्रतिक्रिया से सुरक्षित करने की कोशिश कर रहे हैं। एक जगह वे यह भी कह रहे हैं कि आई एम एन इंडियन एंड आई कैन गो टू एनी स्टेडियम। उन्हें क्यों कहना पड़ा होगा, आप खुद ही सोचिए। इस बात को भी काफी तूल दिया जा रहा है कि शाहरुख शराब पिए हुए थे।
अगर ऐसा है तो नशे की हालत में होने वाले झगड़े को लेकर इतना बवाल क्यों मचाया जाए? शायद इसलिए, क्योंकि शाहरुख एक अभिनेता और आइपीएल फ्रेंचाइजी के मालिक हैं, जिनकी हर छोटी-बड़ी हरकत एक मसालेदार खबर बनने की गुंजाइश रखती है। लेकिन क्या यह किसी को पांच साल के लिए प्रतिबंधित करने का आधार बन सकता है? शाहरुख को सबक सिखाते समय मुंबई क्रिकेट एसोसिएशन को शायद इस बात का भी ख्याल नहीं रहा कि वह अपने दायरे से भी बाहर जा रहा है। बेहतर होता कि यह विवाद शाहरुख, एमसीए अधिकारियों और बीसीसीआइ के स्तर पर ही सुलझ जाता। शाहरुख ने अच्छा नहीं किया, लेकिन निजी अहं के इस झगड़े में समस्या की तह तक जाए बिना फैसला करने और दूसरे पक्ष को अपनी बात कहने का मौका न देकर एमसीए ने भी कोई अच्छी मिसाल कायम नहीं की है।
लेखक बालेंदु शर्मा दाधीच स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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