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सवालों के घेरे में सांसद निधि

जागरण मेहमान कोना
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Nirankar singhसांसदों का वेतन भत्ता बढ़ाने के बाद अब उनकी विकास निधि भी बढ़ा दी गई है। पर जनप्रतिनिधियों को क्षेत्र विकास निधि के तहत मिलने वाली धनराशि शुरू से ही विवाद का विषय रही है। इसलिए जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विधायक निधि को समाप्त कर नई राह दिखाई तो सभी ने उनकी सराहना की, लेकिन मनमोहन सिंह की सरकार ने सांसदों को मिलने वाली विकास निधि को तीन करोड़ रुपये सालाना की एकमुश्त बढ़ोत्तरी करके जनता को चौंका दिया है। सांसदों और विधायकों का जीवन जनता के लिए प्रेरक होना चाहिए और उनकी भूमिका तमाम सरकारी योजनाओं की निगरानी की होनी चाहिए। इससे विकास योजनाओं को बेहतर तरीके से अमल में लाया जा सकता है। जनता भी अपने जनप्रतिनिधियों से योजनाओं में भ्रष्टाचार एवं अनियमितताओं की शिकायत कर सकती है, लेकिन जब वे खुद योजनाओं को लागू करेंगे तो उनके भ्रष्टाचार की शिकायत जनता कहां करेगी? इस निधि ने कई जनप्रतिधियों के मान-सम्मान को कलंकित किया है। कुछ जनप्रतिनिधि तो खुद अपने व्यक्तियों के माध्यम से ठेकेदारी करने लगे हैं। ऐसी स्थिति में इस धनराशि को और बढ़ाकर मनमोहन सिंह की सरकार जनता को क्या संदेश देना चाहती है। जब उनके अनेक मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हों और जनता अपने मंत्रियों और सांसंदों को लोकपाल के दायरे में लाने की मांग कर रही हो तो विकास निधि की धनराशि बढ़ाने का क्या औचित्य हो सकता है? पिछले कुछ वर्षो में इस देश की राजनीति के नैतिक पतन के लिए अगर कोई एक कारण सर्वाधिक जिम्मेदार साबित हुआ है तो वह सांसद-विधायक क्षेत्र विकास निधि है।


कुछ थोड़े से सांसद या विधायक इस फंड से कमीशन न भी लेते हों, लेकिन दुरुपयोग के आरोप इतने हैं कि इसे लेकर आम जनता में आम सांसदों और विधायकों की इज्जत घटी है। इस निधि के पैसों में से कमीशन लेने वाले सांसदों और विधायकों में यह नैतिक साहस कहां बचेगा कि वे सरकार की ओर से चलाई जा रही दूसरी विकास और कल्याणकारी योजनाओं में बढ़ रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठा सकें? सांसद फंड की शुरुआत से पहले आम जनता अपने सांसदों-विधायकों से यह उम्मीद करती थी कि जरूरत पड़ने पर किसी प्रशासनिक भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने के लिए सांसद-विधायक की मदद ली जा सकती है। पर जब खुद अधिकतर सांसदों और विधायकों द्वारा ही संबंधित अधिकतर अफसरों से साठगांठ करके इस फंड के दुरुपयोग की खबरें आने लगीं तो आम लोगों में नेताओं और लोकतंत्र के प्रति आस्था कम होने लगी, जिसकी आशंका करीब आठ साल पहले मनमोहन सिंह ने राज्यसभा में व्यक्त की थी। लेकिन मनमोहन सिंह जिस सांसद निधि को खत्म करने का साहस नहीं कर सके, उसे बिहार में विधायक निधि को खत्म करके नीतीश कुमार ने दिखा दिया है। अब यह किसी से छिपा नहीं है कि अधिसंख्य सांसद-विधायक इस मद में दी गई राशि का 40 से 50 फीसदी भाग कमीशन के रूप में खुद हड़प कर जाते हैं। जिन सांसदों और विधायकों को लोक कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन की निगरानी का काम करना चाहिए था, उनमें से कई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में ठेकेदारी का धंधा करने लगे।


Parliyamentकुछ दिन पहले ही बिहार में सांसद निधि में कमीशन को लेकर हुए झगड़े में एक व्यक्ति की हत्या हो गई थी। इसलिए नीतीश कुमार ने विधायक निधि को खत्म करके संप्रग सरकार और अन्य राज्यों को नई राह दिखाई है कि जनप्रतिनिधियों का आचरण जनता के लिए प्रेरक होना चाहिए। विधायक निधि यदि राजनीति में नैतिक गिरावट का कारण बन जाए तो खत्म कर देना ही बेहतर है। पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भी अपने कार्यकाल में सभी प्रमुख दलों के नेताओं से बात करके सांसद निधि के इस्तेमाल में पारदर्शिता और जवाबदेही लाने की जरूरत पर जोर दिया था। सैद्धांतिक रूप से उनसे सहमति जताने के बावजूद किसी भी दल ने इस मामले में पहल नहीं की। देश के अलग-अलग हिस्सों में सांसद निधि के आवंटन और इस्तेमाल को लेकर अलग तरह की रिपोर्ट आ रही है। जहां कुछ इलाकों में इस निधि से वाकई जन उपयोगी काम हुए हैं, वहीं ज्यादातर इलाकों में इसके आवंटन और इस्तेमाल को लेकर तमाम तरह की निराशाजनक बातें सामने आ रही हैं। आज देश की राजधानी दिल्ली के अलावा अन्य हिस्सों में भी ऐसे दलाल विकसित हो गए हैं, जो किसी भी योजना के लिए सांसद निधि या विधायक निधि से धन आवंटन करवाने का ठेका लेते हैं।


ये लोग सांसदों के इस कोष पर सतर्क निगाह रखते है। इन्हें पता होता है कि किस इलाके के कौन से सांसद का कोष इस्तेमाल नहीं हुआ। इन्हें यह भी पता होता है कि कौन से सांसद या विधायक से सरलता से किसी भी प्रोजेक्ट के लिए धनराशि का आवंटन करवाया जा सकता हं। ये लोग बाकायदा एक मोटे कमीशन के चक्कर में इस काम को करवाने के लिए तत्पर रहते हं। चूंकि इस तरह की कमीशनबाजी का लेन-देन काले धन से गुपचुप तरीके से होता है, इसलिए इसका कोई लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। हालांकि सभी सांसद और विधायक ऐसा नहीं करते हैं। कई सांसदों और विधायकों ने इस धनराशि का बेहतर उपयोग किया है और विकास कार्य भी कराए हैं, लेकिन इस धनराशि से कमीशन लेने वाले सांसदों और विधायकों की संख्या भी कम नहीं है। महालेखा परीक्षक ने 1998 में ही इस फंड के भारी दुरुपयोग की रपट सरकार को दे दी थी। इसीलिए जब इसे एक करोड़ से बढ़ाकर दो करोड़ कर दिया गया तो 10 मार्च 2003 को राज्यसभा में प्रतिपक्ष के नेता मनमोहन सिंह ने अटल सरकार से यह कहा कि यदि आप चीजों को इसी रास्ते जाने देंगे तो जनता नेताओं और लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास खो देगी। वीरप्पा मोइली के नेतृत्व में गठित द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने करीब दो साल पहले केंद्र सरकार से यह भी सिफारिश की कि वह सांसद-विधायक निधि समाप्त कर दे।


इसके बावजूद मनमोहन सरकार यह काम आज तक नहीं कर सकी। केंद्र सरकार ने 23 दिसंबर 1993 को एक ऐसी योजना की शुरुआत की, जिसके तहत संसद सदस्यों को विकास परियोजनाओं की सिफारिश करने की अनुमति मिली। ये परियोजनाएं इस तरह की हंैं कि उनसे टिकाऊ सामुदायिक संपदा और बुनियादी ढांचा तैयार किया जा सकता है। इसे मेंबर ऑफ पार्लियामेंट लोकल एरिया डेवलपमेंट स्कीम का नाम दिया गया। मार्च 2009 तक सरकार इस योजना के तहत 19,426 करोड़ रुपये जारी कर चुकी है। दरअसल, यह फंड 1993 में तब शुरू किया गया, जब नरसिंह राव मंत्रिमंडल को लोकसभा में पूर्ण बहुमत हासिल नहीं था। उस सरकार को अनेक सांसदों को खुश करना था। इस संबंध में संयुक्त संसदीय समिति ने 23 दिसंबर 1993 को करीब 4 बजे अपनी सिफारिश सदन में पेश की और सरकार ने उसी दिन छह बजे उस सिफारिश को स्वीकार कर लेने के अपने निर्णय की घोषणा कर दी।


जिस सरकार को कंधार विमान अपहरण और मुंबई हमले की सूचना मिल जाने के बाद भी समय पर त्वरित कार्रवाई करने की चिंता नहीं होती, वह सरकार इस मामले में दो घंटे के भीतर ही निर्णय कर लेती है। सोचने वाली बात यह है कि जिस देश की आधी से अधिक आबादी बेहद गरीबी में जी रही है, उस देश में जनता के सीमित संसाधनों का फालतू के कामों में दुरुपयोग करना कहां की बुद्धिमानी है। इसलिए इस व्यवस्था का पुनर्मूल्यांकन करने की जरूरत है। नीतीश ने बिहार से इसकी शुरुआत की है। अब मनमोहन सिंह को सांसद निधि को खत्म करने का साहस दिखाना चाहिए ताकि हमारे सांसदों-विधायकों का चरित्र जनता के लिए प्रेरक बन सके।


लेखक निरंकार सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं

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