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नियमन बनाम स्व-नियंत्रण

जागरण मेहमान कोना
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स्वतंत्रता के नाम पर समाचार चैनलों की स्वच्छंदता पर आपत्ति जता रहे हैं सुधांशु रंजन


मीडिया, विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर नियत्रण को लेकर पिछले कुछ समय से तीखी बहस छिड़ी है। प्रेस दिवस का उद्घाटन करते हुए उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने कहा कि समाचार, विज्ञापन, जनसंपर्क एव मनोरंजन के बीच फर्क समाप्त होता जा रहा है। भारतीय प्रेस परिषद के नवनियुक्त अध्यक्ष मार्कडेय काटजू ने साफ कहा है कि स्व-नियत्रण ने बिल्कुल काम नहीं किया है। उन्होंने अधिकांश पत्रकारों को अपढ़ बताया है जिन्हे अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, दर्शनशास्त्र आदि का कोई ज्ञान नहीं है। उन्होंने प्रधानमत्री को पत्र लिखकर माग की है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को प्रेस परिषद के अधीन लाया जाए तथा परिषद को और अधिकार दिए जाएं।


यह एक पुरानी माग है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को प्रेस परिषद के अधीन लाकर उसे मीडिया परिषद में बदल दिया जाए। न्यायमूर्ति काटजू के पूर्ववर्ती अध्यक्षों ने भी ऐसी माग की थी। काटजू ने जो मुद्दे उठाए हैं वे एकदम सही हैं, किंतु उनका कहने का तरीका बिल्कुल गलत है। उन्होंने तुलसीदास को उद्धृत करते हुए कहा है, ‘भय बिन होत न प्रीत।’ अर्थात मीडिया को कोई न कोई डर होना चाहिए। यदि ऐसा होगा तो यह अभिव्यक्ति की स्वतत्रता को पूरी तरह खत्म कर देगा। वैसे उनका कहना बहुत हद तक सही है कि मीडिया असली मुद्दों को न उठाकर समाचारों को सनसनीखेज बनाता है, तथ्यों को तोड़ता-मरोड़ता है तथा अंधविश्वास फैलता है। किंतु उनकी यह बात समझ और सत्य से परे है कि मीडिया जनविरोधी कार्य करता है। कम से कम मीडिया के स्वतत्र होने से घपलो-घोटालों से लेकर मानवाधिकार हनन की घटनाओं एव अन्य अनियमितताओं की खबरें जनता तक पहुंचती हैं और प्रशासन एव सरकार पर एक दबाव पैदा होता है। यदि इस स्वतत्रता के साथ छेड़-छाड़ की गई तो जनहित की जगह केवल सरकारी खबरें ही प्रकाशित और प्रसारित होंगी जैसा कि चीन या उत्तर कोरिया में होता है। इसकी स्वतत्रता सुनिश्चित कर नियत्रण के तरीकों पर विचार किया जा सकता है।


सामान्य तौर पर प्रसारक तर्क देते हैं कि दर्शक सबसे अच्छे जज होते हैं। यह सही है कि दर्शकों की पसद महत्वपूर्ण है, लेकिन वह अंतिम नहीं है। यदि वे अश्लीलता देखना पसद करें तो क्या उसे दिखाया जाना चाहिए? ‘सच का सामना’ ऐसा ही रियलिटी शो था जो सीधे-सीधे निजता में घुसपैठ करता था और लोग उसे पसंद भी कर रहे थे। इसलिए नियत्रण की जरूरत तो बनती है। स्व-नियत्रण सर्वोत्तम है, किंतु वह सफल नहीं हुआ है। अभी आलोचना के दबाव में न्यूज ब्रॉडकास्टर्ज एसोसिएशन [एनबीए] ने कुछ फैसले लिए जो स्वागत योग्य है। 31 प्रसारकों के इस समूह ने निर्देश जारी किया कि ऐश्वर्या राय बच्चन के बच्चे को जन्म देने का कोई लाइव कवरेज नहीं होगा, कोई ओबी/डीएसएनजी वैन नहीं लगेगी और केवल एक छोटा-सा समाचार प्रसारित होगा। इस पर अमल भी हुआ। यदि इतनी आलोचना टीवी चैनलों की नहीं हुई होती तो बच्चे के जन्म के बाद इसके ऊपर घंटों लाइव कार्यक्रम चलते। पत्रकारों का आत्माभिमान इतना गिर चुका है कि वे वैसे कार्यक्रमों को कवर करने के लिए मशक्कत करते हैं जहां से उन्हें धक्के देकर बाहर किया जाता है, जैसे आमिर खान की दूसरी शादी। इसमें कोई जनहित भी नहीं है।


जनता का दबाव ही सबसे बड़ा नियामक हो सकता है। स्वनियत्रण के प्रयास को अप्रैल 2009 में तब बड़ा झटका लगा जब एक समाचार चैनल ने एनबीए पर पूर्वाग्रह का आरोप लगाया था। एनबीए डीस्प्यूट्स रिड्रेसल अॅथारिटी ने अमेरिका में रह रहे एक नीति विशेषज्ञ का साक्षात्कार छलपूर्वक डब करने के लिए इस चैनल पर एक लाख रुपये का जुर्माना किया था और चैनल एक दिन बाद ही एनबीए से बाहर हो गया। वैसे बाद में वह एनबीए में वापस आ गया था। सरकार की तरफ से बढ़ते दबाव के बीच स्व-नियत्रण के लिए 2008 में एनबीए की स्थापना हुई थी, जिसके अध्यक्ष पूर्व न्यायाधीश जेएस वर्मा हैं। इसके उद्देश्यों में स्पष्ट किया गया है कि चैनेलों को अपने कार्यक्रमों की बाबत ज्यादा जवाबदेह होना पडे़गा तथा कंटेंट उल्लंघन की शिकायत पर विचार करने के लिए एक कंटेंट ऑडिटर नियुक्त करना प्रत्येक चैनल के लिए अनिवार्य होगा। हालांकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के नियत्रण के लिए अन्य देशों मे नियामक सस्थाएं हैं, किंतु भारत में ऐसा कुछ नहीं है। इंग्लैंड में ऑफकॉम प्रसारकों को लगातार दंडित कर रहा है। 3 अप्रैल, 2009 को उसने बीबीसी पर 1.5 लाख पाउंड का जुर्माना किया था। जुलाई 2008 में भी बीबीसी पर 4 लाख पाउंड का जुर्माना किया गया था। इसके पहले आचार सहिता के उल्लंघन के लिए जीएमटीवी तथा आइटीवी पर क्रमश: 20 लाख एव 58 लाख पाउंड का जुर्माना किया गया था। भारत में यद्यपि केबल टेलीविजन नेटवर्क नियमन अधिनियम, 1995 इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को नियत्रित करने के लिए बनाया गया था, लेकिन अभी तक किसी प्रकार का नियत्रण व्यवहार में नहीं है।


समाचार चैनेलों के समक्ष विश्वसनीयता का सकट खड़ा है। चैनेलों के प्रमुखों ने 2008 में आयोजित प्रथम न्यूज टेलीविजन समिट में स्वीकार किया था कि टीआरपी का खेल समाचार चैनेलों को अश्लीलता एव अपराध के कार्यक्रम दिखाने को मजबूर कर रहा है। यह समस्या तब उठती है जब बाजार ही सब कुछ तय करने लगता है। विज्ञापनदाता दर्शकों की सख्या के आधार पर विज्ञापन देते हैं, किंतु क्या राजस्व की उगाही के लिए गुणवत्ता की बलि चढ़ा देनी चाहिए? अखबार या चैनल चलाने के लिए राजस्व की उगाही सही है, किंतु राजस्व की उगाही के लिए चैनल चलाना गलत है। टीवी चैनलों के लिए जरूरी है कि वे अपनी महत्तर जिम्मेदारी को समझें, जनहित में काम करें और किसी की निजता में घुसपैठ न करें।


लेखक सुधांशु रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं


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